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‘जिसे विश्व पटल पर होना चाहिए वह आगरा की सड़कों पर चप्पलें घिस रहा’, जी हां, यह कहानी आगरा के साहित्यकार रमेश अधीर की है

साहित्य

22 साल की आयु में 1978 में लिखा उपन्यास मुझे मर जाने दो 2017 में प्रकाशित हो सका

रोचक है इसकी कहानी, लगता है रमेश अधीर की है प्रेम कहानी, लेखनी न बेची तो गरीब ही रहे

डॉ. भानु प्रताप सिंह

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Agra, Uttar Pradesh, India. साहित्यकार श्री रमेश अधीर पिछले दिनों एक बार फिर मेरे शास्त्रीपुरम, सिकंदरा, आगरा स्थित आवास पर आए। अपनी कुछ पुस्तकें भेंट की। इनमें ‘मुझे मर जाने दो’ ने मुझे मोह लिया। श्री रमेश अधीर ने यह उपन्यास 22 साल की आयु में घोर गरीबी में लिखा था। इसमें ‘काम’ को प्रधानता दी ताकि उपन्यास बिके और पैसा मिले। मेरठ से लेकर दिल्ली तक गए। लेखनी गिरवी नहीं रखी। इस कारण गरीब के गरीब ही रहे। जिसके चलते यह उपन्यास लिखने के 39 साल बाद 2017 में प्रकाशित हुआ। उपन्यास के प्रकाशन की कहानी बड़ी रोचक है।

मैंने यह उपन्यास पूरा पढ़ा। इसमें दो प्रेम कहानी एक साथ चलती हैं। ऐसा आभास होता है कि श्री रमेश अधीर ने अपनी प्रेम कहानी का ही वर्णन किया है। खास बात यह भी है कि पुस्तक में श्री रमेश अधीर ने अपनी काव्य प्रतिभा का भी परिचय दिया है। यहां तीन रचनाओं का उल्लेख कर रहा हूँ। प्रेमी अपनी प्रेमिका को देखकर कहता है-

‘जब मुड़कर देखा था तुमने मुझे,

तिरछी नजरों से घायल मैं हो गया।

उस समय थोड़े-से गिरे उस रेत ने,

भयंकर तूफां था खड़ा कर दिया।

है सूझता नहीं कोई मुझे रास्ता,

कदम तेरे बिना न मेरे डटें ।

दिन तो रो-रोकर काटा है, प्यारी!

शबनम की रातें कैसे कटें ॥ 1॥

 

सच्ची मुहब्बत हो अगर दिलों में,

झुका न सकती कोई भी हस्ती।

इसे कुचलने को हर एक चलता,

होती अगर थोड़ी-सी भी सस्ती ।

दिल में बसी है मूरत तुम्हारी

सहारे इसी के गम तो मिटें,

दिन तो रो-रोकर काटा है यारो!

शबनम की रातें कैसे करें।

 

नव यौवना, पूर्णेन्दु मुख, द्युति कन्ति क्षणिका,

घन केश आये भाग ले कोई गगन का।

कोमल कमलिनी, कामिनी के काम्य तरु पग,

मधु मन्द मन्द मतंगिनी सी मापती मग ।

झुकते नयन, चलते चरन, मुख, तन लजाती।

रख शीश तसला रेत का वह मस्त आती ।।

पुस्तक का प्रकाशन अजय पुस्तक मंदिर आगरा ने किया है। प्रकाशक अजय श्रोत्रिय ने क्या खूब कलम चलाई है। वे लिखते हैं- भागम भाग की जिन्दगी में इस उपन्यास को कौन पढ़ेगा? वैसे भी आज हिन्दी साहित्य की वह दुर्दशा हो रही है जैसी कि अंग्रेजों और मुगलों के जमाने में भी नहीं हुई। हिन्दी साहित्य की दुर्दशा करने वाले कोई और नहीं, बल्कि हिन्दी साहित्य के तथाकथित लेखक ही हैं। जोड़-तोड़ और नेताओं के वरदहस्त से अयोग्य, चोर और चापलूस साहित्य के मंचों पर बैठ गये हैं। ऐसे तथाकथित साहित्यकारों के दुर्दान्ता गिरोह दिल्ली और मुम्बई में बैठे हुए हैं और बचे-खुचे छुटभैये गिरोहों ने राज्य की राजधानियों में डेरा डाल दिया है। ऐसे ही एक गिरोह के पास इस उपन्यास के लेखक ने भी अपनी पुस्तक ‘अग्रपथी’ राजकीय कर्मचारी साहित्यक संस्थान लखनऊ के लिए पुरस्कार हेतु भेजी थी। यह स्वतन्त्र भारत के बाद लिखी गयी ऐसी प्रथम कृति है, जिसकी कि काई सानी नहीं है। यह मैं यह नहीं मानता ऐसा देश के विद्वानों ने कहा है, इस कृति को पुरस्कार न देकर, आपस में ही इस संस्थान के पदाधिकारियों ने बंदरबांट कर लिया। श्री रमेश ‘अधीर’ ने जनसूचना के अधिकार से इस घोटाले को पकड़ा और इसके खिलाफ उ. प्र. हाइकोर्ट का दरवाजा खटखटाया और न्याय की प्रक्रिया भी अन्याय की श्रेणी में जाकर ठहर गयी। तारीख पर तारीख यानी न्याय से अधिक तो चींटी की चाल निकली। अब बताओ कि इस स्वतन्त्र भारत में तुलसी और प्रसाद को कैसे न्याय मिलेगा ?

महाराजा अग्रसेन का असली जीवन जानना है तो रमेश अधीर का ऐतिहासिक महाकाव्य ‘अग्रपथी’ पढ़िए

जिस व्यक्ति को विश्व पटल पर होना चाहिये वह व्यक्ति आगरा की सड़कों पर चप्पलें घिस रहा है। उनकी कृतियों को विशेषकर अग्रपथी के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार भी छोटा है और ऐसा व्यक्ति किस तरह से जी रहा है, इसे मुझसे अधिक कोई नहीं जान सकता।

कमी रमेश अधीरनाम की प्रतिभा में भी है, क्योंकि इस प्रतिभा ने कभी नेता, तथाकथित छद्म वेशधारी साहित्यकारों की चरण बन्दना व चरण स्पर्श नहीं किये। सपाट और स्पष्ट बोलना उनकी राह में सबसे बड़ा रोड़ा है। उनकी एक इसलिए नाम की कृति की रचना मुझे याद दिलाती है-

अब न लिखी जायें रामायण, शकुन्तला दुष्यन्त कहानी

 लिख भी दें तो कौन पढ़ेगा ? रात उल्लुओं की मनमानी

चापलूस गद्दी पर बैठे, तुलसी हाथ कटोरा आयें।

खूनी ईंट- रुपैया वाले, अग्रपथिक को जान न पायें।

पहन मुखौटा भामा जी के, अकबर के सेनापति सम्बल ।

फुटपाथों पर भूखा फिरता, बेचारा अब राणा पागल ॥

जी हां! इस बेबाकी लेखन के कारण ही तो रमेश अधीर को तथाकथित बुद्धजीवियों ने अकेला छोड़ दिया है, लेकिन इस शख्स ने अकेले में भी अपने लिए अनेक साथी ढूंढ लिये हैं और उनके वे साथी उनकी कृतियाँ हैं, जो मेरे द्वारा प्रकाशित हो रही हैं।

यह उपन्यास इनकी घोर गरीबी में गरीबी से निजात पाने के लिए सन् 1978 (लगभग उम्र 22 वर्ष) में लिखा गया था। जहाँ तक मुझे जानकारी है कि उन्होंने इस उपन्यास को उस समय दिल्ली व ओडियन सिनेमा के पास मेरठ क प्रकाशकों को अपनी भयंकर मुफलसी में भी नहीं बेचा। आज लगभग 37 वर्ष बाद मैं इसे प्रकाशित करके अपने को धन्य मान रहा हूँ। इस उपन्यास का शीर्षक ‘मुझे मर जाने दो’ अपनी स्पष्ट भूमिका दर्शाते हुए हर जगह दिखायी दे रहा है। व्यवस्था मरने भी नहीं दे रही है। क्योंकि मरने के बाद उस व्यक्ति से फिर वह अपनी स्वार्थ पूर्ति नहीं कर पायेगी, लेकिन मैं इस उपन्यास के मरने नहीं दूँगा और जीवन्त पृष्ठों में पूर्ण कलेवर के साथ यह आपके समझ आ रहा है

मुझे मर जाने दो के प्राक्कथन में श्री रमेश अधीर ने जो कुछ लिखा है, वह बार-बार पठनीय है। लिखते हैं- मुझे मर जाने दो और मुझे जीने दो जरा दोनों वाक्यों पर गौर करें तो हम पायेंगे कि दोनों वाक्यों के अन्दर मौजूद भावार्थ में एक जैसी विवशता छिपी हुई है। सिर्फ अन्तर इतना है कि मुझे जीने दो व्यवस्था से जीने की भीख-सी माँगता दिख रहा है। और मुझे मर जाने दो उसी व्यवस्था से मरने की गुहार लगा रहा है। व्यवस्था एक है तथा इस व्यवस्था का पहलू भी एक है और यह पहलू है कि परम्परागत रूप से आयी हुई और वर्तमान से पोषित परजीविता येन केन प्रकारेण यथावत् चलती रहे। इस ‘येन केन प्रकारेण’ में ये सभी हथकण्डे शामिल हैं, जिससे दूसरों पर पलने वाले परजीवी अपनी खुराक आसानी से प्राप्त करते रहें।

यहाँ ‘मुझे मर जाने दो’ किसी आत्महत्या जैसे जघन्य कदम की ओर जरा भी इशारा नहीं करता। यह केवल उस व्यवस्था की ओर इशारा करता है, जिस व्यवस्था के कारण सज्जनता शान्ति से जी नहीं पा रही है और उसकी विवशता उसे मरने के लिए प्रेरित करती है, किन्तु संघर्ष उसे मरने से रोकता रहता है। वह तो स्वयं संघर्षरत रहते हुए किसी तरह जी रहा है, लेकिन परजीवी व्यवस्था उसे मरने से रोकती रहती है। उसे लगता है कि सज्जनता के मरने के बाद शायद उस जैसी कोई दूसरी सज्जनता न जाने कब तक मिले अतः इसे मरने भी मत दो।

पवित्र आत्माओं अर्थात् सज्जनता का कसूर केवल इतना भर होता है कि चल रही व्यवस्था के खिलाफ उसने आवाज उठाने की कोशिश की और यह आवाज व्यवस्था को नाक के बाल की तरह गुजरी। यह व्यवस्था उसे साँसे ढंग से लेने नहीं देती। अपनी सांसों के लेने के मौलिक व प्राकृतिक अधिकार पर न्याय के नाम पर धृतराष्ट्र और शकुनि बैठे। हुए हैं जो उसी व्यवस्था के द्वारा नियुक्त कानूनी जामा पहने हुए लुटेरे, व्यभिचारी हैं। तब विजय उदय के चंगुल से नहीं निकल पायेगा। चंचला की मुफ़लसी और सुन्दरता सामन्तवादी व्यवस्था के पोषक ‘उदय’ की असफल कोशिश की शिकार होने लगती है। चन्द्र को सामाजिक, सामन्तवादी व्यवस्था उसके जीने के हक को ‘मर जाने दो’ में बदलने के लिए आतुर रहती है। कभी-कभी हरिण्याकश्यप के परिवार में प्रह्लाद और पुलिस्त के परिवार में रावण पैदा हो जाते हैं। विजय एक ऐसा ही उदाहरण है, जो उदय जैसी सामन्तवादी व्यवस्था में पैदा हुआ। सामाजिक व्यूह रचना के अन्तर्गत व्याप्त खामियों का फायदा उठाकर, व्यवस्था के नाम पर अव्यवस्था वहाँ पहुँच जाती है, जहाँ कानून बनते हैं और व्यवस्था के नाम पर वह सब कुछ होता है जहाँ सज्जनता के पास ‘मुझे मर जाने दो’ कहने के अलावा कुछ नहीं बचता।

1978 में घोर गरीबी में इस उपन्यास का जन्म हुआ था। उस दौर में चलते हुए बाजार में बिकने वाले उपन्यासों की चकाचौंध के आकर्षण में यह पेट की भूख को मिटाने के लिए लिखा गया। रंगीन ख्वाबों को लेखनी ओडियन सिनेमा के पास मेरठ पहुंची।  नतीजा वह ही जो होना था। इन चंद टुकड़ों में एक वेश्या की तरह इस लेखनी के साथ भी यही हुआ यानी लेखिनी किसी और नामचीन लेखक के बिस्तर को गर्म करती, लेकिन लेखिनी को यह मंजूर नहीं हुआ। लेखन की हिम्मत उसे दरियागंज दिल्ली से आयी। आलीशन प्रकाशक की चौखट ने उस बेअदबी से बाहर जल्दी निकाल दिया। पुनः वह दूसरी चौखट पर पहुँची, वहाँ भी मेरठ वाली कहानी दुहरायी गयी, लेकिन यहाँ बिस्तर गर्म करने की कीमत ज्यादा थी। लेखनी का सुहाग डोला, लेकिन किसी अज्ञात शक्ति ने उसे रोका, लेखिनी का ईमान फिर एक बार डोला, लेखिनी प्रस्ताव मंजूर करने की स्थिति आ गयी और गरीबी से निजात पाने का कारगर नतीजा आँखों के सामने घूमने लगा। लेखिनी के ईमान ने अन्दर से फैसला किया कि हे भूख! मैं अब हर महीने नये-नये कलेवरों में अपना ईमान बेचकर तेरा पेट भरा करूंगी

तभी

एक अज्ञात शक्ति ने स्वाभिमान को झकझोरा और लेखनी उसी दिल्ली से पैसेन्जर में बैठकर मथुरा, मथुरा से अछनेरा और फिर घर आ गयी। यह कहानी शुचि, सदाचरण की समाज को नसीहत देने वाले साहित्य समाज के लिए है कि किस तरह यहाँ भी सामन्तवादी व्यवस्था किसी कालीदास को उसका हक नहीं लेने दे रही है। पुरस्कार, मंच और अन्य साहित्यक दरवाजों के भीतर यही चल रहा है और राजनीति की घिनौनी व्यवस्थाओं के कारण जाने कितने कालीदास इस भारत में कह रहे हैं- मुझे मर जाने दो।

 

मां, मृत्यु, ठाँव और छाँव, छलांग, खारी नदी, संवेदना का पतझड़, बोलता अग्रोहा और कवि रमेश अधीर

Dr. Bhanu Pratap Singh