Agra (Uttar Pradesh, India)। यकीनन आगरा की आवाम ने एक हजार साल के हतिहास में ऐसा बुरा वक्त कभी नहीं देखा। तब भी नहीं जब साल 1526 में शासक सिकंदर लोदी को पानीपत के मैदान में पराजित कर मुगल साम्राज्य की शुरुआत हुई। तब भी नहीं जब मुगलों को भगाकर अफगान शासक शेरशाह सूरी ने हुकूमत कायम की। उस दौर में भी नहीं जब मुगलों ने अफगानों को खदेड़कर फिर मुल्क के तख्त पर काबिज हुए। तब भी नहीं जब बागी मुगल सेनापति को मौत के घाट उतारकर आगरा पर ग्वालियर के मराठा शासक का परचम फहराया गया। मराठों से बिना जंग के आगरा जीतने पर भी आवाम आबाद रही। काल का पहिया घूमने के साथ हुकूमतें बदलती रहीं पर आगरा का आवाम महफूज रहा। हां, कई बार बाढ़ और सूखे के साये में अकाल के दौर जरूर आए पर भुखमरी का आलम कभी नहीं देखा गया।
नर्सिंग होम से कहां गए 12 हजार भगवान
आगरा में कोरोना संक्रमण वायरस के संक्रमण काल के काले दिन दिखाई दे रहे हैं जिसकी कभी किसी ने कल्पना तक नहीं की थी। आगरा वाले कोरोना संक्रमण से पहले भुखमरी और बीमार स्वास्थ्य सेवाएं और प्रशासनिक अक्षमता और बदइंतजामी से ज्यादा खौफजदां है। ऐसा दौर पहली बार देखा जा रहा है जब सरकारी अस्पताल शो पीस बन गए। प्रशासन ने कोरोना मरीजों के इलाज के बहाने एसएन और जिला अस्पताल में दीगर बीमारियों का इलाज कराना बंद कर दिया है। हालत ये है, जितने लोग कोरोना से मर रहे हैं, उससे ज्यादा दूसरी बीमारी से मौतें के शिकार हो रहे हैं। प्राइवेट अस्पतालों के संचालक इस बुरे दौर में सिर्फ सौदागर साबित हुए। ये डाॅक्टर उस शपथ को भी भूल गए जो चिकित्सा पेशवर के तौर पर बीमारों की सेवा करते रहने की, डिग्री लेते वक्त बोलते हैं।
प्राइवेट हाॅस्पीटल की मंड़ी कहे जाने वाले इस शहर में तकरीबन 12 हजार डाक्टर और 600 से ज्यादा नर्सिंग होम हैं। कोरोना काल से पहले तकं इनके संचालकों ने मरीजों को जमकर लूटा, अब समाज को कुछ देने का वक्त आया तो छिपकर बैठ गए। दरअसल आम आदमी को दिक्कत इनसे नहीं, जिला और एसएन अस्पताल से है, जहां इलाज तो दूर, प्रवेश द्वार पर घुसने तक नहीं दिया जा रहा है। दो दिन पहले का वाकया है, जीवनी मंडी में कांग्रेस वरिष्ठ नेता श्री शब्बीर अब्बास के पड़ोसी के चार साल के इकलौते बेटे को कोरोना जैसी संदिग्ध बीमारी के लक्षण थे। बच्चे को लेकर उसके मां-बाप एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल लेकर भटकते रहे। कहीं कोई इलाज नहीं मिला। इसकी इत्तला मिलने पर पुलिस पहले जिला अस्पताल और फिर एसएन अस्पताल लेकर पहुंची। बेरहम डाक्टरों ने देखना तो दूर अंदर फटकने तक नहीं दिया। बेहाल मां बच्चे को लेकर गेट के बाहर जमीन पर बैठ गई और कुछ देर के बाद सांस की तकलीफ से छटपटाते बच्चे ने अपनी मां के आंचल में दम तोड़ दिया।
स्वास्थ्य विभाग हुआ बीमार
स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली के ढेरों किस्स रोज सामने आ रहे हैं। इसकी एक बानगी और सुनिए, दयालबाग के सरन आश्रम अस्पताल में शहर का एक व्यक्ति इलाज को पहुंचा। उसमें भी कोरोना जैसे लक्षण दिखे। यहां निशुल्क सेवा दे रहे एक डाॅक्टर खुद जिला अस्पताल तक मरीज के साथ गए। स्वास्थ्य विभाग के स्टाफ ने उन्हे एसएन भेज दिया। वहां पहुंचे तो मरीज को इलाज के लिए भर्ती करना तो दूर, कोरोना संक्रमण के टैस्ट के लिए सेंपिल तक नहीं लिया गया। कई लोग कोरोना संक्रमण के प्राइवेट टेस्ट करा चुके हैं और उन्हें स्वास्थ्य विभाग इलाज के लिए भर्ती नहीं कर रहा है।
इंतजामिया की बदइंतजामी
तीसरी बानगी, शहीद नगर में एक नर्सिंग होम की स्टाफ नर्स को कोरोना संक्रमण हो गया, उस जगह को सेनेटाइज तक नहीं किया गया। कोरोना संक्रमित मरीजों को जहां-जहां रखा गया है, उन्हें इलाज और चिकित्सकीय परामर्श तो दूर भोजन तक नहीं मिल रहा है। तालाबंदी की बंदिशों ने लोगों का जीना मुहाल कर दिया है। वहीं यदि बंदिशें न हों तो कोरोना संक्रमित मरीज इस कदर परेशान हैं कि अब उन्हे कोरोना से ज्याद भूख से मरने का भय सताने लगा है। मरीज ही नहीं, आम आदमी भी इंतजामिया की बदइंतजामी से परेशान है। दरअसल आगरा में छह लाख देहाड़ी मजदूरी करने वाले दस्तकारों के परिवार हैं। इनमें बड़ी संख्या जूता दस्तकारों की है। इन्हें हर हफ्ते काम का भुगतान मिलता है। चार हफ्ते से इनके घर न राशन है और न हाथ में पैसा। भूखे पेट इनके परिवार, घरों में कैद हैं। सुलहकुल के इस शहर में जुल्म की इंतेहा देखिए कि यदि आप घर से बाहर निकले तो पुलिस की लाठी खाने को तैयार रहें। दो दिन से दूध और पानी तक की किल्लत है। प्रशासन को लगता होगा कि बच्चे बिना दूध के रह सकते हैं। सरकार तालाबंदी इसलिए कर रही है ताकि कोरोना न फैले। चार हफ्ते हो गए इस बंदी के, कोरोना फैलने से रोक पाने में प्रशासन का आगरा माॅडल फेल है। इस और इस दरम्यान हुई तवाही को किसके सिर मढ़ा जाए ?
अंग्रेजों के जमाने के अफसर हैं ?
मुख्यमंत्री जी, मुझे आपकी ईमानदारी पर कोई शक नहीं, उस दिन से तो कतई नहीं, जब आपने श्री सुलखान सिंह जैसे ईमानदार अफसर को डीजीपी बनाया। आपके चरित्र पर भी किंचित मात्र शंका नहीं। ऐसा नैसर्गिक भी है, क्योंकि आपका तन और बाना साफ है। हालांकि उस पर धर्म का रंग चढा है, अलबत्ता मुझे इस पर भी शिकवा नहीं। आपकी ईमानदारी, सद आचरण, नेक नीयती और भागदौड़ भरी जिंदगी में कोरोना को लेकर कवायद तब अर्थहीन हो जाती है, जब असभ्य और नाकारा किस्म के काले अंग्रेज आगरा जैसे जिले में तैनाती पा लेते हैं। ये आपसे भले चाटुकारिता की भाषा का इस्तेमाल करते हों पर आपे साफ मन के होने के कारण, इनकी चपलता, नाकारापन और जनता से जानवरों से बदतर व्यवहार और सपोर्टिग स्टाफ के साथ गुलामों सा सलूक करके, आपके करे धरे पर पानी फेर देते हैं। महाराज, मुझे हैरानी इस बात से है, आपको नजरों से अब तक इनकी खामियां क्यों ओझल हैं। आगरा में जनता बेमौत मर रही है और ये गोया अंग्रेज कलेक्टरों की तरह आचरण कर रहे हैं, जो सात समुंदर पार से आए हैं और कोरोना काल में भी इन्हें खुद के राजसी सुख वैभव के माफिक विलासता पूर्ण जीवनमें किसी भी तरह का खलल बर्दास्त नहीं। जिसे बुरे दौर में मीडिया से संवाद करने में परहेज हो और अपने अधीन अफसरों से घड़ी की सुई में ठीक छह बजने के बाद मिलना पसंद न हो, जो सूर्य अस्त के साथ ही ऐशगाह में विलुप्त हो जाए, क्या लगता है, ऐसे अफसर कोरोना महामारी रोक पाने में सक्षम हैं ? कदापि नहीं महाराज।
आगरा की कलंक कथा की कालिख से बचो महाराज
यदि ऐसे माहौल में भी आपको सब कुछ बेहतर और सहत प्रतीत हो रहा है तो ये आपकी महान भूल है। इतिहास इसके लिए आपको कभी माफ नहीं करेगा ? राजसत्ता का संचालन धर्मभीरू बनने से ही नहीं चलता है और न ही व्यक्तिगत आस्था या उपकार से। बिहारी बाबू की सिफारिश पर आपने जिसका राजतिलक किया है, निठल्ला और एकांकी मनोवृत्ति का बददिमाग इंसान है। भरोसा करो। यह बात आप जितनी जल्दी समझ जाओ, आगरा की जनता का उतना ही भला होगा। तमाम लोग बेमौत मरने से बचेंगे। आपकी पार्टी की भी फजीहत होने से बचेगी। काली चमड़ी के अंग्रेज आज नहीं तो कल जाएंगे ही, इनकी नाकामी का लबादा आप अपने सिर पर क्यों लाद रहे हो महाराज। चूंकि आपसे मक्कारों की खूबियों के जो पुल बांधते हैं आपकी आंखों में मिर्च झोंकने की कोशिश करते हैं। एक नाकारा बेदम कमांडर कभी जंग फतेह नहीं कर सकता। यकीनन। आगरा में तबाही का मंजर कितना खौफनाक है, ये आप आगरा आकर देखें तभी अंदाजा हो सकता है।
अंत में
ऐसी जम्हूरियत में मुझे कतई यकीन नहीं, जो झूठ, बेईमानी और आवाम के भरोसे के साथ ठगी पर टिकी हो। दिल्ली में जन्में इंकलाबी शायर हबीब जालिब की नज्म “दस्तूर” पर गौर करो, जो लगता है शायद आगरा के आम आवाम की बात कह रहा है —
मैं नहीं मानता, मैं नहीं जानता……..
दीप जिसका महल्लात ही में जले
चंद लोगों की खुशियों को लेकर चले
वो जो साए में हर एक मसलहत के पले
ऐसे दस्तूर को सुबहे बेनूर को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं जानता
मैं भी खायफ नहीं तख्त-ए-दार से
मैं भी मंसूर हूँ कह दो अगियार से
क्यूँ डराते हो जिन्दां, की दीवार से
जुल्म की बात को, जेहल की रात को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं जानता
फूल शाखों पे खिलने लगे, तुम कहो
जाम रिंदों को मिलने लगे, तुम कहो
चाक सीनों के सिलने लगे, तुम कहो
इस खुले झूठ को जेहन की लूट को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं जानता
तूमने लूटा है सदियों हमारा सुकूँ
अब न हम पर चलेगा तुम्हारा फुसूँ
चारागर मैं तुम्हें किस तरह से कहूँ
तुम नहीं चारागर, कोई माने मगर
मैं नहीं मानता, मैं नहीं जानता
-वरिष्ठ पत्रकार बृजेन्द्र पटेल की फेसबुक दीवार से साभार