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राधास्वामी मत के गुरु दादाजी महाराज ने बताया कि सतसंगी कैसे भक्तों को घर जाएं

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प्रो. अगम प्रसाद माथुर द्वारा 21 साल पूर्व पश्चिम बंगाल के हावड़ा के सतसंग  में दिया संदेश आज भी प्रासंगिक

हजूरी भवन, पीपलमंडी, आगरा राधास्वामी मत का आदि केन्द्र है। यहीं पर राधास्वामी मत के सभी गुरु विराजे हैं। राधास्वामी मत के वर्तमान आचार्य दादाजी महाराज (प्रोफेसर अगम प्रसाद माथुर) हैं, जो आगरा विश्वविद्यालय के दो बार कुलपति रहे हैं। हजूरी भवन में हर वक्त राधास्वामी नाम की गूंज होती रहती है। दिन में जो बार अखंड सत्संग होता है। दादाजी महाराज ने राधास्वामी मत के अनुयायियों का मार्गदर्शन करने के लिए पूरे देश में भ्रमण किया। 25 सितम्बर, 1999 को    37, राजा बल्लबशाह लेन, हावड़ा (पश्चिम बंगाल ) में हुआ सतसंग आज भी याद किया जाता है। 21 साल बाद प्रस्तुत हैं सत्संग में दादाजी महाराज के ऐसे विचार, जो आपको देते हैं सबसे प्रेम करने की सीख। सतसंगियों को अवश्य बढ़ना चहिए खासतौर पर आज के युवाओं को।
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कुंवर जी महाराज के सत्संग का स्वार्थ परमार्थ के अधीन है। प्रेम में बड़ी भारी कशिश है। प्रेम मालिक की बख्शीस है। भक्ति में अभाव नहीं होता। भक्तों को अपने प्रीतम में गुण ही गुण नजर आते हैं। हर घर में सत्संग की संस्कृति उत्पन्न हो। हजूरी परिवार की यह विशेषता है कि यहां अपना त्याग ज्यादा किया जाता है और दूसरों को अनुराग बख्शा जाता है। लेने की चाह नहीं, देने की चाह रहती है। पुजवाने की चाह नहीं, मालिक को पूजने की चाह है।

आगरा में हजूरी भवन, राधास्वामी मत का आदि केन्द्र

सत्संगियों का ऐसे भक्तों के घर जाना जियारत और तीर्थ का काम है, जिसने सच्ची दीनता का वस्त्र धारा हो, प्रेम और भक्ति का आभूषण पहना हो, सच्चे गुरु को पहचाना हो और दिलो जान से उनका सत्संग किया हो तथा साहेब यानी कुंवर जी महाराज ही जिनका सुमिरन, नाम और हर श्वांस हो। आप लोग प्रेमियों से मिलने इस गरज से यहां आए हैं कि आप भी उनकी रहनी गहनी देखकर एक शिक्षा ग्रहण करें कि कैसे आप  दीनता लावें, कैसे मालिक से प्रेम करें और कैसे मालिक तक पहुंच हो जाए, जिससे एक दिन उद्धार हो जावे।
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 संतों ने जब सत्संग खड़ा किया है तो उन्होंने अपनी दया से प्रमी पैदा किए हैं। प्रेमी और प्रीतम का जो संयोग है वह अति महत्वपूर्ण है। मन तो कामना का आशिक है और जहां कामना है वहां काम है। इसलिए ऐसे सांसारिक आशिकों की इश्क की बात की संतों के प्रेमियों के प्रेम से तुलना करना हुक्म उदूली और बड़े अपराध का काम है। संतों का प्रेम सुरत का प्रेम है। संतों ने शब्द को लगाया है और बताया है कि जो गुण और लक्षण अथाह प्रेम के सागर में है उसी का दूसरा नमूना तुम्हारे अंदर भी मौजूद है।

 संत सतगुरु जब देह धरकर सतसंग जारी फरमाते हैं और वचनों की धार बहाते हैं तो उनके वचनों की धार का मुकाबला यहां की बरसात की झड़ी नहीं कर सकती। जब प्रीतम से प्रेमी का मिलाप होता है तो अंतर में गगन गरजता है और प्रेम के कण बरसते हैं। इस मिलन और संयोग को ही सूरत और शब्द का मिलन यानी योग कहते हैं। अंतर में जो हम मालिक से रोज मिलन करते हैं वह हमारा मेल है। बाहर जिस देश में मालिक विराजते हैं उसकी आराधना या याद करना, जब दूर हो तो उनका दीदार या वस्ल हासिल करने के लिए तड़पते रहना और जब दर्शन मिल जाए तो तृप्त, मगन, आनंदित और आल्हादित हो जाना -यह सच्चे प्रेमी की पहचान है। ऐसा नहीं हो सकता कि जब बहुत तड़प और प्यास हो तो मालिक तुम्हारी प्यास को न  बुझाएं।
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(आध्यात्मिक परिभ्रमण विशेषांक से साभार)