वक्त को समेटना इतना आसां न था, फारिग होने की फुर्सत ही न थी।
डूबे इस कदर शबाब ए इश्क में सुबह होने का गुमान न था।
गमों की यारी खुशियों की अदावत अदला-बदली का गर हुनर पास होता।
क़जा बेशक है तू मगर ज़िक्र ए जिंदगी में क़ायम है इबादत की जगह।
सदियों की वफा,लम्हों की खता,तेरी मुहब्बत की मुन्तजिर मेरी हर आरजू।
सफह में शामिल ही थी, जोर से झटक कर, अरे पगली जन्नती होने की ख्वाहिश मुझे भी तो थी।
-टीवी जग्गी, डॉ. भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय, आगरा
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