रोते रहे खुद, मुझको हँसा कर चले गये-
काफ़िर से अपना दिल वो लगाकर चले गये।
पूछा जो उनसे घर का पता मैंने दोस्तो-
हौश अपना कूं-ए-यार बता कर चले गये।
तारीक में वो शम्मा जला कर चले गये-
मैं रूठी और वो मुझको मना कर चले गये।
ग़ाफ़िल थी जिनके इश्क को लेकर मैं आज तक-
तालिब वो मुझको अपना, बना कर चले गये।
मदहोश सी रहती हूँ, न कुछ होश है मुझको-
जब से वो बादः-ए-इश्क पिला कर चले गये।
ताबीर क्या दूँ वस्ल की, ज़ाइद मैं कहूँ-
जब रुख से वो हिजाब हटा कर चले गये।
जाते हुए न रोक सकी,उनको आज मैं-
वो मुझसे अपना हाथ छुड़ा कर चले गये।
अश्कों ने मेरे पूछा, उनसे जाने का सबब-
मजहब है मुख़्तलिफ ये बता कर चले गये।
खामोश खुद जलते रहे हिज्र-ओ-फिराक में-
“अपना सा क्यूँ न मुझको बना कर चले गये।”
रक्षिता सिंह (दीपू), उझानी, बदायूं
काफ़िर- इस्लाम को न मानने बाला
हौश- घर, जगह
कू-ए-यार :प्रेमिका की गली
तारीक- अँधेरा
ग़ाफ़िल- अन्जान
तालिब- इच्छुक, अभिलाषी
बादः-ए-इश्क: प्रेम मदिरा
ज़ाइद- अधिक, फालतू
मुख़्तलिफ- भिन्न, अलग
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