krishna janmashtami and jain dharma

Krishna Janmashtami महावीर स्वामी की तरह जैन धर्म के तीर्थंकर बनेंगे श्रीकृष्ण

RELIGION/ CULTURE

जैन धर्म के 22वें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ हैं श्रीकृष्ण के चचेरे भाई

पिच्छी से आशीर्वाद दिया इसीलिए मुकुट में मोरपंखी धारण की

डॉ. भानु प्रताप सिंह

यह शीर्षक पढ़कर चौंकना स्वाभाविक है, लेकिन जैन शास्त्रों का यही मानना है। जैन शास्त्रों में श्री कृष्ण को अतिविशिष्ट पुरुष के रूप में चित्रित किया गया है। हिन्दू धर्मावलम्बी श्रीकृष्ण को विष्णु जी का अवतार मानते हैं। उन्हें भगवान मानते हुए पूजा अर्चना करते हैं। भाद्रपद की अष्टमी को उनका जन्मोत्सव धूमधाम से मनाते हैं। इस बार श्रीकृष्ण जन्माष्टमी 19 अगस्त, 2022 को है। श्रीकृष्ण का जन्म मथुरा में कंस के कारागार में हुआ था। उनके पिता का नाम वासुदेव और माता का नाम देवकी थी। मथुरा के राजा कंस की चचेरी बहन थी देवकी। हम सब जानते हैं कि 22वें जैन तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ, श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे। जैन शास्त्र श्रीकृष्ण को भगवान नहीं मानते हैं। हां, श्रीकृष्ण को भावी तीर्थंकर माना गया है। जैन शास्त्र यह भी कहता है कि कालान्तर में श्रीकृष्ण भगवान महावीर की ही तरह मोक्ष को प्राप्त करेंगे। एक यूट्यूब चैनल पर तो यहां तक कहा गया है कि श्रीकृष्ण ने जैन धर्म अपना लिया था।

श्री विद्यानंद जी मुनिराज के शब्दों में, जैन आगमों में 63 श्लाका पुरुष माने गए हैं, जिनमें 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 बलदेव, 9 वासुदेव तथा 9 प्रति वासुदेव हैं। नेमिनाथ (अरिष्ट नेमि) 22वें तीर्थंकर तथा श्री कृष्ण नौवें अंतिम वासुदेव हैं। शलाका पुरुष अत्यंत तेजस्वी, वर्चस्वी, कांतिमय, अल्पभाषी, प्रियभाषी, सत्यभाषी, सर्वांग सुंदर, ओजस्वी, प्रियदर्शी, गंभीर, अपराजेय आदि गुणों से संपन्न होते हैं। श्रीकृष्ण श्लाका पुरुष हैं।

श्री विद्यानंद जी मुनिराज ने लिखा है– नेमिनाथ वैराग्य प्रकृति के थे। श्री कृष्ण के प्रयास से ही नेमिनाथ का विवाह जूनागढ़ के राजा उग्रसेन की पुत्री राजमती से तय हुआ था, किन्तु जब बरात नगर सीमा पर पहुंची तो बाड़े में बंद पशुओं की चीत्कार से नेमिनाथ सिहर उठे। पूछने पर उन्हें पता चला कि बरात के भोज के लिए ये पशु बंधे हैं। इन्हें शायद अपने वध का अहसास हो गया है, इसलिए चीत्कार कर रहे हैं। यह जानकर नेमिनाथ को वैराग्य हो गया। उन्होंने अपने आभूषण उतार कर सारथी को दे दिए और कैवल्य पथ पर चल दिए। श्री कृष्ण भी उन्हें समझाने में सफल नहीं हो सके।

नेमिनाथ ने जिस स्थान पर दीक्षा ग्रहण की थी, उसी स्थान पर उन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। श्री कृष्ण ने जब यह समाचार सुना, तो वे अपने परिजनों एवं सहस्त्रों राजाओं के साथ हाथी पर बैठ कर नेमिनाथ का दर्शन करने गए। नेमिनाथ ने श्री कृष्ण को निवृत्ति मार्ग पर चलने का उपदेश दिया। नेमिनाथ के पास मयूर पिच्छी थी, जो अहिंसा के लिए जैन मुनि का अनिवार्य साधन होती है। उस पिच्छी से नेमिनाथ ने श्री कृष्ण को जो आशीर्वाद दिया, वह श्री कृष्ण को  इतना प्रिय लगा कि उन्होंने मुकुट में मोर पंख धारण करना शुरू कर दिया। जैन धर्म यह भी मानता है कि नेमिनाथ भगवन, युधिष्ठर, भीम, अर्जुन, प्रद्युम्न को मोक्ष प्राप्त हुआ है। बलराम, नकुल, सहदेव को स्वर्ग मिला है। श्रीकृष्ण को अभी मोक्ष नहीं मिला है।

 

मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज ने अपनी वेबसाइट पर लिखा है – श्री कृष्ण नौवें नारायण थे और नारायण श्लाका पुरुष में आते हैं और वो नेमिनाथ भगवान के चचेरे भाई भी थे। हमारे आगम के अनुसार श्री कृष्ण भी भावी तीर्थंकर हैं। आगामी चौबीसी में 16 तीर्थंकर होने वाले हैं। इसलिए श्री कृष्ण का महान स्थान तो हमारे धर्म में हैं लेकिन जैन धर्म के अनुसार हम वीतरागता को पूजते हैं। इस भव में श्रीकृष्ण ने वीतराग रूप नहीं पाया। अभी नारायण हुए, जब वे तीर्थंकरत्व को प्राप्त करेंगे तब हम उनकी पूजा अर्चना करेंगे। तो उसे उसी सन्दर्भ में देखकर करके चलना चाहिए। एक नारायण होने के नाते उनके जीवन और आदर्श की चर्चा करना, उनके गुणों की चर्चा करना, उनके कौशल और पराक्रम की चर्चा करके उनके आदर्शों से अपने जीवन में एक अच्छी प्रेरणा पाना, कोई बुरी बात नहीं है।

 

आप यह भी जान लें कि जैन धर्म ईश्वर को सृष्टि का रचयिता नहीं मानता। जैन धर्म मानता है कि यह जगत अनादि काल से है और अनंत काल तक रहेगा। ऐसे ही जैन धर्म ईश्वर को जगत का कर्त्ता या चलाने वाला नहीं मानता। वह इस बात में विश्वास नहीं करता कि ईश्वर की मर्ज़ी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता। क्योंकि यदि ऐसा माना जाए तो व्यक्ति के कर्म या पुरुषार्थ के लिए कोई स्थान नहीं बचेगा। चोरी या अन्य अपराध करने वाला व्यक्ति कहेगा कि इसमें उसका कोई दोष नहीं है क्योंकि सब कुछ कराने वाला तो ईश्वर है। अपराध कराने वाला ईश्वर और दण्ड भोगे जीव – यह तो न्याय नहीं हुआ। जैन धर्म कर्म सिद्धांत में विश्वास करता है। वह कहता है कि प्राणी जैसे कर्म करेगा वैसा ही उसे फल प्राप्त होगा। संसार की सब विषमताएं प्राणिमात्र के कर्मों के कारण हैं।

जैन धर्म अवतारवाद में विश्वास नहीं करता। उसकी यह मान्यता नहीं है कि दुष्टों का नाश करने वाला या भक्तों का पालन करने वाला परोक्ष में कोई ईश्वर है जो यथासमय त्रस्त संसार पर दया करके बैकुण्ठ से संसार में आता है और फिर अपनी लीला दिखाकर वापिस लौट जाता है। जैन धर्म में मनुष्य से बढकर कोई दूसरा महान प्राणी नहीं है। तीर्थंकर भी मनुष्य ही होते हैं।

Dr. Bhanu Pratap Singh