Ramesh adheer books

मां, मृत्यु, ठाँव और छाँव, छलांग, खारी नदी, संवेदना का पतझड़, बोलता अग्रोहा और कवि रमेश अधीर

साहित्य

डॉ. भानु प्रताप सिंह

Live Story Time

आगरा के कवि, लेखक, कथाकार, नाटककार, उपन्यासकार रमेश अधीर पिछले दिनों मेरे आवास पर आए और कई पुस्तकें भेंट कीं। इनमें मुख्य रूप से  मां, मृत्यु, ठाँव और छाँव, छलांग, खारी नदी, संवेदना का पतझड़, बोलता अग्रोहा का उल्लेख करना चाहूँगा। एक से बढ़कर एक पुस्तकें हैं। बोलता अग्रोहा पूरा नहीं पढ़ पाया हूँ। जो पुस्तकें पढ़ पाया हूँ, उनके बारे में कुछ जानकारी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ।

रमेश अधीर ने काव्य संग्रह माँ” में मां का चित्रांकन किया है। यूं तो हमारे देश में मां की ममता पर बहुत कुछ लिखा गया है लेकिन रमेश अधीर ने इन सबसे हटकर लिखा है। मां के लिए सिर्फ शब्द जाल नहीं बिछाया है बल्कि मन के भाव इस तरह से उकेरे हैं कि हम सब इसके पात्र बन जाते हैं। कुछ पंक्तियां देखिए-

स्वर्ण और कौड़ी का अन्तर

नहीं मिला माँ की झोली में ।

दिल को तोले स्नेह कौड़ियाँ,

शामिल वह माँ की टोली में ।।

 

भ्रम के जाल फँसी  दयालुता

लाँघ गयी जब लक्ष्मण रेखा ।

तब -तब हमने सीताओं को,

रावण, हाथों हरते देखा।

 

राम सेतु बन जाते तब-तब

केवल ममता की रक्षा को

आ जाता है सत्य विभीषण,

अपनाने न्यायिक इच्छा को ।।

 

कोई बाधा रोक न सकती,

माँ के बढ़ते शक्ति चरण को ।

निकल पहुँचता कारागृह से,

कोई कान्हा मात शरण को ।।

 

बना बाल देती अपनी अनसुइया,

अपनी ममता की ताकत से।

अहंकार  की   हारें  होतीं,

मात्र एक आँसू  अमृत से ।।

 

रमेश अधीर ने काव्य संग्रह मृत्यु में मृत्यु का स्वागत किया है। हर कोई मृत्यु से घबराता है लेकिन रमेश अधीर ने कहा है कि अगर मृत्यु न होती तो न जाने क्या हो जाता।

सोचो, मृत्यु न होती जग में,

तो इस जग का फिर क्या होता।

जग तो होता किन्तु जगत् का,

कोई तारणहार न होता ।।

 

सड़े हुए जल के कीड़ों-सा,

ये दुर्गन्धित जीवन होता।

हाँ! जीवन तो होता, लेकिन-

जीवन का कुछ अर्थ न होता ।।

 

साँसें होतीं, किन्तु न होतीं

साँसों के भी अन्दर सांसें

हाँफ-हाँफकर, जीवन चलता

लगा अनेकों पग में फाँसें ।।

 

रातें होतीं, दिन भी होते,

सूरज, चन्दा, तारावलियाँ।

सब कुछ होता, किन्तु न होता,

इनको देने वाला गतियाँ ।।

 

ठहरा ठहरा चलता जीवन,

गतियों का उपहास उड़ाता !

गतियाँ होर्ती, किन्तु न उनमें,

प्राणों का संचार न होता।।

 

रमेश अधीर का कहानी संग्रह खारी नदी” गजब का है। मुझे दो कहानियां बेहद पसंद आईं। एक- खारी नदी और दूसरी- “मुँडेर-मुँडेर मँडकाता कौआ”। मुँडेर-मुँडेर मँडकाता कौआ में कौआ को प्रतीक बनाकर ऐसे व्यक्ति का चरित्र उजागर किया गया है जो सिर्फ अपनी स्वार्थ सिद्धि में रत है। हर गांव में इस तरह के लोग हैं। विशेष बात यह है कि इस कहानी में अपनी प्यारी और मीठी बृज भाषा भी पढ़ने को मिलती है। कष्ट है कि पढ़े-लिखे लोग बृज भाषा में बात नहीं करते हैं।

खारी नदी यूं तो कहानी है लेकिन यह एक शोध प्रबंध सा लगता है। इसमें नई बात यह है कि बाबर द्वारा तोड़े गए मंदिरों का विवरण भी है। बाबर ने राणा सांगा को पराजित करने के बाद फतेहपुर सीकरी पर कब्जा किया था और मंदिर तोड़े। इतिहास में इस बात का उल्लेख नहीं है कि लेकिन रमेश अधीर ने प्रमाणों के आधार पर यह बात कही है। सिकरवारों के मुंडन संस्कार की बात भी आई है। फतेहपुर सीकरी पर मैंने भी थोड़ा सा काम किया है। इसमें भी इसी तरह के संकेत मिले हैं। खारी नदी से मुझे कुछ खोजबीन करने का लक्ष्य भी मिल गया है। मैं आभारी हूँ आदरणीय रमेश अधीर जी का कि उन्होंने अपना चर्चित कहानी संग्रह खारी नदी मुझे भेंट किया और मैं पढ़ पाया।

अकबर को महान बताने वाले जरूर देखें Part-1

केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के पूर्व प्रोफेसर हेमराज मीणा ने खारी नदी के बारे में ‘खरी और खारी-सी बात’ शीर्षक से लिखा है-

आधुनिक कहानी साहित्य के दो शिखर कथा शिल्पी हैं-कथा सम्राट प्रेमचंद तथा जयशंकर प्रसाद। कथाकार रमशेचंद अग्रवाल ‘अधीर’ सांस्कृतिक कहानीकार जयशंकर प्रसाद की परंपरा के कहानीकार हैं। ‘अधीर’ की कहानियों सुसंस्कृत पाठक समुदाय की माँग करती हैं। ‘खारी नदी’ ‘अधीर’ की प्रथम कथा कृति है। जिसमें बारह कहानियाँ संकलित हैं।

प्रस्तुत कहानी संग्रह का नामकरण इसी संकलन में संकलित कहानी ‘खारी ‘नदी’ के नाम पर किया गया है। ये सभी कहानियाँ सन् 1978 से सन् 2018 के मध्य रची गयी हैं। वर्तमान सामाजिक-राजनैतिक आर्थिक व्यवस्था तथा सत्तातंत्र पर लेखक ने कुठाराघात किया है। हमारी सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक संरचना अंदर से खोखली और जर्जर हो चुकी है। आत्मीय संबंध स्वार्थ संबंधों में परिवर्तित हो चुके हैं। हम तथाकथित विकास और आर्थिक संपन्नता में आगे बढ़ गए हैं, किंतु हमारी मानवीय संवेदना और मानवीय मूल्यों की भूमि खंड-खंड हो चुकी है। वर्तमान समाज के हर पक्ष को लेखक ने जानने का प्रयत्न किया है।

पाठक वर्ग भी कथाकार की दृष्टि से समाज को पढ़ना और जानना चाहता है। इस संकलन में आधी कहानियाँ बड़ी पृष्ठभूमि से जुड़ी हुई हैं। अर्थात् कुछ कहानियों की आधार भूमि उपन्यासिका जैसी है।

कहानीकार ने प्रत्येक कहानी के माध्यम से यथार्थ का दिग्दर्शन कराने का सफल प्रयत्न किया है। असल में समूची सामाजिक व्यवस्था और समूची राजनैतिक व्यवस्था जैसी दिखाई देती है, वैसी है नहीं। अंदर का सच बड़ा घिनौना और डरावना है। आंतरिक सत्य चौकाने वाला है। उसी चौकाने वाले सत्य से कहानीकार रमेशचंद अग्रवाल ‘अधीर’ हमारा साक्षात्कार कराते हैं। भीतरी सत्य का संधान ही लेखक का मूल लक्ष्य है। किसी भी स्तर पर देखिए, प्रतिभाएँ उपेक्षित रही हैं। समाज और राष्ट्र के निर्माण में जिनकी आवश्यकता थी उन प्रतिभाओं को व्यवस्था ने कुचला है। यह युग जुगाड़ी लोगों का है। धन की सत्ता सर्वप्रमुख हो। चुकी है। पद-प्रतिष्ठा बिकाऊ बन गए हैं। समाज में चमक-दमक का बोलबाला है तथा प्रदर्शन (दिखावा) बढ़ता जा रहा है। श्रम और प्रतिभा की आभा को धन की सत्ता ने ढक दिया है। इन कहानियों में अनुभव है, लेखक की संघर्ष गाथा भी है। इतिहास, संस्कृति तथा भाषा का ज्ञानात्मक, तार्किक विश्लेषण है। ‘अधीर’ कोरे कहानीकार नहीं हैं बल्कि वे कवि हृदय संम्पन्न संवेदनशील कहानीकार हैं।

कहानियों में संवेदना का आंतरिक स्वर है। हर कहानी की अंतरध्वनि में वेद का संगीत है। शब्द प्रयोग, भाषागत प्रयोग और वाक्य प्रयोग लीक से हटकर हैं। यह नया प्रयोग ही इन कहानियों को वैशिष्ट्य देता है। हर स्तर नये शिल्पगत प्रयोग हैं। लेखक ने कुछ नयी शब्दावलियों का भी सृजन है। इस संकलन की प्रत्येक कहानी को पढ़ने के पश्चात पाठक का आनात्मक और भावात्मक स्तर निश्चित रूप से बढ़ेगा। कथा-रस के साथ-साथ भाषा रस का अनूठा प्रयोग इन कहानियों में समाहित है। इस संकलन की कहानी के पात्र मौजूदा दौर की चुनौतियों का मजबूती से खारी नदी | 5 |

इस संकलन में ‘कफन के लिए तरसता गांधी’ शीर्षक ही अनेकों प्रश्न हमारे समक्ष छोड़ता है। किंतु आज हम सभी प्रश्नों के समक्ष मौन और अनुत्तरित हैं। ‘जमींदार’ शीर्षक कहानी में हमारी शोषण वृत्ति की दुर्गंध है। ‘रद्दी ‘कहानी हमारी वर्तमान व्यवस्था पर गहरी चोट है, क्योंकि व्यवस्था भी रद्दी जैसी हो गई। हैं। व्यक्ति रद्दी की टोकरी बन गया है। इसी प्रकार ‘पंचायत’, ‘बेचारा कालीदास’, ‘मुंडेर-मुँडेर मँडराता कौआ’, ‘कसक’, ‘बस अब और कुछ नहीं’, ‘अस्थि विसर्जन’, गैस सिलेंडर’, ‘खारी नदी’ और ‘वकील बिक गया’ कहानियाँ हमें सोचने-विचारने को मजबूर कर देती हैं। हर कहानी अनूठी और बेजोड़ है। समकालीन युग के कथा समक्षिक निश्चित रूप से इन कहानियों का सटीक मूल्यांकन करेंगे। कथाकार इन कहानियों के द्वारा कुछ कहना चाहता है। वह लोकमंगल के लिए कुछ सूत्र वाक्य रचना है। अध्येताओं से इन्हीं सूत्रों की व्याख्या अपेक्षित है।

हमारा सामाजिक ताना-बाना और प्रशासनिक ढाँचा भीतर-बाहर क्षतिग्रस्त हो चुका है। हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को कुछ लोग-ध्वस्त करने के फेर में हैं। हर व्यक्ति अंदर की जीवंतता खो चुका है। कर्मनिष्ठा लुप्त हो रही है। जन कल्याण मात्र उपदेशात्मक शब्द रह गया है। जिधर देखो उधर ही अव्यवस्था का माहौल है। एक असुरक्षा का सन्नाटा चारों ओर पसरा हुआ है। युवा पीढ़ी अपने को लुटा हुआ अनुभव कर रही है। इस दुविधाग्रस्त माहौल में जन्मी ये कहानियाँ हमें रोशनी देती हैं। संघर्ष से प्राप्त की गई विजय ही सुख दायक और स्थिर होती है। इन कहानियों का भविष्य अच्छा होगा, क्योंकि ये कहानियाँ नयी जमीन तलाशने की क्षमता के साथ आगे बढ़ती हैं।

‘कसक’ कहानी का यह कथन हमें अंदर से हिला देता है-“अभी तक आये हुए लोगों ने मेरी इस्त्री किये हुए कपड़ों को पहनकर, उसके अतीत में झाँकने की कभी कोशिश नहीं की। कपड़ों में पड़ी ये सिलवटें क्या है ? धुलने व सूखने के बाद अव्यवस्थित दशा ही तो है, जिसको इस्त्री व्यवस्थित आदर्श व सम्मानजनक स्थान दिलाती है। बस यही हमारा संविधान है, उसे भी एक ‘रजक’ की इस्त्री की आवश्यकता है। चूँकि अभी तक कोई ऐसा ‘रजक’ पैदा नहीं हुआ, जो इस्त्री कर इन सिलवटों को मिटा सके। इन अव्यवस्थित सिलवटों का शिकार, ये आपके कपड़े पर इस्त्री करने वाला ‘रजक’ भी रहा है।”

असल में हमारे सामाजिक जीवन में इतनी असमानता बढ़ चुकी है कि इसे मिटा पाना असंभव प्रतीत होता है। इन्हीं सिलवटों ने पूरे राष्ट्र की भव्यता को भी कलंकित किया है।

प्रस्तुत कहानी संग्रह की कहानियों से हिंदी कहानी साहित्य की समृद्ध परंपरा को बल मिलेगा। ऐसा मुझे विश्वास है। कथाकार रमेशचंद अग्रवाल ‘अधीर’ और उनके संकलन ‘खारी नदी’ की खरी और खारी-सी बातें सबको खरी लगेंगी और मैं इसके उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ।

रमेश अधीर एक कवि सम्मेलन में गए। कविता को मरता देख पीड़ा से भर गए। उन्हीं के शब्दों में- सन् 1978 भाद्र मास में आयोजित अखिल भारतीय कवि सम्मेलन डीग जि. भरतपुर (राज.) में एक श्रोता के रूप में उपस्थिति हुआ था। मंच पर गणमान्य कवियों की उपस्थिति में प्रथम बार मैंने कविता को मरते हुए देखा और मैं उसी समय अपनी आत्मा से इतना रोया कि वेदना स्वयं अधरों से फूट पड़ी। प्रायः मैंने साहित्य-सृजन छोड़ दिया था, लेकिन अन्तिम चार पंक्तियों ने महाभारत के अर्जुन की तरह खड़ा रहने की प्रेरणा दी… और फिर तभी से मेरी लेखनी एक नया महाभारत रचने के लिए उठ खड़ी हुई।

काव्य संग्रह संवेदना का पतझड़ में यह कविता पठनीय है-

श्रद्धाँजली कविता तुझे मैं आँसुओं की दे रहा हूँ,

कर्तव्य पालक मित्र भी था, किंतु निर्धन

घर में कफन निकला नहीं देखा बहुत था,

इसलिए मैं शारदा का फाड़ आँचल ही रहा हूँ।

श्रद्धांजली कविता तुझे मैं आँसुओं की दे रहा हूँ।

 

धू-धू जली ज्याला की लपटें देखता हूँ.

खुशियाँ मनाते बुद्धजीवी देखता है।

कविता तुझे शमशान में जाकर धकेला

कुछ राख मुट्ठी भर बना छोड़ा अकेला।

उस राख में ही प्राण के संचार करने जा रहा हूँ।

श्रद्धांजली कविता तुझे मैं आँसुओं की दे रहा हूँ।

 

री शारदा अमृत तुम्हारे पास भी है,

कविता जिलाने में रही असमर्थ क्यों तुम?

जो कल्पना साकार हो नवरस बनेगी,

जिस शब्द से नव क्रांति होकर, जग रहेगी।

निशि-दिन उसी की खोज में मैं लग रहा हूँ।

श्रद्धांजली कविता तुझे मैं आँसुओं की दे रहा हूँ।।

 

भटकते हुए किशोर जीवन जीवन पर आधारित उपन्यास छलाँग में रमेश अधीर ने लिखा है-

जी! हाँ!! गड्ढा होगा तो उसे पार करने के लिये छलांगें भी होंगी। छलाँग और गड्ढे का सम्बन्ध व्यक्ति के पूरे मनोयोग पर टिका हुआ है। हर एक व्यक्ति के जीवन में छोटे-बड़े गड्ढे आते ही रहते हैं। कुछ गड्ढे तो आसानी या थोड़े-बहुत परिश्रम से पार हो जाते हैं, लेकिन कुछ नहीं हो पाते। जो गड्ढे पार नहीं हो पाते, बस वहीं से जिन्दगी के रास्ते बदलने लग जाते हैं। जिस गड्ढे को पार कर जिन्दगी को सफलताओं के शिखर पर होना चाहिये, वह जिन्दगी गुमनामी और मुफलिसी, में खो जाती है। आखिर ऐसा क्यों ? इसका जवाब सीधा व सरल है। वह इसलिये कि सामने खड़ी बाधाओं से निपटने की क्षमताएँ जिन्दगी के आचरण में ढल नहीं पायी हैं। इसी वजह से हर एक किये गये प्रयास में कोई न कोई भूल व कमी रह जाती है और कभी-कभी जिन्दगी लक्ष्य को पाते पाते भी हाथ मलते रह जाती है। त्रुटिहीन आत्मविश्वास से भरे किसी प्रयास में आने वाली किसी बाधा की मजाल है कि वह उस प्रयास की यात्रा को लक्ष्य पर पहुँचने से पहले रोक सके।

बस इसी प्रकार की यात्रा यह कलम चाहती है। भूलें होना जिन्दगी में आवश्यक है। यदि भूलें व त्रुटियाँ नहीं होंगी तो अनुभव कहाँ से आयेगा? जब अनुभव ही नहीं होगा, तो आगे और आने वाली बाधाओं से निपटने के लिये आत्मविश्वास कहाँ से आयेगा? जब आत्मविश्वास होगा तो कोई भी छलाँग आधी-अधूरी नहीं रहेगी।

आधी-अधूरी छलाँग कोई किशोर न लगाये यही इस कलम की तपस्या है, क्योंकि मनुष्य की जिन्दगी की असली परीक्षा इस अनुभवहीन किशोर अवस्था से ही शुरू होती है। जिन्दगी जीने की अनुभव किशोर को विरासत, सामाजिक परिवेश और स्वयं की भूलों से प्राप्त सबकों से होती है, लेकिन स्वयं में प्राप्त अनुभव इस अवस्था में इतने परिपक्व नहीं होते कि कोई बड़ा गड्ढा आने पर छलाँग लगा सकें। ऐसी छलाँग लगाने की क्षमता व प्रयासों का नाम ही यह छलाँग नाम का उपन्यास है। यह छलाँग हर व्यक्ति को छलाँग लगाने का साहस व अनुभव दे, यही मेरी कलम की तपस्या का फल रहेगा।

शुभ छलांग।

रमेश अधीर का चर्चित नाटक है ठाँव और छाँव। इसके बारे में वे बताते हैं- जिह्वा पर कोठे का नाम आते ही एक नकारात्मक छवि हमारे मस्तिस्क में छा जाती है। लगता है कि सारी नकारात्मक ऊर्जा का मुख्य केन्द्र कोठा ही होता है, लेकिन जब कोठे की गहराइयों में जाया जाता है, तब बोध होता है कि कोठों का निर्माण हमारी सदियों से चली आ रही ठहरी-ठहरी सी सामाजिक व्यवस्थाओं के कारण ही हुआ है। व्यवस्थाएँ- जो परम्परागत ठहराव में किसी प्रकार की और गतिशीलता को प्रवेश की इज़ाजत नहीं देती। फलतः हारा-थका, टूटा हुआ मानव एक गतिशीलता की तलाश में वहाँ पहुँच जाता है, जहाँ पर उसकी भूख और प्यास की शान्ति के लिए ठाँव और छाँव दोनों ही मिलते हैं।

मानव को और क्या चाहिए? जिन्हें इससे अधिक की चाह होती है, समझ लो वे मनुष्य उतना ही अधिक दूसरों की चाहों पर डाका डाल रहे होते हैं। इस अप्राकृतिक अमानवीय व्यवहारों का एक समूह जब गोलबन्द हो जाता है, तो सहज-सरल व्यवहारों को ‘कोठे’ के रूप में ‘ठाँव और छाँव’ ढलना ही पड़ता है।

इस ‘ठाँव और छाँव’ की नाट्य कृति को समाज के सामने उसकी भूल के प्रायश्चित के रूप में प्रस्तुत करने का एक ध्येय रहा है। व्यवस्थाओं के द्वारा उत्पन्न विषमता को इसके माध्यम से जनचेतना के रूप में प्रस्तुत करने की आवश्यकता महसूस हुई और यह आवश्यकता धरातल पर एक सुव्यवस्थित समाज का निर्माण करे, यही मेरे ध्येय की सार्थक उपलब्धि रहेगी।

 

महाराजा अग्रसेन के सम्पूर्ण जीवन पर आधारित उपन्यास “बोलता अग्रोहा का समापन कुछ इस तरह से किया है-

तुम योगवन्त, तुम शीलवन्त, तुम धीरवन्त, मृदु महामने,

चालुक्य श्रेष्ठ, कुल भात ज्येष्ठ, नृप मंगलीश सुत आत्मने ।

त्याग सैन्द्रिकी प्रखर कीर्तियाँ तपन-जपन,

पृथ्वी वल्लभ, अग्र आपको नमन-नमन ॥1 ॥

परतापपुरम् अवतारभवम्, सोल्लास अप वातापी,

रेवति द्वीपम्, भरुकच्छ नृपम्, उज्र्जय थलम् परतापी ।

मस्तिष्क वसा, आकार मिला, नव नगर वरन,

पृथ्वी वल्लभ अग्र आपको नमन-नमन ॥12 ॥

यह भी पढ़ें

ताजमहल के शहर आगरा में मनभावन शाम, मन प्रसन्न हो जाएगा

Dr. Bhanu Pratap Singh