dadaji maharaj

सबसे पहले कबीर साहब ने राधास्वामी नाम को सांकेतिक भाषा में प्रगट कियाः दादाजी महाराज

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हूजरी भवन, पीपल मंडी, आगरा राधास्वामी (Hazuri Bhawan, Peepal mandi, Agra) का आदि केन्द्र है। यहीं पर राधास्वामी मत (Radha Soami Faith) के सभी गुरु विराजे हैं। राधास्वामी मत के वर्तमान आचार्य (Radhasoami guru Dadaji maharaj) और अधिष्ठाता दादाजी महाराज (प्रोफेसर अगम प्रसाद माथुर) हैं जो आगरा विश्वविद्यालय (Agra university) के दो बार कुलपति (Vice chancellor of Agra university)  रहे हैं। हजूरी भवन (Hazuri Bhawan, Peepal Mandi, Agra) में हर वक्त राधास्वामी (Radha Soami)  नाम की गूंज होती रहती है। दिन में जो बार अखंड सत्संग होता है। दादाजी महाराज ने राधास्वामी मत (RadhaSomai faith) के अनुयायियों का मार्गदर्शन करने के लिए पूरे देश में भ्रमण किया। इसी क्रम में 2 अप्रैल 2000 को ली ग्रांड पैलेस, लुधियाना, (पंजाब, भारत) में सतसंग के दौरान दादाजी महाराज (Dadaji maharaj Prof Agam Prasad Mathur) ने कहा- कहने का मतलब यह है कि जो निज मालिक का ज्ञान दे वही सार मत है यानी जो सच्चखंड और उस स्थान का भेद बतावे जिसको उस समय संतों ने चौथा लोक कहा।

कबीर साहब ने भी कहा है-

कबीर धारा अगम की, सतगुरु दई लखाय।

उलट ताहि सुमिरन करो, स्वामी संग मिलाय।।

सबसे पहले परम संत कबीर साहब जब अवतरित हुए तो उन्होंने स्वयं राधास्वामी नाम को उपरोक्त दोहे के जरिए सांकेतिक भाषा में प्रगट कर दिया था लेकिन उस समय तक यह धरती पूर्ण रूप से पूर्व उर्वर नहीं हुई थी कि सच्चखंड और सत्तपुरुष राधास्वामी का पूरा-पूरा भेद बता दिया जाए, क्योंकि उस समय समाज बड़ा जटिल, संकीर्ण और कटुता का था। न जाने कितने ,अंधविश्वास सामाजिक कुरीतियां जैसे बलि, सती और अनेक प्रकार का शोषण चल रहा था। विदेशियों का राज्य था। यहां के रहने वालों को अपने धर्म को मानने और अपने विचारों की पूर्ण रूप से स्वतंत्र अभिव्यक्ति का भी अधिकार नहीं था।

जो निज मालिक का ज्ञान दे वही सार मत है

संत कबीर साहब और उनके बाद जितने संत आए उन्होंने समाज में फैली कुरीतियों को दूर करने की बात कही। यानी इस धरा (जमीन) को उपजाऊ बनाने के लिए सबसे पहले उसे खोदा गया, उसके अंदर अच्छी खाद डाली गई और पानी डालकर उसको ऐसा बनाया गया कि जिससे उसमें भक्ति के पुष्प खिल सकें। जो लोग कबीर साहब को केवल निर्गुणवादी कहते हैं वह गलती पर हैं। कबीर साहब और सब संतो का मत निर्गुणवादी है न सर्गुणवादी, संतों का मत सारगुणवादी है। सारगुण वह है जिसमें शब्द की व्यापक महिमा की जाए, शब्द को सारी रचना का आधार माना जाए और स्थान-स्थान के शब्द की व्याख्या करते हुए बताया जाए कि कैसे सुरत को शब्द में मिलाया जाता है। कहने का मतलब यह है कि जो निज मालिक का ज्ञान दे वही सार मत है यानी जो सच्चखंड और उस स्थान का भेद बतावे जिसको उस समय संतों ने चौथा लोक कहा।

राधास्वामी दयाल अपनी निज धार को भी यहां व्यवस्थित कर दिया

उन्होंने सार बात बताई और सबसे बड़ी व्यावहारिक बात प्रेम करना और भक्तों में आगे बढ़ना सिखाया। उनका मत प्रेमाभक्ति का था। उनके जमाने में जितने लोग आए उनका उन्होंने उद्धार किया। उनको नाम दिया। प्रेम की शक्ति से उनको ओत-प्रोत किया और भक्ति के आदर्शों में ढाल दिया। लेकिन उन संतों के बाद निरंतर एक धार जारी रही नहीं और संत समय-समय पर देश के विभिन्न भागों में अवतरित होते रहे। राधास्वामी दयाल ने न केवल स्वयं अवतार धारण किया है बल्कि अपनी निज धार को भी यहां व्यवस्थित कर दिया है।