रूमानीयत से भरे गायन की एक अलग ही विधा है ‘छल्ला’

रूमानीयत से भरे गायन की एक अलग ही विधा है ‘छल्ला’

साहित्य


“छल्ला के इतने संस्करण क्यों रख रखे हैं?” ईशा ने रोष की प्लेलिस्ट देखते हुए पूछा|

“क्योंकि हैं इसके कई संस्करण और पेरोडी,” रोष ने सरलता से कहा| “और मेरे पास रखे हर संस्करण में कोई न कोई ख़ास बात है| इस लोकगीत से बस प्यार है मुझे|”

“1970 के दशक के पाकिस्तानी लोक गायकों शौकत अली, इनायत अली और आलम लोहार के शब्दों के फेर बदल पसंद हैं मुझे| शौकत अली की आवाज़, और अलम के बेटे, आरिफ लौहार, का अंदाज़ पसंद है|”

“हिन्दुस्तानी गायकों में गुरदास मान, रब्बी शेरगिल और कंवर ग्रेवाल के किये बोलों में हेर फेर भी मुझे पसंद हैं| गुरदास मान के ‘छल्ला’ गाते हुए, स्टेज पर किये लाइव प्रदर्शन तो लाजवाब हैं|”

“पेरोडियों में, हाल ही में बनी ‘छल्ला इन चंडीगढ़’ मज़ेदार है| लेकिन आज भी इस लोक गीत के मौलिक बोल मुझे वैसे ही छू लेते हैं, जैसे ये मुझे मेरे निर्माणात्मक सालों में छू लिया करते थे|”

“वैसे तो ये गीत शायद लगभग सौ साल पुराना है| एक बार इसे गाते हुए, गुरदास मान ने कहा था कि ये लोक गीत सांदल बार से है, जो अब पाकिस्तान में है|”

“इतना पुराना?” ईशा को हैरत हुई|

“हाँ,” उसने हामी भरी| “1934 में HMV ने ’नौटंकी’ (जो बाद में ‘पाकिस्तान थिएटर’ कहलाया) के मालिक, फज़ल शाह के लिखे, इस गीत के एक संस्करण की एल.पी. (रिकॉर्ड) निकाली थी, जिसमें संगीत उसकी पत्नी अम्मान इकबाल ने दिया था, और गाया उनके दत्तक पुत्र आशिक हुसैन जट्ट ने था|”

“और बताओ इसके बारे में,” ईशा की जिज्ञासा अचानक जाग उठी|

“परंपरागत हिन्दुस्तानी काव्य में पहले दो लाइनें होती हैं, जिन्हें मुखड़ा कहते हैं| अक्सर इसके बाद चार लाइन के पद होते हैं, जिन्हें अंतरा कहते हैं| लेकिन ‘छल्ला’ एक अलग ही विधा (genre) है – जिसमें तीन लाइन के पैरा के बाद दो पंक्तियाँ हैं| तो हमारी पारंपरिक कविताओं के छः लाइनों के छन्द की जगह, पांच लाइनों के छंद|”

“कहते हैं कि छल्ला एक मल्लाह का बेटा था, जो यात्रियों को दरिया पार कराने ले जाते हुए अपनी पहली ही यात्रा में डूब गया था| गया इसलिए, क्योंकि उस दिन केवट इतना बीमार था कि चप्पू चलाने की स्थिति में नहीं था|”

“चुनांचे यात्रियों ने खेवट से विनती की कि उस दिन उन्हें दरिया पार कराने, वह अपने बेटे को भेज दे अपनी जगह| बाप हिचकिचाया, लेकिन किशोर ने ज़िद की| कल्पना करो फर्माबरदार लड़का अपने बाप से जाने के लिए झगड़ रहा है| और फिर, उसकी मौत! दिख जाएगा, कि इस गीत के बोल दिल को चीर क्यों देते हैं|”

“दूसरे संस्करण और पेरोडियों में, छल्ला सिर्फ एक अंगूठी है, जो कि पंजाबी में उसे कहा भी जाता है, जो एक आशिक ने अपनी महबूबा को अपने इश्क की निशानी की तरह दी है|”

“एक मुंदरी सबसे साधारण आभूषण होती है, लेकिन जब उँगली में किसी की मुहब्बत की बतौर निशानी पहनी जाए, तो सबसे बेशकीमती गहना बन जाती है|”

“फिर फर्क नहीं पड़ता कि वो चांदी की है या सोने की, लोहे की है या पीतल की| पहनने वाले के लिए उसकी कीमत इस बात में होती है कि वो सदा उसे उसके प्रेमी की भावना, छवि और प्यार की याद दिलाती है|”

“अजीब बात ये है कि रूमानीयत में भी ये गाना छूता है मुझे| जब ‘छल्ला’ को ‘अंगूठी’– प्यार की एक निशानी – समझकर भी मैं ये गाना सुनता हूँ, तो भी एक बिरहन (विरहणी) अपने आशिक के तोहफे से बात करती नज़र आती है मुझे, उसे अपनी पीर सुनाती| असर वही है, दर्द वही है…”

“तो मुझे तो लौकिक और अलौकिक (दुनियावी और रूहानी), दोनों ही परिस्थितियों में इस गीत के बोल असरदार लगते हैं| गीत शुरू होता है:”

जावो नी कोई मोड़ ल्यावो, मेरे नाळ गया अज लड़ के

“जाओ, जाके उसे कोई वापिस बुला लाओ| आज मुझसे लड़ के गया है वो|”

अल्लाह करे आ जावे जे सोणा, देवां जान कदमाँ विच धर के

“खुदा करे कि वो वापिस आ जाए, ताकि उसके कदमों पे जान निछावर कर सकूं मैं|”

“बाकी तर्जुमा मैं ‘छल्ला’, मांझी के मरे बेटे की बाबत करता हूँ, क्योंकि आम तौर पर ये गीत सुनते हुए मुझे उसी का ख़याल रहता है| क्या कह रहा है उसका पिता:”

छल्ला बेरी बुर ए
वतन माही दा दूर ए
जाणा पहले पुर ए

“छल्ला तो अभी कली था केवल, फल पका नहीं था| दिलबर का वतन दूर था, और वहां जाना तो पहले मुझे था|”

गल सुण छल्लेया चोरा
दिल नू ल्याया ए झोरा

“मेरी बात सुन छल्ले, चोर कहीं के (सुकून का चोर), दिल को ये कैसा गम लगा दिया तूने|”

छल्ला नौ-नौ खेवे
पुत्तर मिठड़े मेवे
अल्लाह जिस नू देवे

“छल्ला नौ-नौ को पार कराने चला (यानि कितना कर्तव्यनिष्ठ, आत्मविश्वासी, परवाह करने वाला और मज़बूत था वो)| लड़के कितने मीठे मेवे होते हैं माँ-बाप के (भोगने के) लिए, जिन्हें भी भगवान ऐसे देता है|”

छल्ला चीची पाया
धीयाँ धन जे पराया

“माँ-बाप की ज़िन्दगी को संवारते-सजाते, जैसे उनकी छोटी ऊँगली से लिपटे छल्ले हों| लड़कियाँ तो पराया धन ही होती हैं (क्योंकि परंपरा ये है कि शादी के बाद लड़की अपना मायका छोड़ कर पति के साथ रहने ससुराल चली जाती है)|”

“बाद के संस्करणों में, अल्लाह जिस नू देवे बदल कर अल्लाह सब नू देवे हो गया (यानि ईश्वर लड़के सबको दे)| गणित में तेज़ पंजाबी के लिए, लड़के पालना अपने घर और अपने बुढ़ापे में निवेश करना हो गया, जबकि लड़की पालना किसी और की समृद्धि में निवेश करने जैसा हो गया|”

“अगर ऐसे कन्या-विरुद्ध फलसफे के चलते, लड़के लड़कियों से ज़्यादा प्यारे हो गए, तो आश्चर्य कैसा? उसी मिटटी में, जहाँ माई भागो जैसी सिख्नियों ने अकसर युद्ध में सेनाओं का नेतृत्व किया था, सिखों का नर-नारी अनुपात भारत-भर में सबसे ज़्यादा बिगड़ गया (900 महिलाएँ प्रति 1000 पुरुष)|”

“1980 के दशक के खालिस्तानी अलगाववाद के बाद, मौत और उत्पीड़न से बचने के लिए पुरुष बड़ी तादाद में पंजाब से निकल भागे| कँवर ग्रेवाल ने इस स्थिति की ओर इशारा करते हुए, अपने संस्करण में, अल्लाह सब नू देवे को बदल कर धीयाँ (ही) सब नू देवे गाया (मतलब, प्रभु लड़कियाँ ही सबको दे)| वो कहता है:”

छल्ला नौ-नौ खेवे
पुत्तर मिट्ठे मेवे
धीयाँ (ही) सब नू देवे

“छल्ला कर्त्तव्य-परायण, आत्मविश्वासी, परवाह करने वाला और मज़बूत था, नौ-नौ को पार कराने चला| लड़के मीठे मेवे होते हैं माँ-बाप के लिए| पर ऊपरवाला सबको लड़कियां ही दे|”

“सुनने में ज़रा अजीब लगता है न? उसका इशारा समझने के लिए उसकी बात और सुनो| ग्रेवाल कहता है:”

बूहे भेड़ के रौन्दियाँ मावां, जिन्नां दे पुत टुर्गे दुनिया तों
कीनुं दिल दा मैं हाल सुनावां, जिन्नां दे पुत तुर्गे दुनिया तों

“जिनके बेटे दुनिया छोड़ गए, वो माएँ बंद दरवाज़ों के पीछे छिप कर रोती हैं| किस को अपने दुखड़े सुनाएँ वो?”

“आज पंजाब शांत है, मगर वहाँ से किशोरों का निकलना अभी भी जारी है – अब उत्प्रवास के लिए| पंजाब के छोटे-छोटे गाँवों में, सड़कें युवकों से खाली हैं| ज़्यादातर युवक एक बेहतर ज़िन्दगी की तलाश में, देश छोड़कर, अमरीका, ऑस्ट्रेलिया, यूरोप और कनाडा रहने चले गए हैं|”

“इनमें से बहुत कम हमेशा के लिए लौटते हैं| पीछे छूट गए हैं गाँव, जिनमें से युवा पुरुषों की एक पूरी पीढ़ी ही गायब हो गयी है| गाँव, जहाँ डर के मारे, औरत अब रात को अकेली नहीं चल सकती| क्योंकि उसे अब आदमी की हिफाज़त मयस्सर नहीं|”

“और जहाँ बूढ़े, अपनी बड़ी हवेलियों में अकेले अपने लिए जद्दोजहद कर रहे हैं| इस उम्मीद में, कि मरने से पहले अपने बच्चों को वो एक बार और देख पायें|”

“लम्बी जुदाई भी तो एक तरीके से मौत ही है| मौत एक रिश्ते की, दोनों पक्षों के जिंदा होने के बावजूद| आज, छल्ला ज़िन्दा है| लेकिन जाकर बसा इतनी दूर है, कि देस में अपने परिवार के लिए तो वो, मरे जैसा ही है|”

“ठीक ही तो है फिर, अगर ग्रेवाल दुआ कर रहा है, कि दाता पंजाब को केवल बेटियों के ही तोहफे दे…”

-राजीव वाधवा

Dr. Bhanu Pratap Singh