Dadaji maharaj agra

राधास्वामी गुरु Dadaji Maharaj के अनमोल बचन -24: गुरु को निहारने की चाह पैदा करें

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राधास्वामी मत (Radhasoami Faith) के प्रवर्तक परम पुरुष पूरन धनी स्वामीजी महाराज (Soamiji Maharai) और परम पुरुष पूरन धनी हजूर महाराज (Hazur maharaj) ने इस नश्वर संसार में इस बात के लिए अवतार धारण किया कि जीवों का उद्धार हो सके। उन्होंने जीवों पर अनोखी दया लुटाई, बचन बानी के माध्यम से जीवों को अपने चरनों में खींचा, चेताया और उनका कारज बनाया। उन्होंने गुरुभक्ति और सतगुरु सेवा पर भी विशेष बल दिया और स्पष्ट रूप से कह दिया कि जब तक संपूर्ण जगत का उद्धार नहीं होता, धार की कार्यवाही निरंतर जारी रहेगी, वक्त के गुरु जीवों को चेताते रहेंगे। तब से लेकर आज तक यह सिलसिला जारी है और हजूर महाराज के घर हजूरी भवन, पीपल मंडी, आगरा (Hazuri Bhawan, Peepal mandi, Agra) में वर्तमान सतगुरु दादाजी महाराज (Radhasoami guru Dadaji maharaj) जीवों पर अपनी दया फरमा रहे हैं, उनका भाग जगा रहे हैं। दादा जी महाराज (Prof Agam Prasad Mathur foemer Vice chancellor Agra university) अपने सतसंग (Radhasoami satsang) में नित्य नवीन बचन फरमाते हैं जिससे यह जीव चेते और चरनों में लगे। उन्हीं बचनों में से कुछ अप्रकाशित वचन पुस्तिका ‘दादा की दात’ में जीवों के कल्याण के वास्ते दिए गए हैं। ये वचन न केवल जीवों के प्रीत प्रतीत को बढ़ाएंगे वरन उनका कारज भी बनाएंगे। यहां हम प्रस्तुत कर रहे हैं दादाजी महाराज के बचनों की श्रृंखला।

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सब लोगों को राधास्वामी दयाल और संत सतगुरु की सच्ची सरन ग्रहण करनी चाहिए। इसमें फायदा है। मदद भी मिल रही है, दात भी है और जो कठिनाइयां हैं उनको जिक्र करके सुलझाया भी जा सकता है और उनके दर्शन मात्र से मन और चित्त संसार की तरफ से उदास होगा। उनको बराबर निहारने की चाह पैदा करनी चाहिए। इसको दुनिया के लोगों को देखने से नहीं मिलाना चाहिए। संतों की तरफ देखना निहारना कहलाता है और दुनिया की तरफ देखना फसाना कहलाता है, फसाना भी और फंसाना भी। फंसते भी हैं और उसके बाद फसाने भी बहुत होते हैं। कोई काम किया हो न किया हो, जरा किसी ने कदम बढ़ाया हो तो उसकी निंदा अधिक होती है। अब स्वामी जी महाराज ने फरमाया कि सतसंग में वही जीव जाएगा जो अधिकारी है। सतसंग में बैठने का अन-अधिकारी का कोई काम नहीं है। यह भी फरमाया कि उनके दरबार में कोई चौकीदार और पहरा नहीं रहता। तब आगे फरमाया कि निंदा ही चौकीदारी का काम कर देती है। जो निंदा से डरते हैं वह नहीं जाते और जिनको निंदा की परवाह नहीं है वह संतों के सतसंग में शामिल होते हैं और बिना किसी डर के दर्शन करते हैं, वचन सुनते हैं। जितना हो सके संतों का दर्शन करना चाहिए, दृष्टि से दृष्टि मिलानी चाहिए, उन हाव-भाव को देखना चाहिए कि जो समय पर दया करके वह दिखाते हैं, वह रूप भी बदलते हैं और स्वरूप में भी तरह-तरह की रोशनी पैदा करते हैं। देखो हजूर महाराज के स्वरूप को, सादी पोशाक में देखो, मारवाड़ी पोशाक में देखो, सिंधी पोशाक में देखो, राजस्थानी पोशाक में देखो, बंगाली पोशाक में देखो और फिर आगरे की पोशाक में देखो। हर रूप में अलग आकर्षण है। इसी तरह से जब तक तुम को अपने वक्त के सतगुरु से प्रीत और प्रतीत पूरी नहीं होगी और निडरता से सत्संग नहीं करोगे, किसी की चिंता ना करके, न नेक नामी से डरना है, न बदनामी से डरना है तो ऐसा कर लिया, तब फिर कभी उनके संग से खाली नहीं रहोगे, वो तुमको परमार्थी दौलत से भर देंगे।

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अपने प्रीतम से प्यार कीजिए, प्यार करना सीखो और यह तो दात है। जैसी-जैसी प्रीत और प्रतीत अपने गुरु के अंदर आपकी बढ़ती जाएगी वैसे-वैसे आपको उनकी कदर और पहचान अंतर में आवेगी। उनके बाहर के आचरण से भी आपको पता लगेगा कि वह अपने आप में मगन रहते हैं और दुनिया की हालातों में विचलित नहीं होते। एक संतुलन बनाए रखते हैं। यह बिना मालिक के चरनों को प्रेम पैदा हुए नहीं होता। इसलिए सब की प्रीत और प्रतीत राधास्वामी दयाल के चरनों में दृढ़ और मजबूत होनी चाहिए, नंबर एक, और अपने गुरु के साथ जितना हो सके प्रेमभाव कीजिए और वह जो उनसे प्रेम करते हैं या प्यार करने की कोशिश करते हैं उनको भी अपना मित्र समझिए। दुनिया में इसका उल्टा है। दुनिया में ईर्ष्या और विरोध पैदा होता है और वह गंदी प्रवृत्तियों की ओर जाता है, खोट पैदा होता है और खोट जब पैदा होता है, तब उससे नाकिस से नाकिस कर्म बन जाते हैं। इसलिए उन सबको जो राधास्वामी दयाल की चरन शरन में आए हैं और जिनको अपने गुरु से थोड़ी बहुत भी प्रीत हुई है. तो फिर उनको प्रीतम समझिए, सर्व ज्ञान का भंडार समझिए। उनकी नजर तो हमेशा प्रेम भरी है, वह तो प्रेम के साक्षात अवतार हैं। जो उनके साथ प्रीत और प्रतीत लगाएंगे तो फिर स्वयं अपने आप में परिवर्तन महसूस करेंगे। हैवानियत की वृत्तियां धीरे-धीरे नष्ट होती जाएंगी और एक दिन आप निर्मल हो जाएंगे। इसी तरह से संसार की चाहें भी धीरे-धीरे कम होती जाएंगी और एक अपने गुरु के अलावा, उनके दर्शन के अलावा और कोई चाह बाकी नहीं रहेगी। यह सब सतसंग से होगा। भजन सुनने से होगा। सबसे बढ़कर उनके दर्शन करने से होगा। अपने आप को उनके हवाले करने से होगा। जैसा भी कहें उसमें राजी, जैसा वह करें उसमें राजी, रजामंदी आपसे आप पैदा होती है। तो यह दात है और उस दात को पाने के लिए थोड़ा सा उनका डर और अदब जरूरी है। उनका डर, उनके साथ उनके साथ प्रीत और प्रतीत, यह वह गुण हैं जिन्हें एक सतसंगी को सतसंग करने के साथ ग्रहण करना चाहिए।