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Radhasoami Guru दादा जी महाराज के अनमोल बचन -58: मालिक को नापसंद हैं ईर्ष्या और जलन

NATIONAL PRESS RELEASE REGIONAL RELIGION/ CULTURE

राधास्वामी मत (Radhasoami Faith) के प्रवर्तक परम पुरुष पूरन धनी स्वामीजी महाराज (Soamiji Maharai) और परम पुरुष पूरन धनी हजूर महाराज (Hazur maharaj) ने इस नश्वर संसार में इस बात के लिए अवतार धारण किया कि जीवों का उद्धार हो सके। उन्होंने जीवों पर अनोखी दया लुटाई, बचन बानी के माध्यम से जीवों को अपने चरनों में खींचा, चेताया और उनका कारज बनाया। उन्होंने गुरुभक्ति और सतगुरु सेवा पर भी विशेष बल दिया और स्पष्ट रूप से कह दिया कि जब तक संपूर्ण जगत का उद्धार नहीं होता, धार की कार्यवाही निरंतर जारी रहेगी, वक्त के गुरु जीवों को चेताते रहेंगे। तब से लेकर आज तक यह सिलसिला जारी है और हजूर महाराज के घर हजूरी भवन, पीपल मंडी, आगरा (Hazuri Bhawan, Peepal mandi, Agra) में वर्तमान सतगुरु दादाजी महाराज (Radha Soami guru Dadaji maharaj) जीवों पर अपनी दया फरमा रहे हैं, उनका भाग जगा रहे हैं। दादा जी महाराज (Prof Agam Prasad Mathur former Vice chancellor Agra university) अपने सतसंग (Radhasoami satsang) में नित्य नवीन बचन फरमाते हैं जिससे यह जीव चेते और चरनों में लगे। उन्हीं बचनों में से कुछ अप्रकाशित वचन पुस्तिका ‘दादा की दात’ में जीवों के कल्याण के वास्ते दिए गए हैं। ये वचन न केवल जीवों के प्रीत प्रतीत को बढ़ाएंगे वरन उनका कारज भी बनाएंगे। यहां हम प्रस्तुत कर रहे हैं दादाजी महाराज के बचनों की श्रृंखला।

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सतगुरु को याद करना है, प्रेम करना है। वह प्रेम का स्वरूप हैं, प्रीतम है। आप अगर डोर बांधेंगे तो न जाने क्या से क्या बख्श दें, कहां पहुंचा दें, लेकिन डोर तो बांधो और डोर बांधने में गांठ मत लगाओ। अगर पतंग उड़ाई है तो उसमें अगर डोर न बँधी हो तो कैसे उड़ेगी। इसलिए अपने अंगों को खुद पता लगाइए कि जो आपको प्रीतम का दर्शन करने से रोकते हैं या प्रीतम के प्यारों के प्रति जो आपका कर्तव्य है, उसको करने में रुकावट हुई है। अपनी करनी पर शर्म खाइए। पछतावा कीजिए। यही इलाज है, नहीं तो फिर दंड सहने के लिए तैयार हो जाइए। देखिए काल कितना जबरदस्त है। मालिक की दया खींच लेने पर आपकी सारी अकड़ निकल जाएगी। अगर बुद्धि है तो बुद्धि साफ, तन का बल है तो साफ, उनकी दया के सहारे जिंदगी चलती है, उनको मत भूलिए, उनको मुख्य रखिए। जब वह कहते हैं कि-

जो मेरे प्रीतम से प्रीत करे मोहि प्यारा लागे री।

तो कोशिश कीजिए कि आपस में मतभेद न हों, जलन और ईर्ष्या नहीं होनी चाहिए। अगर मालिक है तो वह सबको एक सा प्यार करेगा। जिसको जितना जिस वक्त जो देना होगा, मालिक देंगे। डॉक्टर के पास जाते हैं तो विश्वास रखते हैं न कि वह जो दवा देगा, हमको सेहत देगी, ठीक करेगी, उनसे कोई बहस करेगा? इसी तरीके से मालिक को मानिए। जो उनसे प्रीत करते हैं, उनसे आपका प्यार होना चाहिए। ईर्ष्या, जलन, यह बातें मालिक को नापसंद हैं।

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आपस में आपके अंदर प्यार और प्रतीत होनी चाहिए। कोरे वाद-विवाद में कुछ नहीं रखा है। वाद-विवाद प्रेम को सुखाने वाली चीज है, समझ लीजिए। वाद-विवाद से गर्मी पैदा होती है। प्रेम से शांति आती है। प्यार से बात करने से सबको सुकून होता है। तान-तंज से बात करने से आप भी परेशान होते हैं और जिसको आप ताना मारते हैं उसको भी दुखाते हैं। क्यों हम ऐसी भाषा का प्रयोग करें। भाषा भी हमारी हजूर महाराज ने बना दी है। दर्शन भी हमारा हजूर महाराज ने बना दिया है। विद्या भी उन्होंने सिखा दी है। किस तरह से अभ्यास करना है, किस तरह से प्रीत और प्रतीत चरनों में लानी है, सब कुछ सिखा दिया है। जब तक अपने आपको झुका कर नहीं चलोगे तब तक काम नहीं होगा। पहले झुको तब दर्शन मिलता है। अकड़ का काम यहां नहीं है। अकड़-अक्खड़पन से यहां काम नहीं चल सकता। इसलिए अपने -अपने स्वभाव को खुद देखिए और उसको बदलिए। काम अंग है, एक बार में खत्म हो जाता है और फिर भी यदि उसकी उत्तेजना बनी रहती है तो आप बहुत नीचे के दर्जे पर बैठे हुए हैं जहां से उठना मुश्किल होगा। अगर जरा सी बात पर आपको क्रोध आ जाता है तो भी आप बहुत नीचे बैठे हैं। छोटी-छोटी बातों का लोभ करते हैं, त्याग की जगह मोह का बंधन बांधते हैं तो यह काम आने वाली चीजें नहीं है। यह मालिक की दया से छूटेंगी लेकिन आपको भी कोशिश करनी है, ऐसा हुक्म है। तुम्हारी तरफ से करनी और उसकी तरफ से दया। करनी और दया संग-संग चलेंगे।