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आगरा में “लाइफ डाउन” की कलंक कथा, जरूर पढ़िए

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‘ कफन’, मुंशी प्रेमचंद की कालजयी कहानी है। जिसके पात्र धीसू-माधव, ऐसे बाप-बेटे हैं जो निमंग निठल्ले, काम चोर और नशेबाज। इस फितरत के कारण उनका परिवार मुफलिसी की जद में जकड़ा होता है। तंग हाल माधव की जवान पत्नी बुधिया प्रसव पीड़ा में छटपटाती है और धनाभाव में घर के अदंर ही बिना इलाज के ही दम तोड़ देती है। बाप-बेटे गांव के लोगों से रुपये मांगकर कफन खरीदने शहर जाते हैं किंतु जेब में दाम उनके कदम मयखाना खींच ले जाते हैं। वे कफन की रकम शराब पीने और पूड़ी खाने में खर्च करते हैं।

मुककिन है, आगरा का आवाम जिन हालातों से रुबरु है, उसमें कफन की कहानी वास्तव में किसी मुहल्ले में परिलक्षित हो लाए तो अचम्भा नहीं होगा। मुझे तो कतई नहीं। हकीकत है कि लॉक डाउन के दहशतभरे माहौल में आज घर में कैद इंसान घुट घुटकर मर रहा है। यहां कोरोना कहर से ज्यादा लॉक डाउन की बंदिशों से लाइफ डाउन हो गई है। तबाही का मंजर तमाम उन इंसानों की बस्तियों और बाजारों तक पसरा है जो गुजरे वक्त में गुलजार थे, अब मरघट के माफिक डराते हैं। ये संक्रमण का ऐसा संक्रमण काल है जिसमें बुझे चूल्हे देखकर पेट की भूख से हर चेहरा बेजार दिखता है।

आगरा में शराब है अभिशाप

शराब आगरा के दस्तकारों के लिए अभिशाप है। खासकर जूता दस्तकारों के लिए। यकीनन शराब पीने से हर साल सैकड़ों जूता मजदूरों की मौत होती है। शहर की तकरीबन 650 दलित बस्तियों में हर उम्र की विधवाएं मिल जाएंगी, जिनका सुहाग शराब से उजड़ा। लॉक डाउन के साथ शराब बंदी हुई तो दलित जूता दस्तकारों के परिवारों ने राहत की सांस ली थी। दरअसल ऐसा नहीं होता तो इन बस्तियों में भुखमरी से मौत पर मातम बहुत पहले शुरू हो गया होता। आगरा के मजदूर दस्तकार डेढ़ माह से हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं और पाई-पाई को मोहताज है। मैं फिक्रमंद हूं कि इस बुरे दौर में शराब की ठेके क्यों खोल रहे हैं ? राजस्व के लालच में सरकार मौत का कारोबार किसके लिए करेगी ? हुक्मरानों से आगरा के तमाम यतीमों और भरी जवानी में बेवाओं का है, जिन्हें इतना भी इल्म नहीं कि आगरा में शराब, कोरोना संक्रमण से बर्बादी के संक्रमण को और रफ्तार देगी।

मखौल न बनाओ रामराज का

बेशक शराब किसी इस दौर में कोरोना से कम नहीं है। नशेबाजी की लत बहुतों को धीसू और माधव के किरदार में खोट का एहसान न होने दे, तो अतिशयोक्ति न समझें। हकीकत है, गरीबी में बसर करते मजदूर या दस्तकार का एक वर्ग नशे की तलब में छटपटा रहा होगा और पास में पैसे नहीं होंगे तो क्या नहीं करेगा ? जेबर बेचेगा, कर्ज लेगा, अपराध करने से भी नहीं चूकेगा। सरकार ऐसे वक्त में, जब कोरोना संक्रमण में समाज घिरा है, नशेबाजी का संक्रमण क्यों फैलाना चाहती है ? मैं ऐसेी सरकार से तो कतई उम्मीद नहीं करता जो राम राज्य की अवधारणा पर समाज को संस्कारित करने का ढोंग तो बताए पर हकीकत इससे ठीक उल्टे उनके मठाधीश गेरुआ वस्त्र धारण कर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठकर फरमान दूसरे देते हैं ?

क्या ऐसी है रामराज्य की परिकल्पना, जिसमें मंदिर के पट बंद और मदिरापान के लिए मधुशालाओं के पट खुलें ? महामारी से आवाम को बचाने के लिए सरकारी नशा कारोबार जरूरी है तो चरस, अफीम और स्मैक की बिक्री में क्या हर्ज ? नशा तो नशा है। गरीब मजदूरों के परिवारों की बर्बादी और मौतें तो शराब पीने से भी होती हैं। अगर शराब बेचकर राजस्व जुटाना मकसद तो इसके लिए रास्ते और भी खुल सकते हैं, मसलन जुआघर के लाइसेंस दीजिए। कमाल देखिए, यूपी में थूकने पर रोक है शराब पीने पर नहीं। शराब पीने के बाद व्यक्ति जरूरी काम से सड़क पर निकलेगा तो उससे देह से दूरी के नियम का पालन करने की उम्मीद करना बेमानी होगा।

नोटबंदी से तालाबंदी का सफर

कोरोना कितनी तबाही कर गया, इसका अनुमान तब लगेगा, जब ये दौर खत्म होगा। नोटबंदी से नफा नुकसान बताने से कतराती सरकार के लिए जीएसटी अर्थ व्यवस्था डुबोने का फरमान साबित हुआ। कमोवेश लॉक डाउन इसी के माफिक है, जब ये खत्म होगा तब इससे हुई बर्बादी के गुनाहगार चेहरा छिपाते नजर आएंगे। वैसे भी जिस विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भारत को 30 जनवरी की तारीख में कोरोना को महामारी घोषित करने संबंधी इत्तिला दी थी। इस सवाल पर भारत सरकार आज तक जवाब नहीं दे पा रही है कि सरकार की आंख डेढ़ माह बाद क्यों खुलीं ? विश्व स्वास्थ्य संगठन की मुख्य वैज्ञानिक डॉ. सौम्या स्वामीनाथन डंके की चोट पर कह रही हैं कि भारत में कोरोना संक्रमण को नियंत्रित किया जा सकता था।राहुल गांधी को बात बात पर झूठा ठहराने वाले केंद्र सरकार के काबीना वजीर रविशंकर प्रसाद और प्रकाश जावड़ेकर अब डॉ. सौम्या स्वामीनाथन के लिए क्यों नहीं कह देते कि ये ” झूठ ” बोल रही हैं?

बेशक विश्व स्वास्थ्य संगठन की कोरोना संक्रमण की महामारी को लेकर 30 जनवरी की गाइड लाइन को वक्त रहते गंभीरता से तरजीह दी गई होती तो भारत में हालात बहुत बेहतर होते। फरवरी के पहले सप्ताह में ही हवाई यात्रा नियंत्रित कर हवाई अड्डों पर कोरोना संक्रमण की जांच के बाद ही हवाई यात्रियों को भारत के शहरों में दाखिल होने दिया जाता तो देश में लॉक डाउन की नौबत नहीं आती। सरकार ने फैसले में 25 दिन की देरी का नतीजा है कि आज 50 हजार से ज्यादा भारतीय कोरोना संक्रमित हैं और एक हजार से ज्यादा मौक के मुंह में समा गए। साथ ही 130 करोड़ देशवासी आर्थिक तंगी और भुखमरी की चपेट में है। इसकी जवाबदेही हुक्मरानों की है। आज नहीं तो कल, जवाब देना ही होगा। जरूर। बच नहीं सकते। वैसे भी इतिहास के पन्नों पर इनके दामन पर लगे दाग छपे मिलेंगे।

आगरा में लाइफ डाउन

तकरीबन डेढ़ माह की लॉक डाउन से क्या हासिल हुआ ? मुझे नहीं मालुम। हां, इतना जरूर देख लिया, इस दरम्यान लोग दाने-दाने को मोहताज हैं। आगरा में ऐसा कोई मुहल्ला नहीं बचा, जहां लोग कोरोना संक्रमित न हों। सरकारी कागजों में यह संख्या भले कितनी कम दिखाएं पर आगरा की मलिन और सघन बस्तियों में लोग अनवरत कोरोना संक्रमित निकल रहे हैं। हर रोज। स्वास्थ्य विभाग कम टेस्ट करके महामारी पर काबू पाने के कागजी घोड़े दौड़ा रही है। इससे महामारी रुकेगी ? कतई नहीं। हरगिज नहीं। जो इसे लेकर मुगालते में हैं, बना रहे। अब आगरा में कोरोना फैल चुका है, इसे रोक पाने का बूता सरकार तो क्या फरिश्तों में भी नहीं है।

सरकार ने जिसे लॉक डाउन कहा, आगरा के हालात के सापेक्ष लाइफ डाउन की संज्ञा देना बेहतर है। कोरोना के मसले पर जिस व्यापक पैमाने पर बदइंतजामी और फरेबी बातें हुईं ? उसके लिए सिर्फ प्रशासन को जिम्मेदार ठहराया भी बेजा बात है। कसूर हुकूमत और हमारा भी है। दरअसल महामारी कितनी भयावह है, इसे लेकर चंद रोज पहले तक न शहर के लोगों में सतर्कता थी और न ही होश में थे। ऐसा होता तो थाली नहीं बजाते और मोमबत्ती के साथ पटाखे का शोर नहीं करते। तब किसी को नहीं लगता था कि लॉक डाउन 14 फरवरी से आगे बढ़ेगा। कोई ये सुनने और मानने को भी तैयार न था की 30 जून तक ऐसे ही हालात रहेंगे। चूंकि ऐसे हालात बीते 70 साल में किसी ने नहीं देखे। हमारे स्कूल में नहीं पढाया जाता कि महामारी के संक्रमण, युद्ध, प्राकृतिक आपदा जैसी परिस्थितियों के दौर में हमारी सतर्कता और जवाबदेही के मायने क्या हैं ?

लंबी है बर्बादी की दास्तां

कोरोना की सुनामी कहीं भले ठहर जाए पर आगरा में बदस्तूर जारी रहेगी। तय है। तब तक, जब तक इसका टीका या दबा बाजार में नहीं आ जाती। आगरा में जो लोग आज खुद को सुरक्षित महसूस कर रहे हैं कोई भरोसा नहीं, कल संक्रमित नहीं होंगे। जिस लॉक डाउन को इसे रोकथाम का जरिया बताया गया, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने यह कहकर धज्ज्यिां उड़ा दीं, इससे कोरोना संक्रमण को फैलने से कतई नहीं रोका जा सकता है। दुनिया में लॉक डाउन से क्या हुआ, नहीं मालुम पर आगरा में सब कुछ तबाह हो गया। यह शहर पर्यटन, निर्यात और जूता, पेठा कुटीर काम धंधे की बुनियाद पर टिका है। शहर में करीब दो लाख जूता कुटीर कारखानों में देहाड़ी दस्तकार और करीब एक लाख पर्यटन के क्षेत्र में देहाड़ी पर काम करने वाले पेशेवर लोग हैं।

शहर इसी मजदूर वर्ग की धुरी पर टिका है। यकीनन। पर्यटन और जूता निर्यात पर कोरोना काल के जो काले बादल छाए हैं, उससे नहीं लगता कि अगने एक साल तक ये बादल छटने वाले हैं। ऐसे में आगरा भुखमरी, बेरोजगारी, घनघोर मंदी के उस दौर से गुजरेगा, जिसकी कल्पना अभी तो कतई नहीं की जा सकती है। फिलहाल दस्तकारों और कामगारों के परिवार खाली पेट जिंदगी और मौत से जूझ रहे हैं। तमाम परिवार तिल-तिल कर मर रहे हैं। लॉक डाउन के दौर में घर के बाहर कोरोना का खौफ है तो घर के अंदर भूख से मौत सता रही है। काम धंघे पूरी तरह बंद हैं और फिर शुरू होने की कतई उम्मीद नहीं है। इन हालातों में इतना तो साफ है हुकूमतें किसी भी रहीं हों आजादी के सात दशक के दौरान आगरा को कुछ नहीं मिला। विकास के तमाम दावे तब बेमानी हो जाते हैं जब यहां आदमी को जिंदा रहने के लिए पीने के लिए पानी तक खरीदना पड़ता हो।

अंग्रेजी हुकूमत में हरगिज न होता

बहुत कम बुजुर्ग बचे हैं जिन्होंने अंग्रेजी हुकूमत का दौर देखा है। वे कहते हैं कि बेटा, आज अंग्रेज होते तो हालात इतने भी बुरे नहीं होते। हां, अस्पतालों में कोरोना की दवा भले न मिलती पर जिस तरह कोरोना पॉजिटिव मरीजों के इलाज में अमानवीयता बरती जा रही है, ऐसा हरगिज न होता। फिरंगी सख्त और सरकार बिना भेदभाव के काम करती थी। कलेक्टर उसूल से बंधे और रौबदार होते थे। मजाल क्या जो जिला अस्पताल या एसएन मेडिकल कॉलेज में कोरोना के टेस्ट कराने पहुंचने वालों को सरकारी मुलाजिम भगा देते। उस हुकूमत में ऐसा भी कतई मुमकिन न होता था कि असपताल में आज की तरह कोरोना मरीज के लिए प्रतिदिन आवंटित 2450 रुपये का बंदरबांट होता जिसके कारण मरीज को दो वक्त भोजन और पीने का पानी तक मयस्सर न होता। मजाल क्या कि जो कोरोना पॉजिटिव मरीज को उसकी निगेटिव रिपोर्ट बताकर उसे उसके घर भेजने वाले और कोरोना संक्रमित मरीज के मरने पर लाश उसके घर भेजने वाले जेल की सलाखों में जाने से बच पाते।

दरअसल हमारी नौकरशाही ने दस्तूर तो फिरंगियों के अपनाए पर कार्यशैली न अपनाकर उसमें भ्रष्टाचार, हमारखोरी लूट और बेहूदगी का संक्रमण साल दर साल ऐसा बढ़ा कि अंग्रेज जो जुल्म सितम ढाते थे, ये उससे हजार गुना दरिंदे बन गए। हुक्मरानों को यह तो मंजूर है कि आगरा में कोरोना की कलंक कथा में तबाही से मरने वालों की लावारिश लाशें सड़कों पर सरेआम दिखने लगें पर यह कतई गवारा नहीं कि उनके मुंह लगे नाकारा अफसरों पर उनकी अनुकंपा में कोई कमी आ जाए।

अंत में,

आगरा में कोरोना कथा के लाइफ डाउन का जब भी इतिहास लिखा जाएगा, उसमें कुछ लंबरदार भी होंगे, जो अपने कारखानों में श्रमिकों को वेतन देने से तो सरेआम इनकार करते रहे पर प्रशासन की तकरीबन हर प्रमुख बैठक में मूंछों पर हाथ फेरते नजर जाते हैं। बानगी सुनिए ये लंबरदार उस बैठक में भी पहुंच गए, जिसमें कोरोना संक्रमितों को रखने के लिए 500 कमरे किराये पर लेने के लिए होटल मालिकों को बुलाया गया। प्रशासन को दिक्कत बताई गई कि होटल का स्टाफ छुट्टी पर है। भोजन भी नहीं बन पाएगा।

लंबरदार बीच में उछल पड़े, भोजन वे बनवा देंगे। हाउस कीपिंग वे करवा देंगे। सिक्योरिटी का स्टाफ वे दे देंगे। सफाई और कपड़े धोने का स्टाफ वे दे देंगे। गोया होटल की बिल्डिंग दे दो, बाकी पूरा होटल वे चलवा देंगे। खुद को हर मर्ज की दवा बताने वाले ऐसे चाटुकार सरकार और आवाम के असल दुश्मन हैं। जो खुद तो न्यू आगरा इलाके में समाजसेवा की आड़ में खाने की थाली बेचकर एनजीओ चलाने का धंधा करते है और प्रशासन और शासन की आंख में मिर्च झोंकते हैं। हमें ऐसे लोगों से भी देश और समाज को बचाने की जरूरत है।

वरिष्ठ पत्रकार बृजेन्द्र पटेल की फेसबुक दीवार से साभार