प्राकृतिक आपदा कहकर नहीं आती। वैसे हमेशा ही आपदा का ख़तरा रहता था परन्तु अब अंधाधुंध वृक्षों की कटाई, मिट्टी का दुरुपयोग और प्लास्टिक प्रदूषण, ध्वनि, जल और वायु प्रदूषण ये सब हम लोग अपने वजूद को खतरे में डाल रहे हैं। इसके जोखिम को कम करने तथा पूरी दुनिया में आपदा को लेकर जागरूक करने के लिए हर साल 13 अक्तूबर को अंतरराष्ट्रीय प्राकृतिक आपदा न्यूनीकरण दिवस मनाया जाता है। इसकी शुरुआत वर्ष 2009 से हुई। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने अक्तूबर के दूसरे बुधवार को प्राकृतिक आपदा को कम करने के अंतरराष्ट्रीय प्रयासों का पालन करने का निर्णय लिया। बाद में इसमें संशोधन कर 13 अक्तूबर की तिथि तय की गई। हर वर्ष चर्चा होती है कि प्रकृति से छेड़छाड़ को अगर न रोका गया तो पृथ्वी पर जीवों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा।
हम देख रहे हैं पूरा विश्व ग्लोबल वार्मिंग के साथ तमाम तरह की प्राकृतिक आपदाओं से हर वर्ष भारी जान माल का नुकसान रहता है। चाहे बाढ़ के रूप में या भूकंप या अत्यधिक वर्षा के रूप में या ज्वालामुखी फूटने के रूप में या कई तरह की बीमारियों के रूप में या इस वर्ष कोविड-19 जैसी महामारी के रूप में हमें इन आपदाओं का सामना करना पड़ता है। कुछवर्ष पूर्व आए भूकंप के झटकों से नेपाल अभी तक नहीं उबर पाया है। भारत में केदारनाथ की आपदा में आगरा के परिवार ने भी नुक़सान उठाया था। दो साल पहले हुई वर्षा के बाद आगरा की तस्वीर याद आते ही रूह काँप जाती जाती है। आज के दिन नागरिकों प्रण लें कि वह नेचर से खिलवाड़ नहीं करेंगे। प्राकृतिक आपदा आने पर वह अपनी जान और माल की हिफाजत किस तरह से करें, यह भी सीखना चाहिए।
विश्व आपदा न्यूनतम दिवस की सार्थकता तभी है जब देश का प्रत्येक नागरिक अपने कर्तव्य के साथ जिम्मेदारी के साथ सरकार का साथ दे। साथ ही पानी, ऊर्जा आदि खर्च कम करे। पशु, पक्षी, जंगल,पेड़, पहाड़ ना काटे। वायु, जल, ध्वनि प्रदूषण न करे। अगर प्राकृतिक संसाधानों का अंधाधुंध दोहन न रुका तो क्या पता हम स्वयं ही इस आपदा के शिकार हो जाएं और प्राकृतिक मृत्यु से वंचित रहे। अपने देश के साथ अपने परिवार को भी संकट में डाल दें। किसी ने सच कहा है– प्रिवेंशन इस बेटर देन क्योर।
राजीव गुप्ता जनस्नेही
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