सावन उत्साह और उल्लास से भरी ऐसी ऋतु है, जब प्रकृति अपने पूर्ण यौवन पर होती है। आकाश से बरसते मेघ न केवल धरती की प्यास बुझाते हैं वरन पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों को भी आनंदित करते हैं। इसी सावन मास की दौज यानी 27 जुलाई, सन् 1930 को हजूरी भवन में एक ऐसे बालक का जन्म हुआ जिसने आगे चलकर संपूर्ण मानव जाति को आनंदित और उल्लसित किया और अपने पिता द्वारा दिए गए नाम ‘अगम’ को सार्थक किया।
यह बालक कोई और नहीं, हमारे परम पूज्य दादाजी महाराज हैं जिनके विषय में लिखा गया है यह वृतांत उनकी गुणों को न केवल उजागर करेगा बल्कि नए रूप से प्रकाशित करेगा और आने वाली पीढ़ी का मार्गदर्शन करेगा, यद्यपि यह प्रयास सूरज को दीपक दिखाने के समान है। दादा जी महाराज का व्यक्तित्व उन्हें एक व्यक्ति नहीं, वरन एक संपूर्ण संस्था के रूप में स्थापित करता है। वह आज के परिवेश में वे एक स्वर्णिम हस्ताक्षर हैं, जिनकी एक झलक पाने के लिए लोग बेताब हैं, बेकरार हैं। एक शिक्षक, शिक्षाविद, इतिहासकार, कुशल प्रशासक, कवि, लेखक, वक्ता तथा समाज सुधारक के रूप में प्रवीणता से कार्य करते हुए वह उक्त सभी विधाओं के शिखर पर पहुंचे हैं। इतना ही नहीं आध्यात्मिक प्रकाशपुंज दादा जी महाराज राधास्वामी मत के अधिष्ठाता के रूप में छह दशक से अध्यात्म के गूढ़ रहस्यों को प्रेमियों और जिज्ञासाओं के लिए सहज और सरल ढंग से उजागर कर रहे हैं। उनका बहुआयामी व्यक्तित्व मात्र उपरोक्त विधाओं तक ही सीमित नहीं है, वरन उनका कार्यक्षेत्र, चिंतन और मनन उन्हें आधुनिक सदी के युगदृष्टा और युगस्रष्टा के रूप में स्थापित करता है।
अब यदि आपकी भेंट ऐसे महामानव से हो जाए जो निःसंदेह आप सम्मोहित हो जाएंगे, क्योंकि उनका ओजयुक्त ललाट और उनकी संपूर्ण देह में से निकलती चैतन्य किरणें आपको बरबस आकर्षित करेंगी। आपको समर्पण करने को विवश कर देगी। तब आप पाएंगे रस, आनंद, बिलास और तृप्ति। इसका प्रमाण यह है कि हजारों श्रद्धालु दादाजी महाराज के दर्शन को आते हैं। ऐसे हैं हमारे परम पूज्य दादाजी महाराज।
प्रो. अगम प्रसाद माथुर को एक आदर्श और संपर्ण व्यक्ति बनाने में उनके माता-पिता का योगदान अति महत्वपूर्ण है। आध्यात्मिकता का पाठ उन्हें अपने पिता एवं पितामह से प्राप्त हुआ। उनके पिता (बाबूजी) के विचार स्पष्ट एवं निर्णय अटल थे। वे साहसी, निर्भीक, स्पष्टवादी व अनुशासन प्रिय थे। वे दादाजी महाराज की शिक्षा में प्रारंभ से रुचि लेते थे। उनके अध्ययन, परीक्षा व परिणामों पर गहरी दृष्टि तथा क्रियाकलापों का लेखा-जोखा रखते थे। उनकी माता जी (बउआ जी) अत्यंत मेधावी व परमविदुषी थीं। वे अनुशासनप्रिय, सूझबूझ, प्यार, ममता की साक्षात मूर्ति थीं। वे स्वतंत्र निष्पक्ष, व उचित निर्णय लेतीं व उन पर अटल रहतीं। (दादाजी की दात पुस्तक से साभार)
कल पढ़ेंगे दादाजी महारा की बाल्यावस्था के बारे में।
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