90वें अवतरण दिवस पर विशेषः घुटी प्रेम की पिला रहे दादाजी महाराज

90वें अवतरण दिवस पर विशेषः घुटी प्रेम की पिला रहे दादाजी महाराज

NATIONAL REGIONAL RELIGION/ CULTURE

क्या कोई ऐसा व्यक्तित्व भी हो सकता है जो सर्वगुणों की खान हो, जी हां, है लेकिन वह मालिक के रूप में ही हो सकता है। वैसे तो बालपन से ही विदित होने लगता है कि यह कोई अपार शक्ति है। ये शक्तियां धारण करने वाले अपने आप को ऐसा गुप्त और छिपाए रखते हैं कि नजदीक से नजदीक रहने वालों को भी पता नहीं चलता है, लेकिन आभास होने लगता है कि उनकी दिखावे की कोई कार्यवाही नहीं क्योंकि कभी-कभी अनजान (अजान) हो जाते हैं। ऐसे ही परमपुरुष परमपूज्य एवं परम आदरणीय परमपिता संतसतगुरु दादाजी महाराज प्रोफेसर अगम प्रसाद माथुर साहब हैं, जिनके ऊपर अभिनंदन ग्रंथ के चार भागों में पांच हजार पेज अब तक लिखे जा चुके हैं। जिसका पहला भाग अभिनंदन ग्रंथ भाग-1 है, जिसमें लगभग 1200 पेज हैं। इस ग्रंथ में दया और अनुभूति के संबंध में स्वजन उद्गार हैं। अधिकांश सतसंगी भाई-बहनों ने भी ‘दया के पर्चे’ शीर्षक से विभिन्न आलेखों के रूप में अपनी आंतरिक अनुभूतियों का विवरण दिया है। इसके अलावा समाज के विभिन्न वर्गों के महानुभावों यथा- राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष से लेकर राज्यपाल और मुख्यमंत्री के भी आलेख हैं। आईएएस और आईपीएस संवर्ग के लोगों ने बड़ी संख्या में आलेख लिखे हैं। इसके अतिरिक्त न्यायविद, शिक्षाविद, कुलपति, प्राचार्य, आचार्य, शिक्षक, डॉक्टर, इंजीनियर, इतिहासकार, सांसद, विधायक, संपादक, पत्रकार, आर्कीटेक्ट, सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक, रंगकर्मी, हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध धर्म के आचार्य, स्वतंत्रता सेनानी, अधिवक्ता, छात्र नेताओं समेत देश-विदेश के हर वर्ग के लोगों और महाराज के मित्रों ने अपने अनुभव साझा किए हैं। काव्यांजलि शीर्षक से देशभर के जाने-माने कवियों, गीतकारों और शायरों ने काव्य के रूप में अपने भाव प्रकट किए हैं। अभिनंदन ग्रंथ भाग-3 में 1100 पेज हैं। इसमें इतिहास, धर्म एवं दर्शन, राजनीतिक विज्ञान, शिक्षा, समाज शास्त्र और अर्थशास्त्र विषय पर देश एवं विदेश के जाने-माने विद्वानों के अंग्रेजी में शोधपत्र हैं। अभिनंदन ग्रंथ का चौथा भाग चित्रावली के रूप में है। इसमें महाराज, उनके परिवारीजन, सतसंगियों और समाज के विशिष्ट व्यक्तियों के साथ दुर्लभ चित्रों का संग्रह है। यह अभिनंदन ग्रंथ सन् 1995 ईसवी में  65वें अवतरण दिवस पर भेंट किया गया था। उन्हीं दादाजी महाराज का 27 जुलाई, 2020 को  90वां अवतार दिवस है।

 मौलिक ज्ञान के ज्ञाता

कोई व्यक्ति किसी एक विधा का विशेषज्ञ हो सकता है, लेकिन दादाजी महाराज तो अनगिनत विधाओं के विशेषज्ञ हैं। लेखन में उनकी तुलना में कोई नहीं ठहरता है। जहां तक भाषण की बात है तो ऐसा धाराप्रवाह भाषण कि श्रोतागण अवाक रह जाएं और कई दिन तक कानों में गूंजता रहे। सतसंग में प्रवचन बोलें तो दृष्टि ऐसी पैनी डालें कि कालकरम चूर हो जाए। लेकिन इन सबके लिए भाग्य होना चाहिए। प्रत्येक के वश की बात नहीं है। दादाजी महाराज ने अपने भाषणों से आगरा नगरी को हिलाकर रख दिया है। किसी विषय का अनुवाद करना कोई अनोखी बात नहीं है। यह तो कोई भी व्यवसायी विशेषज्ञ कर सकता है और यदि कोई ऐसा व्यक्ति अपने को महिमामंडित कराने की सोचेगा भी तो वह समाज में अपना हास-परिहास कराएगा । क्या गीदड़ शेर का मुकाबला कर सकता है? केवल ऐसे व्यक्ति का अहम जागता है। मौलिक (Original) ज्ञान का विषय ज्ञाता खोजे नहीं मिलता है और यही मौलिकता दादाजी महाराज में है। अद्भुत गुणों की खान दादाजी महाराज राधास्वामी मत के करोड़ों अनुयायियों के प्राण हैं, जान हैं, प्रेमीजन के माता-पिता और सबकुछ हैं।

सवा दर्जन ग्रंथों की रचना

दादाजी महराज ने अब तक सवा दर्जन ग्रंथों की रचना की है, जिनमें पद्य और गद्य में रचनाएं तथा फुटकर कविताएं भी सम्मलित हैं। कोई व्यक्ति थोड़ा बहुत लिखना जानता है तो इतराता है, वहीं दादाजी महाराज ने अपनी अमृत वाणी से इतने ग्रंथों की रचना की है कि अचरज होता है। अंग्रेजी में Radhasoami Faith- a Historical Study और दूसरी Petals  of Love की रचना की है। Radhasoami Faith- a Historical Study एकमात्र ऐसी पुस्तक है जो राधास्वामी मत के बारे में शोधपरक अधिकृत जानकारी देती है। तभी तो इस पुस्तक के बारे में प्रसिद्ध इतिहासकार आरसी मजूमदार ने टिप्पणी की है कि पश्चिम बंगाल के लोग कहते थे कि आधुनिक भारत के निर्माता केवल रबीन्द्र नाथ टैगोर ही थे, लेकिन आपकी पुस्तक (Radhasoami Faith- a Historical Study) मिलने के बाद यह बात सिद्ध हो गई कि आधुनिक भारत के निर्माता राधास्वामी मत के संस्थापक स्वामी जी महाराज और हजूर महाराज भी थे। Petals  of Love पुस्तक में आलेखों और भाषणों का दुर्लभ संकलन है, जिसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी बहुत सराहा गया है। इस पुस्तक के बारे में केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के पूर्व निदेशक महावीर सरन जैन ने लिखा है- ‘मुझे आपकी पुस्तक पेटल्स ऑफ लव प्राप्त हुई। मैं आज ही इसे आद्योपांत पढ़ गया। सन्यस्त धर्म का पालन करते हुए भी जिस चरम सत्य का अनुसंधान दुष्कर है, उसे आपने पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन जीते हुए सहज रूप से इस पुस्तक में अभिव्यक्त कर दिया है। यह इस कारण संभव हो सका है कि आपका व्यक्तित्व जल में शतदल की भांति उन्मीलित एवं विकसित हुआ है। बहुआयामी, बहुगुणी, बहुपार्श्वीय व्यक्तित्व का धनी ही ऐसी रचना कर सकता है’। इन पुस्तकों को विश्वस्तर पर आंका गया है और उत्तम ग्रेड मिले हैं। राधास्वामी मत पर पद्य में कई पुस्तकें दादाजी महाराज ने लिखी हैं। दादाजी महाराज ने धारा प्रवाह भाषण दिए हैं, जिनका मीडिया में इतना व्यापक कवरेज हुआ है कि समाचार पत्रों की कतरन से पांच बड़े रजिस्टर भरे हुए हैं। दयालबाग, आगरा के दीक्षांत हॉल में दादाजी महाराज ने राधास्वामी मत परंपरा पर आयोजित समारोह के उद्घाटक उद्बोधन में अपने विचार रखे। उन्होंने राधास्वामी मत की ऐसी गहन विवेचना की कि समारोह में उपस्थित सतसंगी अवाक रह गए। यह उद्बोधन आज तक सराहा जाता है। दादाजी महाराज के भाषणों और प्रवचनों के कैसेट्स का विशाल संग्रह है।  दादाजी महाराज द्वारा रचित और लिखित पुस्तकों का क्रम इस प्रकार है-  प्रेमावली सन् 1960, अमृत वाणी वोल्यूम वन- प्रेम रागिनी सन् 1963, जीवन चरित्र परम पुरुष पूरन धनी लालाजी महाराज सन् 1966,  राधास्वामी मतः एक आध्यात्मिक अध्ययन सन् 1974, Radhasoami Faith- a Historical Study सन् 1974, अमृत बचन राधास्वामी वोल्यूम-1 सन् 1980, अमृत बानी वोल्यूम-2 (प्रेम तरंगिनी) सन् 1985, जीवन चरित्र परम पुरुष पूरन धनी कुँवर जी महाराज सन् 1985, अमृत बचन राधास्वामी वोल्यूम–2 सन् 1990, स्मारिका 175 वां जन्म दिवस परम पुरुष पूरन धनी स्वामीजी महाराज सन् 1993, अमृत वाणी वोल्यूम-2 प्रेम तरंगिनी) रिवाइज्ड एंड एनलार्ज्ड एडिशन ( सन् 1994, हजूरी दया की झलकियां सन् 1998, अमृत बचन राधास्वामी वोल्यूम-3 आध्यात्मिक परिभ्रमण सन् 2001, Petals  of Love सन् 2009 डीके पब्लिशर्स डिस्ट्रीब्यूटर्स नई दिल्ली, राधास्वामी मत – हमारे आचार्य  सन् 2009, मेरे विचार सन्2011  प्रगुन पब्लिकेशन नई दिल्ली।  ‘मेरे विचार’ पुस्तक में इतिहास, राजनीति, समाजशास्त्र, साहित्य, शिक्षा, पत्रकारिता, पर्यावरण, चिकित्सा विज्ञान, दर्शन, अध्यात्म, हिन्दी, संस्कृत, नैतिक मूल्य, अर्थशास्त्र, प्रौद्योगिकी, साहित्य, कला, संगीत, स्थापत्य पुरातत्व, अंतरराष्ट्रीयता, जनसंख्या विस्फोट, आतंकवाद, धर्म, धर्मनिरपेक्षता, प्रेम, शांति, महिलाओं की स्थिति, समाज जैसे अनेकानेक विषयों पर दिए गए गहन भाषणों का संकलन है। इस पुस्तक के बारे में यह टिप्पणी सर्वथा उपयुक्त है- ‘’यदि एक बंद कक्ष में बैठकर विचार प्रस्तुत किए जाते हैं तो भी उनका दूरगामी प्रभाव होता है क्योंकि उनकी झंकृत धुन संपूर्ण वायुमंडल में प्रसारित हो जाती है।‘’

आगरा कॉलेज में 30 वर्ष तक अध्यापन

दादाजी महराज ने आगरा कॉलेज के इतिहास विभाग में अध्यापन कार्य शुरू किया। उन्होंने 30 वर्ष तक अध्यापन कार्य किया। प्रवक्ता से लेकर इतिहास विभागाध्यक्ष तक रहे। इस दौरान दादाजी के निर्देशन में लगभग 40 शोधार्थियों ने पीएचडी की उपाधि ग्रहण की। प्रत्येक शोध प्रबंध मौलिक होता था।

सुहल-ए-कुल का आयोजन

1980 में सम्राट अकबर की सुलह-ए-कुल नीति की 400वीं वर्षगांठ के समारोह के अवसर पर आयोजित राष्ट्रीय एकीकरण कार्यक्रम के अंतर्गत संगोष्ठी के संयोजक के रूप में अद्भुत कार्य हुआ। सुलह-ए-कुल के नाम से यह कार्यक्रम आगरा किला और फतेहपुर सीकरी में हुआ। इसमें प्रधानमंत्री समेत केन्द्र सरकार के 10 से अधिक मंत्री उपस्थित हुए। उत्तर प्रदेश के राज्यपाल एवं  मुख्यमंत्री सहित लगभग 40 मंत्री,  विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के चेयरमैन जैसी हस्तियां आईं। फतेहपुर सीकरी किला में हुए समारोह में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने भाषण दिया। यह कार्यक्रम केन्द्र से संचालित था और राज्य स्तर से व्यवस्था की गई थी। आगरा किला के दीवान-ए-आम में राष्ट्रीय स्तर पर संगोष्ठी हुई, जिसका पूर्ण रूप से जिम्मा दादाजी महाराज पर था। यूनेस्को द्वारा संरक्षित आगरा किला को कोई नुकसान पहुंचाए बिना कार्यक्रम इतने सलीके से हुआ कि उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह भी दादाजी महाराज के आयोजन कौशल के मुरीद हो गए। संगोष्ठी में केन्द्रीय गृहमंत्री ज्ञानी जैल सिंह ने भी भाग लिया था। इस संगोष्ठी में शोधपत्रों का वाचन हुआ। इस मौके पर दीवान-ए-आम में रात्रि में कवि सम्मेलन एवं मुशायरा का भी आयोजन हुआ। जहांगीरी महल में लाइट एंड साउंड शो हुआ, जो कई दिन तक आम जनता के लिए खुला रहा। उल्लेखनीय बात यह है कि दादाजी महाराज की पहल पर अतिथियों को शाकाहारी भोजन कराया गया।

कुलपति विश्व सम्मेलन

आयोजनों की बात चली है तो सभी विद्वत जनों को अवगत कराना चाहता हूं कि दादाजी महाराज ने विभिन्न रूपों में अनेक सम्मेलन कराए हैं। इंस्टीट्यूट ऑफ हिस्टोरिकल स्टडीज का चौदहवां वार्षिक सम्मेलन संयोजक के रूप में कराया, जिसमें आगरा की विभिन्न विभूतियां उपस्थित रहीं, सांस्कृतिक कार्यक्रम हुए, आगरा के सभी कॉलेजों ने भाग लिया। इंस्टीट्यूट ऑफ हिस्टोरिकल स्टडीज का तेंतीसवां अधिवेशन अध्यक्ष के रूप में आयोजित कराया। इंस्टीट्यूट ऑफ हिस्टोरिकल स्टडीज का पैंतीसवां वार्षिक अधिवेशन संरक्षक के रूप में कराया। सभी अधिवेशनों में आए देश-विदेश के इतिहासवेत्ताओं ने सुव्यवस्थाओं के लिए दादाजी महाराज के प्रति कृतज्ञता प्रकट की। कुलपति के रूप में “कुलपति विश्व सम्मेलन” भी कराया।

आगरा विश्वविद्यलय के दो बार कुलपति

दादाजी महाराज आगरा कॉलेज के इतिहास विभागाध्यक्ष से सीधे आगरा विश्वविद्यालय के  कुलपति बन गए। इस पर आगरा कॉलेज प्रबंध समिति ने एक प्रस्ताव पारित करके प्रसन्नता प्रकट की। वे दो बार कुलपति रहे। पहली बार 1982 से 1985 तक और दूसरी बार 1988 से 1991 ई. तक।

कुलपति के रूप में

विश्वविद्यालय और महाविद्यालयों में छात्रसंघ चुनाव बिलकुल बंद करा दिए और यह व्यवस्था की कि किसी का कोई भी काम विश्वविद्यालय में रुके नहीं, जिससे सभी प्रसन्न और संतुष्ट थे। छात्रों और कर्मचारियों की समस्याओं का निदान प्राथमिकता पर करते थे, इस कारण चुनाव की आवश्यकता ही नहीं रह गई थी। अगर मैनेजमेंट किसी कॉलेज में प्राचार्य या शिक्षक को निलंबित कर देता था तो उसे तत्काल बहाल कर देते थे। मैनेजमेंट कमेटी की समस्याएं भी सुलझाने में विशेष रुचि रखते थे। कुलपति के दोनों कार्यकाल में केन्द्रीय और राज्य स्तर के मंत्रालयों में पत्रावलियों का निस्तारण शीघ्र होता था। दोनों कार्यकाल के दौरान विश्वविद्यालय कर्मचारियों की हड़ताल नहीं हुई जबकि उत्तर प्रदेश में अन्य विश्वविद्यालयों के कर्मचारियों ने हड़ताल की।

समस्त शक्ति झोंक दी

कुलपति ही किसी विश्वविद्यालय का मुख्य शैक्षिक और प्रशासनिक अधिकारी होता है। विश्वविद्यालय के समस्त क्रियाकलापों में उसकी कार्यशैली, क्षमता, बुद्धिमत्ता, संगठन वृत्ति और दूरदर्शिता ऐसे तंतु हैं जो विश्वविद्यालय को सही मायनों में प्रगतिशील बनाते हैं। इस तथ्य से दादाजी महाराज भलीभांति परिचित थे, अतः उन्होंने कुलपति पद पर आसीन होने के बाद प्रशासनिक, शैक्षिक तथा वित्तीय विभागों पर विशेष ध्यान दिया, जो उस समय शोचनीय स्थिति में थे। अपने प्रथम कार्यकाल में ही उन्होंने दयनीय दशा को उचित दिशा प्रदान की। यथा – विश्वविद्यालय के पिछड़े हुए सत्र को सही समय पर कराने का अपना संकल्प पूर्ण किया। इसके अतिरिक्त प्रशासन में अव्यवस्था, शिक्षण के शिथिल स्तर आदि वे समस्याएं थीं जो उनके समक्ष खड़ी थीं। उनकी उत्कृष्ट अभिलाषा विश्वविद्यालय के अतीत के गौरव को पुनः स्थापित करने तथा अन्य श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों के स्तर तक उठाने की थी। इस कार्य में उन्होंने अपनी समस्त शक्ति झोंक दी।

वर्षों से खाली पड़े पद भरे

दादाजी महाराज के समक्ष कुछ शिक्षकों के स्थाईकरण की समस्या थी। इन शिक्षकों की नियुक्ति के समय शैक्षिक योग्यताएं कुछ थीं और बाद में ये योग्यताएं बदल दी गई थीं। दादाजी महाराज ने इस संबंध में स्पष्टवादी रवैया अपनाया और प्रशासन को सूचित करके इन लोगों को शीघ्र ही नियमित कर दिया। अवकाश प्राप्त शिक्षकों को पुनः नियोजित कराया, जिससे धन की बचत हुई। वर्षों से खाली पड़े महाविद्यालयों के प्राचार्यों के पद भरे गए।

शैक्षिक गुणवत्ता

विश्वविद्यालय की शैक्षिक गुणवत्ता को स्थापित करने के लिए उन्होंने विवि में आवासीय प्रकोष्ठ स्थापित किया। यद्यपि वहां पहले से ही तीन संस्थान स्थापित थे- यथा,  केएम मुंशी हिन्दी विद्यापीठ, समाज विज्ञान संस्थान और खंदारी पर गृह विज्ञान संस्थान, किन्तु उनका कार्य संतोषजनक नहीं था। दादाजी महाराज ने उनकी कार्यप्रणाली में सुधार किए और अनुभव किया कि मात्र ये तीन संस्थान पर्याप्त नहीं थे, अतः उन्होंने बेसिक साइंस संस्थान स्थापित किया, जिसमें भौतिकी, रसायन शास्त्र, वनस्पति विज्ञान, जन्तु विज्ञान, गणित विभाग सम्मलित थे। इन विभागों ने एमएससी, एमफिल एवं पी.एचडी. के मुख्य पाठ्यक्रम प्रारंभ कर दिए। क्लीनिकल केमिस्ट्री, न्युक्लियर फिजिक्स, कंप्यूटर एप्लीकेशन एवं सिस्टम एनलिसिस तथा सोशल फोरेस्ट्री के नवीन पाठ्यक्रम प्रारंभ किए गए। इतिहास विभाग की स्थापना एवं उसे पूर्ण रूपेण भारतीय इतिहास एवं संस्कृति संस्थान के रूप में विकसित करने का श्रेय भी दादाजी महाराज को है। साथ ही लाइब्रेरी साइंस और पांडुलिपि विज्ञान विभाग स्थापित किए। इन सभी संस्थानों ने आवासीय प्रकोष्ठ की अपेक्षाओं को पूर्ण किया। इससे विश्वविद्यालय की गरिमा में वृद्धि हुई। विश्वविद्यालय पर लगा यह आरोप भी समाप्त हो गया कि विश्वविद्यालय केवल एक परीक्षा संचालन निकाय ही है।

व्यावसायिक पाठ्यक्रम शुरू कराए

दादाजी महाराज ने यह अनुभव किया कि सैद्धांतिक ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है अपितु छात्रों को विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु व्यावहारिक ज्ञान भी परम आवश्यक है। उन्होंने व्यवसायपरक पाठ्यक्रम प्रारंभ किए और सब प्रकार की कठिनाइयों तथा आलोचनाओं के उठते उबाल को अपने व्यक्तित्व में समाहित करते रहे। उन्होंने व्यवसायपरक परास्नातक डिप्लोमा पाठ्यक्रम प्रारंभ किए जिनके द्वारा अनेक व्यवसायहीन युवकों को व्यवसाय मिला। इन पाठ्यक्रमों में प्रमुख हैं-

होटल मैंनेजमेंट एंड टूरिज्म, बिजनेस मैनेजमेंट, हिन्दी और अंग्रेजी में कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग, शारीरिक शिक्षा, प्रौढ़ एवं सतत शिक्षा, अभिलेख एवं संग्रहालय विज्ञान, इलेक्ट्रानिक्स, एकाउंटेंसी,  प्रशासकीय एवं राजकीय हिन्दी, अनुवाद, पत्रकारिता। इन नवीन योजनाओं के लिए दादाजी महाराज को सदैव गौरव और सम्मान के साथ याद किया जाएगा।

दादाजी महाराज ने संबद्ध महाविद्यालयों की ओर भी समान रूप से ध्यान दिया। उनकी सामान्य समस्याओं के समाधान हेतु विश्वविद्यालय अनुदान आय़ोग की स्वीकृति प्राप्त करके महाविद्यालय विकास परिषद (सीडीसी) की स्थापना की। इस परिषद ने महाविद्यालयों, आवासीय खंडों और सेतु के रूप में कार्य किया।

शैक्षिक स्तर पर विभिन्न पाठ्यक्रमों को उन्नत करने और नवीन पाठ्यक्रम प्रारंभ करने की दिशा में कदम बढ़ाए गए ताकि विश्वविद्यालय का आवासीय प्रकोष्ठ अधिक विकसित किया जा सके। जो नवीन पाठ्यक्रम जो सप्तम पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत विश्वविद्यालय अनुदान आय़ोग की स्वीकृति के लिए भेजे गए वे निम्नांकित हैं-

1.इतिहासः एमए (उन्नत पाठ्यक्रम); पुरातत्व विज्ञान, ललित कलाओं, समाज कल्याण, पत्रकारिता एवं जनसंचार में डिप्लोमा।

2. भौतिकीः इलेक्ट्रानिक्स एवं कंप्यूटर विज्ञान में एमएससी। कंप्यूटर विज्ञान एवं भौतिकी में डिप्लोमा।

3.रसायन शास्त्रः पर्यावरण एवं रसायन शास्त्र में एमएससी, औषधि शास्त्र में बीएससी, लैदर फिनिशिंग, पेंट्स तथा वार्निश एवं औषधि विज्ञान में डिप्लोमा।

4.गणितः एमए, एमएससी तथा मौसम विज्ञान में डिप्लोमा

5. जंतु विज्ञानः व्यावहारिक जन्तु विज्ञान में एमएससी, जैव रसायन तकनीक में डिप्लोमा।

6. पुस्तकालय विज्ञानः पुस्तकालय विज्ञान, अभिलेख विज्ञान एवं संग्रहालय विज्ञान में डिप्लोमा।

7.समाज विज्ञानः अर्थशास्त्र एवं राजनीति विज्ञान में एमफिल तथा पीएचडी।

8. हिन्दी एवं भाषा अध्ययनः उर्दू में एमए, एमफिल एवं पीएचडी। संस्कृत व अंग्रेजी में एमए, एमफिल व पीएचडी तथा इस क्षेत्र में अन्य डिप्लोमा।

9.गृह विज्ञानः गृह विज्ञान में बीएससी तथा एमएससी, शिशु विकास, आहार एवं पोषण तथा गृह विज्ञान की विभिन्न शाखाओं में शोध।

10. प्रौढ़ एवं सतत शिक्षा विस्तारः 340 केन्द्र खोले गए।

11. प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए कोचिंग केन्द्रः अल्पसंख्यक और सामान्य श्रेणी के छात्रों के लिए कोचिंग केन्द्र स्थापित किए।

परिणामतः जब दादाजी महाराज का कार्यकाल 1985 में समाप्त हुआ तथा विश्वविद्यालय अधिक व्यवस्थित हो चुका था, जो छात्रों, महाविद्यालयों, शिक्षकों तथा विश्वविद्यालय के संस्थानों और विभागों की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए प्रभावशाली ढंग से यथेष्ट था।

जब फिर से कुलपति बने

1988 ई. में प्रो. माथुर पुनः विश्वविद्यालय के कुलपति नियुक्त किए गए। यह गर्व का विषय था क्योंकि कोई अन्य कुलपति दो कार्यकालों के लिए आगरा विश्वविद्यालय में अब तक कुलपति नियुक्त नहीं हुआ था। अपना पद ग्रहण करने के पश्चात उन्होंने उन योजनाओं को पूर्ण करने का कार्य प्रारंभ किया जो प्रथम काल से उनके मस्तिष्क में थीं। परास्नातक, रोजगारपरक डिप्लोमा  पाठ्यक्रमों को विकसित करना तथा उन्हें अधिक व्यवस्थित करना उनकी प्राथमिकता थी। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने राज्य सरकार और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को व्यावसायिक संस्थान स्थापित करने के लिए अनुमति प्रदान करने हेतु लिखा और बिना उनकी अनुमति की प्रतीक्षा किए कार्यकारिणी के अनुमोदन के पश्चात संस्थान को स्थापित कर दिया और पाठ्यक्रम स्थापित कर दिए। वे अपने आप में पूर्ण व स्ववित्तपोषित थे और अत्यंत सर्वप्रिय प्रचलित और उपयोगी सिद्ध हुए। दादाजी महाराज ने महाविद्यालयों को भी इन पाठ्यक्रमों को आरंभ करने की अनुमति दी कि वे नियम और आवश्यक अर्हताएं पूर्ण करते हों। इसी श्रृंखला में एक महत्वपूर्ण निर्णय बीएड (अवकाशकालीन) का प्रारंभ करना था। यह भी एक स्ववित्तपोषित कार्यक्रम था तथा इससे विश्वविद्यालय के कोश में आशातीत वृद्धि हुई। इस अनूठी योजना के लिए दादाजी महाराज को याद किया जाएगा। आगरा विश्वविद्यालय को त्रिवर्षीय पाठ्यक्रमों के संबंध में अन्य विश्वविद्यालयों के समकक्ष करने के लिए दादाजी ने इन पाठ्यक्रमों को भी सभी संस्थाओं और संकायों में लागू करने हेतु त्वरित कदम उठाए। विश्वविद्यालय ने ऑनर्स डिग्री पाठ्यक्रम प्रारंभ किया। ऐसा करने वाले भी दादाजी महाराज प्रथम कुलपति थे।

दीक्षांत समारोह के गाउन को उतार फेंका

दादाजी महाराज ने जहां हिन्दी को बढ़ावा दिया, अंग्रेजी एवं अंग्रेजियत को हतोत्साहित किया। वहीं अंग्रेजियत के प्रतीक दीक्षांत समारोह के गाउन को उतार फेंकने में कोई कसर नहीं छोड़ी। चार अप्रैल 1990 ई. को बिचपुरी में हुए दीक्षांत समारोह में तत्कालीन मुख्यमंत्री पधारे, उस समय कुलपति दादाजी ने दीक्षांत समारोह में गाउन के स्थान पर उत्तरीय का प्रयोग किया। आगरा विश्वविद्यालय की मुहर, मोनोग्राम और सभी कुछ हिन्दी में करा दिया। विश्वविद्यालय की सारी कार्यवाही यहां तक कि कार्यपरिषद के दस्तावेज हिन्दी में लिखने के आदेश दिए और उनका क्रियान्वयन सुनिश्चित कराया।

जब दादाजी महाराज ने पद ग्रहण किया, विश्वविद्यालय का घाटा एक करोड़ 20 लाख रुपये तक पहुंच चुका था। उन्होंने राज्य सरकार, केन्द्र सरकार और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से अनुदान और वित्तीय सहायता प्राप्त करने के लिए अथक प्रयास किए और स्ववित्तपोषित पाठ्यक्रमों से धनराशि उपलब्ध कराई। परिणाम यह हुआ कि जब उन्होंने अवकाश ग्रहण किया तब 20 लाख रुपये की अतिरिक्त धनराशि विश्वविद्यालय के कोश में विद्यमान थी।

छात्रों के लिए सेवा कार्य

दादाजी महाराज सेवा कार्यों से बराबर जुड़े रहे। विद्यार्थियों के प्रति मोह उन्हें यदाकदा कष्ट में भी डालता रहा है, लेकिन उन्हें कभी विचलित नहीं होते देखा गया। असहाय छात्रों को पुस्तकें, आवास, वस्त्र और भोजन की व्यवस्था करना उनका सदा से व्रत रहा है। पूर्ण रूप से मानववाद के पुजारी दादाजी महाराज ने स्वयं को राजनीतिक गठबंधनों तथा “वादों” से स्वतंत्र रखते हुए समाज के चतुर्दिक कल्याण का लक्ष्य ही अपने समक्ष रखा। उन्होंने न केवल शैक्षिक उत्कृष्टता तक ही अपनी योजनाओं को सीमित रखा वरन राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर के सामाजिक- सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया। नेहरू जन्म शताब्दी समारोह पूरे वर्ष तक चलता रहा। इस समारोह में युवा समारोह, भाषण, वाद-विवाद प्रयोगिताएं, प्रतिमान संसद, नेहरू प्रदर्शनी और नेहरू शताब्दी स्मारिका का प्रकाशन सम्मलित है। विश्वविद्यालय के तत्वावधान में अंतरराष्ट्रीय बाल रक्षा सम्मेलन तथा भारत-रूस मैत्री सम्मेलन हुए। सन् 1989 में भारत-रूस मैत्री सम्मेलन की अध्यक्षता सोवियत संघ की उपराष्ट्रपति श्रीमती शैवचैन्को ने की।

अद्भुत हुआ विदाई समारोह

किसी भी व्यक्ति के कार्यों की समीक्षा उसके विदाई समारोह से प्रकट होती है। दादाजी के साथ भी ऐसा ही परिलक्षित हुआ जब उनके विदाई समारोह के दौरान 27 अप्रैल, 1991 को आगरा विश्वविद्यालय के सीनेट हॉल में तिल रखने को भी जगह नहीं रही। यह वह ऐतिहासिक क्षण थे जब विश्वविद्यालय अपने गौरवशाली कुलपति को दूसरी बार विदाई दे रहा था। यह विदाई समारोह अपने आप में अनूठा था क्योंकि इससे पूर्व किसी भी कुलपति को विश्वविद्यालय के सभी वर्गों के लोगों ने इतनी भावभीनी विदाई नहीं दी थी। दादाजी महाराज की उपलब्धियों से उन्हें ख्याति और सम्मान मिला। उनके कुलपतित्व के दोनों कार्यकालों का इतिहास स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाएगा।

आगरा के विकास की चिन्ता

दादाजी महाराज आगरा के चतुर्दिक विकास के लिए सदैव चिन्तित रहते हैं। यह चिन्ता आज भी बनी हुई है। आगरा के बारे में दादाजी महाराज का बहुचर्चित आलेख है- ‘कौन लौटाएगा मेरा आगरा ?’  इसे पढ़ लें तो आगरा के बारे में कोई और पुस्तक पढ़ने की आवश्यकता नहीं रह जाती है। उनकी चिन्ता इन पंक्तियों में परिलक्षित है- मैंने सन् 1947-48 ई. के एक साल के अंतराल में आगरा में ऐसे व्यक्तियों को नेता के रूप में उभरते देखा है जिनका राष्ट्रीय आंदोलनों से दूर-दूर तक का संबंध नहीं था। इन लोगों ने आगरा के महत्व को नहीं समझा और न ही उसके विकास में रुचि ली। उन्होंने ताज को बचाया परन्तु नगर पर ध्यान नहीं दिया। फलस्वरूप न ताज बच पाया, न ही आगरा नगर। नालियों की समय पर सफाई नहीं होती है..,  बरसाती पानी का कोई निकास नहीं है क्योंकि नगर में जो ताल तलैया थे, उन्हें पाटकर इमारतें खड़ी कर दी गईं। पीने को शुद्ध पानी उपलब्ध नहीं है। पर्यावरण दिनोंदिन प्रदूषित होता जा रहा है। चिकित्सा की समुचित व्यवस्था नहीं..। इसी आगरा की एक अन्य उत्कृष्ट देन है – अध्यात्म। स्वामी जी महाराज और हजूर महाराज का जीवन चरित्र पढ़कर देखिए- आत्मचिन्तन पर बल देने की बात कही गई है…।  आगरा की प्रगति के लिए मेरा सुझाव है कि केन्द्रीय प्राधिकरण बनाया जाए जिसके अंतर्गत केन्द्र सरकार 10 वर्षों तक आगरा को अपने अधीन रखकर विकास करे। केन्द्रीय प्राधिकरण का अधिकारी कम से कम 10 वर्षों तक आगरा में रहे। एक-एक वर्ष में स्थानांतरित होने वाले अधिकारी विकास नहीं कर सकते। केन्द्रीय प्राधिकरण में राज्य सरकार का कोई हस्तक्षेप न हो। केन्द्र सरकार अपने बजट का कम से कम के एक प्रतिशत केन्द्रीय प्राधिकरण को दे। जब तक पर्याप्त धन नहीं दिया जाएगा, आगरा, चंडीगढ़ या नई दिल्ली की तरह आधुनिक नगर नहीं बन सकता। उत्तर प्रदेश सरकार और स्थानीय प्रशासन के पास संसाधन नहीं हैं। आगरा का स्वर्णिम वैभव लौटना चाहिए। कौन लौटाएगा मेरा आगरा? राज्य सरकार, केन्द्रीय सरकार, उच्चतम न्यायालय या आप और हम? आगरा को ताजनगरी लिखने पर दादाजी महाराज को आपत्ति है। वे कहते हैं कि आगरा का इतिहास ताजमहल से शुरू नहीं होता है। आगरा का उद्भव तो महाभारत काल से भी पहले का है।

आज भी कर रहे मार्गदर्शन

आज भी एक शिक्षक के रूप में दादाजी महाराज शोधार्थियों का मार्गदर्शन करने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। इतिहास और पुरातत्व विषय पर लिखने वाले पत्रकार दादाजी महाराज का परामर्श अवश्य लेते हैं। दादाजी महाराज ने आगरा को लेकर अनेक रहस्य खोले हैं। आगरा किला और ताजमहल के आसपास जैन मंदिर होने के बारे में उनका एक आलेख काफी चर्चित रहा है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) द्वारा विश्व विरासत दिवस पर आगरा किला के दीवान-ए-आम में आयोजित समारोह में यह आलेख पढ़ा गया था। दादाजी महाराज ताजमहल और फतेहपुर सीकरी में व्यापक उत्खनन के पक्षधर हैं ताकि भूमि के गर्भ में छिपा हुआ रहस्य सार्वजनिक हो सके।

चलकर आते हैं सम्मान

दादाजी महाराज के पास सम्मान चलकर आते हैं। दादाजी महाराज का सम्मान करके संस्थाएं स्वयं गौरवान्वित होती हैं। उनके नाम और ख्याति का मूल्यांकन उपाधियों, अलंकरणों और उन सदस्यताओं से किया जा सकता है जो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने प्रदान किए हैं- फेलो ऑफ रॉयल एशियाटिक सोसाइटी लंदन, फेलो ऑफ इंस्टीट्यूट ऑफ हिस्टोरिकल स्टडीज, कोलकाता, फेलो ऑफ यूनाइटेड राइटर्स एसोसिएशन चेन्नई, बृज रत्न, आगरा शिरोमणि, सेकुलर इंडिया हारमनी अवार्ड 1998, Who’s Who इन इंडो अमेरिका एजूकेशन 1975, इंडिया Who’s Who ईयर बुक 1977-78, लर्नेंड्स इंडिया बायोग्राफीज 1980, लर्नेंड्स एशिया Who’s Who 1981, Who’s Who इन इंडिया 1985, रेफरेंस एशिया वॉल्युम सेकंड 1986, बायोग्राफी इंटरनेशनल 1993, इंडो-अमेरिकन Who’s Who 1994 आदि। हिन्दी साहित्य सम्मेलन के वार्षिक सम्मेलन में मानद उपाधि से सम्मानित किया गया। आगरा के प्रमुख दैनिक अखबार डीएलए ने वर्ष 2016 का सिटीजन ऑफ द ईयर (Citizen of the Year) अवॉर्ड से विभूषित किया।

पूरे देश में आध्यात्मिक परिभ्रमण

आध्यात्मिक परिभ्रमण की ओर चलते हैं तो पाते हैं कि ऐसा कोई भारत का नगर नहीं है, जहां दादाजी महाराज गए नहीं हैं और अपने भाषणों तथा सतसंग के प्रवचनों से लोगों को निहाल न किया हो।  1962, 1963, 1964,  1966, 1999, 2000  में आध्यात्मिक परिभ्रमण किया। दिल्ली, केन्द्र शासित प्रदेश और सिटी ब्यूटीफुल के नाम से प्रसिद्ध चंडीगढ़, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश के शहर और ग्रामीण अंचल में आध्यात्मिक परिभ्रमण किया। 1962 में एक अप्रैल से 23 अप्रैल तक राजस्थान के अनेक ग्रामों और नगरों में सतसंग की धूम रही। फिर 25 सितम्बर, 1999 से 12 अप्रैल, 2000 तक एक बार फिर भारत के विभिन्न राज्यों में अनेक श्रद्धालुओं ने अनूठी झंकृत शब्द-धुन सुनी। अजब समां था। अजब बिलास। प्रेम का रंग था। आनंदविभोर थे सब। 1999 में कोलकाता में गए तो लोग उमड़कर आए। चाहे सतसंगी हो या गैर सतसंगी दादाजी महाराज के गहरे प्रभाव से अछूते नहीं रहे। सारे रास्ते सतसंगी रेलवे स्टेशनों पर दर्शनार्थ उमड़ते रहे और अपने प्रिय प्रीतम से मिलने की प्यास बुझाते रहे। परिभ्रमण में यही हाल मुंबई का रहा। मुंबई में कई स्थानों पर गए, सतसंग और बचन फरमाए। जीव लाचार और दुखी है। धनाभाव और परिस्थितियों में दबकर वह सतगुरु के दर्शन करने के लिए दरबार में नहीं आ पाता है। ऐसी परिस्थिति में संतसतगुरु कुछ ऐसा बानक बनाते हैं यानी ऐसी मौज रचते हैं कि स्वयं जीवों को दर्शन देने के लिए पहुंच जाते हैं। इससे जनसाधारण पर भक्ति का बीजा पड़ता है।

कोलकाता में धूम

आध्यात्मिक परिभ्रमण के दौरान कोलकाता की अंतरराष्ट्रीय संस्था माइकल मधुसूदन एकेडमी ने दादाजी महाराज को एमिनेंट एजूकेशनिस्ट- बेस्ट अवॉर्ड -1999 (सर्वोच्च पुरस्कार-उत्कृष्ट शिक्षाविद) के रूप में 24  सितम्बर, 1999 को कोलकाता में बंगाल के राज्यपाल एसके सेन के हाथों सम्मानित कराया। खास बात यह रही कि दादाजी महाराज ने बांग्ला भाषा की राजधानी में हिन्दी की पताका फहराई। इतिहासकारों और इतिहास की अंतरराष्ट्रीय संस्था इंस्टीट्यूट ऑफ हिस्टोरिकल स्टडीज, कोलकाता ने 28 सितम्बर, 1999 को कोलकाता स्थित इंस्टीट्यूट के हॉल में दादाजी महाराज का अभिनंदन किया। दादाजी महाराज को समाज का मार्गदर्शक माना गया।

1911 से संचालित हजूरी रसोई

महाराज ने सत्संग का बहुत विस्तार किया है। हजूरी भवन में हर व्यवस्था उनके आदेश से ही संचालित होती है। समय-समय पर वे निरीक्षण करते रहते हैं। जहां जिस वस्तु की कमी होती है, उसे तुरंत पूरा करते हैं। सेवादारों को हिदायत रहती है कि वे अपनी सेवा पूरी लगन और ईमानदारी से करें। गेहूं की व्यवस्था के लिए उन्होंने कुछ कक्ष चिह्नित किए है, जिनमें पूरे वर्ष के लिए गेहूं भंडारित किया जाता है। आधुनिक मशीनों का प्रयोग भंडारगृह में किया जाता है। जो भोजन हजूरी रसोई में तैयार किया जाता है, वह उच्चकोटि का होता है। ऐसा भोजन अन्य स्थानों पर उपलब्ध नहीं होता है। हजूरी रसोई सन 1911 से सतत रूप से संचालित है। हजूरी कक्ष में दोनों समय भोग लगता है और ग्रास बँटता है।

ताजमहल से भी श्रेष्ठ पच्चीकारी

भवन निर्माण कला की बात करें तो दादाजी महाराज का अपना एक  अनूठा ढंग है, जिसका मैं विस्तार से विवरण देना चाहता हूँ। हजूरी भवन और हजूरी भवन परिसर का जो भी निर्माण और पुनर्निर्माण है, वह दादाजी महाराज की देन है। इसमें किसी इंजीनियर या आर्कीटेक्ट की कभी सहायता नहीं ली गई। आसपास के भवन क्रय किए गए और उन्हें पुनर्निर्मित कराया गया। इनमें गुरु भवन और पीपी भवन मुख्य हैं। परम पुरुष पूरन धनी हजूर महाराज की समाध और परम पुरुष पूरन धनी लालाजी महाराज एवं कुंवर जी महाराज की समाधों का पुनर्निर्माण दादाजी महाराज के निर्देशन में हुआ है। सर्वप्रथम हजूर महाराज का कमरा पुनर्निर्मित हुआ। उसके बाद हजूरी रसोईघर और अन्य भाग। हजूरी समाध में जो स्वर्ण की परत चढ़ाई गई है, वह भी सब महाराज ने कराया है। हजूरी समाध का भव्य प्रवेश द्वार पुनर्निर्मित कराया गया। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. सर जदुनाथ सरकार जब हजूरी भवन में आए थे तब हजूरी समाध पर पच्चीकारी का कार्य देखकर कहा कि यहां ताजमहल से भी अधिक उत्कृष्ट कार्य हुआ है।

भंडारा

परम पुरुष पूरन धनी स्वामी जी महाराज के अवतरित होने के जब200 वर्ष पूर्ण हुए तो महाराज परम पुरष पूरन धनी स्वामी जी महाराज की स्वामी बाग  स्थित समाध और भजनघर पर मत्था टेकने गए थे। स्वीमीजी महाराज के 200 वें भंडारे के मौके पर हजूर महाराज की समाध पर बड़ी संख्या में सतसंगी भाई-बहन एकत्रित हुए थे। सतसंगियों को दूर-दूर तक धर्मशालाओं, होटल और गेस्ट हाउसेज में ठहराया गया था। उस समय दो पुस्तकों का प्रकाशन भी हुआ – पहली, स्मारिका- स्वामीजी महाराज (द फाउंडर ऑफ द राधास्वामी फेथ) और दूसरी, अमृत उपदेश। कई दिन तक महाराज गुरु भवन में सतसंगियों से मत्था टिकाते रहे और दया लुटाते रहे तथा बचनों को भी फरमाते रहे। इस तरह जन्म शताब्दी उमंग और जोश के साथ मनी। इसके अलावा सतसंग का शताब्दी भंडारा 1961 में, परम पुरुष पूरन धनी लालाजी महाराज का जन्म शताब्दी समारोह 1966 में, परम पुरुष पूरन धनी हजूर महाराज का 75वां भंडारा समारोह 1973 में, परम पुरुष पूरन धनी लालाजी महाराज का 50वां भंडारा 1976 में, परम पुरुष पूरन धनी स्वामी जी महाराज का शताब्दी भंडारा 1978 में, परम पुरुष पूरन धनी कुंवरजी महाराज का जन्म शताब्दी समारोह 1985 में, परम पुरुष पूरन धनी लालाजी महाराज का 125वां जन्मोत्सव 1992 में, परम पुरुष पूरन धनी स्वामी जी महाराज का 175वां जन्मोत्सव 1993 में, परम माता राधाजी महाराज का शताब्दी भंडारा 1994 में, परम पुरुष पूरन धनी स्वामीजी महाराज का 125वां भंडारा 2003 में, परम पुरुष पूरन धनी हजूर महाराज का 175वां जन्मोत्सव 2005 में मनाया गया।

परम दयालु और क्षमादानी

यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है और सर्वविदित भी है कि दादाजी महाराज परम दयालु और क्षमादानी हैं। वे किसी की पीड़ा को सहन नहीं करते। ऐसी स्थिति प्रायः रोज ही देखने को मिलती है। नित्यप्रति जाने कितने अभावग्रस्त लोग आते हैं और अपनी पिपासा पूरी करते हैं। महाराज की यह सब कार्यवाहियां अति गोपनीय हैं। विभिन्न रूपों में रोज ही यह कार्यवाही होती है। 90 वर्ष की इस आयु में भी दादाजी महाराज अपने परमकर्तव्य से एक इंच भी पीछे नहीं हटते हैं और सभी कार्यवाहियां बड़ी सुगमता से करते हैं। अपना सतसंग नित्य नेम से मधुर वाणी में करते हैं जो पूरे हजूरी परिसर में झंकृत होता है।

महाराज की आज्ञा ही सर्वोपरि

परमपिता दादाजी महाराज हजूरी भवन में प्रेम की घुटी पिलाते हैं। जिसे भाग्य से प्राप्त हो जाती है, वह निहाल हो जाता है। कभी-कभी गुप्त रूप से पिलाते हैं जिसकी निकटस्थ को भनक भी नहीं लगती। दृष्टि इतनी पैनी है कि प्रेमी पकड़ में आ ही जाता है और घर जाकर अपने भाग्य को सराहता है। दादाजी महाराज अपने भाई-बहनों, पुत्र-पुत्रियों और पौत्र-पौत्रियों को बेहद प्यार करते हैं तथा वे भी। हजूरी परिवार एकसूत्र में बंधा हुआ है। कोई भी कार्य महाराज की आज्ञा के बिना सम्पन्न नहीं होता है। हर व्यक्ति अपनी बात महाराज से कहने के लिए स्वतंत्र है। गहन विचार करके महाराज अपना निर्णय देते हैं।

मेरे गुनाह माफ कराएं

यह है दादाजी महाराज की लीला का थोड़ा सा वर्णन लेकिन यह मेरी शक्ति से परे है। मैं तो बहुत बड़ा गुनहगार एवं कपटी हूं कि अपने औगुनों को याद करके लज्जा आती है लेकिन वह मालिक पूरे हैं और मेरी कमजोरियों पर मुस्काते हुए पर्दा डाल ही देते हैं। मैं सभी अभ्यासियों और  प्रेमी सतसंगियों से भी यह निवेदन करता हूं कि वह मेरे गुनाह माफ कराकर चरनों में लगाएं और क्षमा कराएं। दादाजी महाराज के  90वें अवतरण दिवस पर मैं अंतर से यह प्रार्थना कर रहा हूँ- तुम रक्षक हो। सम्हालन हार हो। तुम मालिक कुल हो। कब सुनोगे। हे! मेरे रक्षक, हे! मेरे परमपिता, हे! मेरे दयालु, हे !मेरे गुनाहों को क्षमा करने वाले मालिक, इस गरीब पर दया करो।

सब जीवों पर अपनी विशेष दया का अनुग्रह

आज का जीव भटक रहा है, भूल रहा है,  चारों ओर अंधेरा है, आपके अलावा कोई और सुनने वाला नहीं है। नए-नए विषाणु रोग आ रहे हैं। इनको आप ही अपनी दया से निष्क्रिय कर रहे हैं, लेकिन बेचारा पीड़ित मानव यह सब तनिक भी नहीं समझता। दादाजी महाराज के चरनों में गहरी प्रार्थना है कि वे सब जीवों पर अपनी विशेष दया और मेहर की वर्षा प्रतिक्षण करते रहें।

राधास्वामी

बृजेन्द्र सिंह एडवोकेट

हजूरी भवन, पीपल मंडी, आगरा


Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *