dadaji maharaj agra

Radhasoami Guru दादा जी महाराज के अनमोल बचन -57: अकड़-अक्खड़पन से यहां काम नहीं चल सकता

NATIONAL PRESS RELEASE REGIONAL RELIGION/ CULTURE

राधास्वामी मत (Radhasoami Faith) के प्रवर्तक परम पुरुष पूरन धनी स्वामीजी महाराज (Soamiji Maharai) और परम पुरुष पूरन धनी हजूर महाराज (Hazur maharaj) ने इस नश्वर संसार में इस बात के लिए अवतार धारण किया कि जीवों का उद्धार हो सके। उन्होंने जीवों पर अनोखी दया लुटाई, बचन बानी के माध्यम से जीवों को अपने चरनों में खींचा, चेताया और उनका कारज बनाया। उन्होंने गुरुभक्ति और सतगुरु सेवा पर भी विशेष बल दिया और स्पष्ट रूप से कह दिया कि जब तक संपूर्ण जगत का उद्धार नहीं होता, धार की कार्यवाही निरंतर जारी रहेगी, वक्त के गुरु जीवों को चेताते रहेंगे। तब से लेकर आज तक यह सिलसिला जारी है और हजूर महाराज के घर हजूरी भवन, पीपल मंडी, आगरा (Hazuri Bhawan, Peepal mandi, Agra) में वर्तमान सतगुरु दादाजी महाराज (Radha Soami guru Dadaji maharaj) जीवों पर अपनी दया फरमा रहे हैं, उनका भाग जगा रहे हैं। दादा जी महाराज (Prof Agam Prasad Mathur former Vice chancellor Agra university) अपने सतसंग (Radhasoami satsang) में नित्य नवीन बचन फरमाते हैं जिससे यह जीव चेते और चरनों में लगे। उन्हीं बचनों में से कुछ अप्रकाशित वचन पुस्तिका ‘दादा की दात’ में जीवों के कल्याण के वास्ते दिए गए हैं। ये वचन न केवल जीवों के प्रीत प्रतीत को बढ़ाएंगे वरन उनका कारज भी बनाएंगे। यहां हम प्रस्तुत कर रहे हैं दादाजी महाराज के बचनों की श्रृंखला।

(57)

आपस में आपके अंदर प्यार और प्रतीत होनी चाहिए। कोरे वाद-विवाद में कुछ नहीं रखा है। वाद-विवाद प्रेम को सुखाने वाली चीज है, समझ लीजिए। वाद-विवाद से गर्मी पैदा होती है। प्रेम से शांति आती है। प्यार से बात करने से सबको सुकून होता है। तान-तंज से बात करने से आप भी परेशान होते हैं और जिसको आप ताना मारते हैं उसको भी दुखाते हैं। क्यों हम ऐसी भाषा का प्रयोग करें। भाषा भी हमारी हजूर महाराज ने बना दी है। दर्शन भी हमारा हजूर महाराज ने बना दिया है। विद्या भी उन्होंने सिखा दी है। किस तरह से अभ्यास करना है, किस तरह से प्रीत और प्रतीत चरनों में लानी है, सब कुछ सिखा दिया है। जब तक अपने आपको झुका कर नहीं चलोगे तब तक काम नहीं होगा। पहले झुको तब दर्शन मिलता है। अकड़ का काम यहां नहीं है। अकड़-अक्खड़पन से यहां काम नहीं चल सकता। इसलिए अपने -अपने स्वभाव को खुद देखिए और उसको बदलिए। काम अंग है, एक बार में खत्म हो जाता है और फिर भी यदि उसकी उत्तेजना बनी रहती है तो आप बहुत नीचे के दर्जे पर बैठे हुए हैं जहां से उठना मुश्किल होगा। अगर जरा सी बात पर आपको क्रोध आ जाता है तो भी आप बहुत नीचे बैठे हैं। छोटी-छोटी बातों का लोभ करते हैं, त्याग की जगह मोह का बंधन बांधते हैं तो यह काम आने वाली चीजें नहीं है। यह मालिक की दया से छूटेंगी लेकिन आपको भी कोशिश करनी है, ऐसा हुक्म है। तुम्हारी तरफ से करनी और उसकी तरफ से दया। करनी और दया संग-संग चलेंगे।

(56)

हमारा भाईचारा कैसा है, हम प्रेमी कैसे हैं, हम लोगों में आपस में प्रीत और प्रतीत क्यों नहीं है, तो कैसे यकीन किया जाए कि आपको राधास्वामी दयाल के चरनों में प्रीत और प्रतीत है या आपको अपने गुरु से प्रीत है। कैसे यकीन किया जाए कि आपकी प्रीत में कोई स्वार्थ नहीं मिला हुआ है। कैसे मान लिया जाए कि आप निःस्वार्थ हैं। कैसे मान लिया जाए कि आप काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार सबको जीत चुके हैं। अगर आप जीते हुए होते तो आप की दशा कुछ और होती। साधुता के गुण होने चाहिए थे, आपके हाथ होने चाहिए थे रुई के फाहे जैसे मुलायम, आखों में नूर और माथे में चमक होनी चाहिए। एक बात और याद रखिए कभी इस भ्रम में मत पड़िए कि जो संग में लगा हुआ है वह सबसे ऊंचा है। ऐसी बात नहीं है। जो पीछे से पीछे बैठे हुए हैं क्या वह दया से वंचित रह जाएंगे। न जाति पूछते हैं मालिक, न वर्ण पूछते हैं। वह तो बस तुम्हारे हृदय में प्रेम और भक्ति को देखते हैं। उसी से दया करते हैं। जो यह समझते हैं कि वह भजन में बैठ गए और उनकी सुरत चढ़ गई वह गलती में है। जब तक प्रेम और भक्ति नहीं की, जाएगी तब तक योग का साधन नहीं बन सकता। राधास्वामी मत में सुरत-शब्द-योग जो है वह प्रेम और भक्ति के माध्यम से ही हो सकता है।