Dr bhanu Pratap singh

‘नेता जी अपनी इज्जत बचाते हैं, इसलिए कलक्टरेट नहीं आते हैं’, डॉ. भानु प्रताप सिंह से कलक्टरेट टकराई और अपनी व्यथा सुनाई

लेख साहित्य

डॉ. भानु प्रताप सिंह
Live Story Time

पिछले दिनों मैं कलक्टरेट गया। आगरा में एमजी रोड वाली कलक्टरेट गया। शस्त्र लाइसेंस का नवीनीकरण करवाना था, इसलिए जरूरी जाना था। असलाह बाबू से मुलाकात की, शस्त्र लाइसेंस के संबंध में बात की। उन्होंने फीस बताई, मैंने नकद चुकाई। कलक्ट्रेट का संयुक्त कार्यालय बड़ा सूना सा लगा, यह देख मुझे चूना सा लगा। संयुक्त कार्यालय के बाहर अजब नजारा, नहीं दिखा कोई प्यारा। कलक्टरी कचहरी में जनता से अधिक वकील जिनकी आँखों से चमक गायब, मैं दंग रह गया साहब। फिर मैंने इधर-उधर नजर दौड़ाई, कोई भी नेता नहीं दिया दिखाई। न सुना जिंदाबाद, न सुना मुर्दाबाद। न प्रदर्शन न धरना, न कहना न सुनना। कलक्टर कार्यालय के बाहर चपरासी जी मुझे देख मुस्कराये, कहने लगे बड़े दिनों बाद आए।

कलक्टरेट का हाल देखकर मैं हो गया हैरान, मैं हो गया परेशान। मैंने सवाल किया- हे कलक्टरेट तुम्हें क्या हो गया है, तुम्हारा जलवा कहां खो गया है। मैंने वो दौर देखा है जब हर पार्टी का नेता मत्था टेकने आता था, संग में सौ-पचास आदमी लाता था। खूब नारेबाजी होती थी, प्रशासनिक मशीनरी नहीं सोती थी। सपा हो या बसपा, कांग्रेस हो या भाजपा। रालोद हो या आम आदमी पार्टी, एआईएमआईएम हो या कम्युनिस्ट पार्टी। सब तुम्हारे दर पर आया करते थे, अफसरों से भिड़ जाया करते थे। पुलिस के डंडे खाया करते थे और धीरे-धीरे नेता जी बन जाया करते थे। राजा भी कलक्टरेट आते थे, अफसरों को चेताते थे।

मेरी बात सुनकर कलक्टरेट की आँख भर आई, अपनी दर्द भरी कथा सुनाई। पत्रकार साहब! मैं जिले की शान हुआ करती थी, मटक-मटक कर चला करती थी। तुर्रम खां भी मेरे दर पर मत्था टेकने आते थे और मुझे बड़े भाते थे। सांसद हो या विधायक, मेयर हो या पार्षद, मंत्री हो या संतरी, सबका मेरे दर पर आना था जरूरी। संयुक्त कार्यालय में तो दिन भर चहल-पहल रहती थी और मैं खुला खेल देखती रहती थी। जे.ए. बाबू को पुलिस वाले भी पैसा देते थे, वे पुलिस वाले जो सबसे रिश्वत लेते थे। ऐसी शान थी मेरी, ऐसी आन थी मेरी।

जब से आगरा को पुलिस कमिश्नरेट बनाया है, मेरी शान में बट्टा लगाया है। मजिस्ट्रेट साहब धारा 144 लगाते थे, 151 में चालान करवाते थे, धारा 107/116, गुंडा एक्ट गैंगस्टर एक्ट वालों की बाट लगाते थे। पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, विदेशी नागरिक अधिनियम, विस्फोटक अधिनियम, गुंडा नियंत्रण अधिनियम, कारागार अधिनियम, अनैतिक व्यापार निवारण अधिनियम, पुलिस अधिनियम, गैर कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम विष अधिनियम के केस सब मेरे यहां आते थे और पटल सहायक मौज मनाते थे। ये सब सीपी, डीसीपी, एसीपी के गुल्लू है और और मेरे मजिस्ट्रेटों के पास तो बाबा जी का ठुल्लू है।

बेचारे मजिस्ट्रेट धारा 144 तक लगा नहीं सकते, पुलिस वालों पर कोई हुक्म चला नहीं सकते। पहले पुलिस वाले मजिस्ट्रेट को सलाम करने आते थे, दीवाली पर मिठाई का डिब्बा भिजवाते थे। पुलिस मुठभेड़ की जांच मेरे मजिस्ट्रेट करते थे, इसलिए पुलिस वाले डरते थे। फर्जी मुठभेड़ में कहीं फँस न जाएं, सो मजिस्ट्रेट साहब को सलाम कर आएं।

भला को डीसीपी सिटी के चक्कर में कुछ लोग आते रहते हैं, थानों से पीड़ित अपना दर्द सुनाते रहते हैं। वकीलों की भरमार है और उन्हें जनता की दरकार है। जनता आए तो काम मिले, जैसे पथिक को गाम मिले। किसी तरह अपना स्टेटस बचाए हुए हैं, बेरौनक कलक्टरेट से घबराए हुए हैं।

मैंने पूछा- कलक्टरेट जी, सही-सही बात बताइए, इस तरह की बातों में न उलझाइए। तुम्हें कलक्टर की कसम, तुम्हें डीसीपी सिटी की कसम। यह सुन कलक्ट्रेट मुस्कराई और सच्ची बात बताई। सुनिए पत्रकार जी, पहले कलक्टरेट में नेता जी आते थे तो अधिकारी घबरा जाते थे। आम आदमी का भी मान होता था, साथ में वकील साहब हों तो अधिक सम्मान होता था। नेता जी की कोई सुने तो वे आएं, अपनी बात बताएं। लेखपाल तक तो नेताजी को आँखें दिखाता है, काम उसी का जिससे कुछ पाता है। इसलिए जनप्रतिनिधि अपनी इज्जत बचाते हैं इसलिए कलक्टरेट नहीं आते हैं।

(डॉ. भानु प्रताप सिंह ने अमर उजाला, दैनिक जागरण और हिन्दुस्तान अखबार के लिए लगातार 16 वर्ष तक कलक्ट्रेट की रिपोर्टिंग की है।)

Dr. Bhanu Pratap Singh