rakshita singh

मजहब है मुख़्तलिफ ये बता कर चले गये..

REGIONAL लेख

रोते रहे खुद, मुझको हँसा कर चले गये-

काफ़िर से अपना दिल वो लगाकर चले गये।

पूछा जो उनसे घर का पता मैंने दोस्तो-

हौश अपना कूं-ए-यार बता कर चले गये।

तारीक में वो शम्मा जला कर चले गये-

मैं रूठी और वो मुझको मना कर चले गये।

ग़ाफ़िल थी जिनके इश्क को लेकर मैं आज तक-

तालिब वो मुझको अपना, बना कर चले गये।

मदहोश सी रहती हूँ, न कुछ होश है मुझको-

जब से वो बादः-ए-इश्क पिला कर चले गये।

ताबीर क्या दूँ वस्ल की, ज़ाइद मैं कहूँ-

जब रुख से वो हिजाब हटा कर चले गये।

जाते हुए न रोक सकी,उनको आज मैं-

वो मुझसे अपना हाथ छुड़ा कर चले गये।

अश्कों ने मेरे पूछा, उनसे जाने का सबब-

मजहब है मुख़्तलिफ ये बता कर चले गये।

खामोश खुद जलते रहे हिज्र-ओ-फिराक में-

“अपना सा क्यूँ न मुझको बना कर चले गये।”

रक्षिता सिंह (दीपू), उझानी, बदायूं

काफ़िर- इस्लाम को न मानने बाला

हौश- घर, जगह

कू-ए-यार :प्रेमिका की गली

तारीक- अँधेरा

ग़ाफ़िल- अन्जान

तालिब- इच्छुक, अभिलाषी

बादः-ए-इश्क: प्रेम मदिरा

ज़ाइद- अधिक, फालतू

मुख़्तलिफ- भिन्न, अलग