मजबूरियों के मुसाफिर जिंदगी के सफर में,
फांके के दिनों में लम्बी सी डगर पैदल ही नपेगी,
वीरान पड़ रही बस्ती काम हो गये बंद.
उखड़ गया है ठेल ढकेल का संग,
गुमराह शहर की रौनक भूल गई है रंग.
याद आ रहा फिर से वो मेरा अपनों वाला गांव,
आपाधापी खूब मची है, चलने भर की होड़.
सड़क-सड़क पर खड़े मिले है, पानी बिस्कुट रोटी देते लोग.
आई कैसी लहर विष की फसल बो गई,
जिंदगी का चैन ओ सुकून खो गई.
बेरहम फूटी तकदीर बनाने वाले, तेरी रहमत कैसे फना हो गई,
सूनी सड़कों की बेचारगी ही मेरा आइना हो गई.
कलेजे की टीस पैरों के छाले चलने नहीं देते,
मगर मेरे अपनों में पहुंचने के ख्वाब रुकने नहीं देते, सिसकने नहीं देते.
दूर और बहुत दूर है मेरी मंजिल,
वायदा है उस गांव से, सांस ना उखड़ी तो पहुंचूंगा जरूर
तेरी टेड़ी मेड़ी पगडंडियों बीच,
जहां एक नई शुरुआत करूंगा,
मजबूरियों से लिपटकर बेबसी और बेरहम तजुर्बों के साथ.
टीवी जग्गी, डॉ. भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय, आगरा
मोबाइल 7017323412
- आगरा में कवि शीलेंद्र वशिष्ठ और वरिष्ठ पत्रकार डॉक्टर भानु प्रताप सिंह समेत 10 विभूतियां सम्मानित - March 23, 2025
- हिंदी से न्याय अभियान: देशभर से अब तक पौने दो करोड़ हस्ताक्षर - September 28, 2024
- अंतरराष्ट्रीय ताजरंग महोत्सव में नौ हस्तियों को नवरत्न सम्मान, यहां देखें पूरी सूची - September 22, 2024