डॉ. भानु प्रताप सिंह
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Agra, Uttar Pradesh, India. क्या आप रमेश चन्द अग्रवाल ‘अधीर’ को जानते हैं। अरे वही रमेश अधीर। कवि रमेश अधीर। कविता लिखना कोई बड़ी बात नहीं है। बड़ी बात है अर्थपूर्ण कविता लिखना। विद्वानों को मानसिक खुराक देना। ऐसा लिख जाना जो संदर्भ ग्रंथ बन सके। यही तो किया है रमेश अधीर ने। उनकी सर्वाधिक लोकप्रिय कृति है अग्रपथी। यह महाराजा अग्रसेन के मूलभूत जीवन पर आधारित एक ऐतिहासिक महाकाव्य है।
वे मेरे शास्त्रीपुरम, आगरा स्थित आवास पर आए। उन्होंने अग्रपथी महाकाव्य के साथ बोलता अग्रोहा (महाराजा अग्रसेन के जीवन चरित्र पर आधारित उप्यास), संवेदना का पतझड़ (काव्य संग्रह) और खारी नदी (अनुभव से प्राप्त अनुभवों को झकझोरती तड़पों पर आधारित कहानियां) भेंट की। एक से बढ़कर एक पुस्तकें हैं। पढ़ना शुरू कीजिए तो पढ़ते रहिए।
गांव साथा, फतेहपुरसीकरी, आगरा में जन्मे रमेश अधीर का व्यक्तित्व बहुआयामी है। तभी तो कविता, कहानी, ऐतिहासिक महाकाव्य, उपन्यास सभी विधाओं में सिद्धहस्तता है। इतना ही नहीं, वे संस्कृत भाषा में भी कविता लिखते हैं। आगरा में तो कोई कवि नहीं है जो संस्कृत में काव्य रचना कर सके। महाकाव्य अग्रपथी का शुभारंभ भी संस्कृत के साथ हुआ है।
रमेश अधीर कहते हैं- “अग्रपथी केवल कल्पित समूहों का शब्द नहीं है, बल्कि एक सर्वग्राही प्रेरणा है। इसमें वह सबकुछ है जो एक सभ्य व स्वस्थ समाज को चाहिए। इस अग्रपथी के महानायक का अग्रोहा पुनः छठवीं शताब्दी की ओर लौटने को पुकार रहा है। यदि हम छठवीं शताब्दी के अग्रोहा की ओर नहीं लौटे, तो हम एक हीन संस्कृति का अवरण ओढ़े, अपने भीतर के अग्रोहा को उजड़ते हुए देखते रहेंगे।”
बिलकुल सही कहते हैं अधीर। मैंने अग्रपथी का समग्र पाठ नहीं किया है लेकिन जितना भी देखा है, वह मनभावन है, पावन है। विशेष बात यह है तमाम पुस्तकों का संदर्भ दिया गया ताकि महाकाव्य की प्रामाणिकता को कोई चुनौती न दे सके।
अंतिम अध्याय विरक्ति का कुछ पंक्तियां देखिए-
गीता-से अध्याय अठारह, दिवस अठारह मान
पूर्णतया निष्काम कर्म पथ, पर कुछ चलना जान
परम ध्येय ध्यान……धारणामय अग्रसेन का चिन्तन
सुनने विरक्त कथा शीर्ष को, पुनः आ गये सब जन
दधि में मक्खन की भाँती, सार कथा संजीवन
लगे कराने हरभज, अग्र विरक्त कथा के दर्शन
‘श्रेष्ठ पुरोहित! है ये शीर्ष सार अमृत संजीवन
मात्र आचरण में ढलने से ही, पायें हरि दर्शन ।
गुप्त द्वार से निकल, अग्र एकान्त वास में चिन्तन,
अरावली की एक कन्दरा में आया निर्वासन ।
यज्ञ भंग प्रतिछाया माया, लगी साथ में आयी,
प्रबल विरक्ति शक्तियाँ भी वह, बना योगिनी लायी ॥
भोग वियोग, योग प्रयोग के अवसर प्राप्य अनूठे,
आ जल रहे दीप चिन्तन पर, शलभ जगत् के झूठे ।
रूठ रही विषय वासनाएँ, तन के हर कोने से,
करने लगीं आक्रमण, फिर से क्रोध शक्ति दुगने से ॥
छिपी रहीं दुष्टाएँ अबतक, गुपचुप मन के तल में,
विद्यमान वैराग्य शक्ति ने, मारा उनको पल में।
मृत तन उनका पड़ा-पड़ा बन गया दया की पीड़ा,
‘अरे! बावरे ! आकर, तुने दायित्वों को मीड़ा॥
पुस्तक का प्रकाशन आगरा बुक इंटरनेशनल ने किया है। प्रकाशकीय कथ्य देखिए- “सुसाहित्य से परहेज करने वाले समाज में सुसाहित्य का प्रकाशन करना कितना जोखिम भरा काम होता है, यह एक ‘प्रकाशक’ ही जानता है और इसका खामियाजा जाने कितनी ‘अधीर’ प्रतिभाएँ झेलती हैं। यह गूँगा, बहरा, असंवेदनशील समाज इसके बारे में क्या जान सकता है? प्रतिभाओं को यों ‘मरते हुए’ एक संवेदनशील व्यक्ति, तो नहीं देख सकता। मेरी संवेदनशीलता ने सारे जोखिमों की परवाह किये बिना इस अद्वितीय महाकाव्य को अपनी गोद में अंगीकार करना स्वीकार किया।”
“श्रेष्ठतम भाषा, गहनतम भाव-धारा, सटीकतम शब्द, चिन्तन की ऊँचाईयों से भरे इस महाकाव्य में विज्ञान, धर्म, रहस्य, वास्तविकता, तथ्य, वैचारिक उड़ान, इतिहास, मनोविज्ञान, शास्त्रीयता, आधुनिकता—सन्दर्भों के अनुरूप मीठी भाषा में चुपड़ा-चुपड़ा सब कुछ है।”
अग्रवाल समाज को अग्रपथी को सहेजना चाहिए। महाराजा अग्रसेन के बारे में कुछ लिखा जाएगा या कहा जाएगा तो अग्रपथी संदर्भ ग्रंथ के रूप में प्रयोग अवश्य होगा। कभी तो सुधीजनों की दृष्टि में आएगा।
मुझे क्या लगता है कि रमेश अधीर लिखते तो शानदार हैं लेकिन किसी की प्रशंसा नहीं करते हैं। जो जैसा दिखता है, उसके वैसा ही बता देते हैं। आज के युग में यह चल नहीं सकता है। जमाने के साथ बदल नहीं रहे हैं इसलिए कवियों का उनके प्रति उपेक्षित भाव परिलक्षित है।
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