bazir akbarabadi

बसंत पंचमी पर पर अपने नजीर अकबराबादी को याद करना जरूरी है, यहां पढ़िए पूरी जानकारी

लेख साहित्य

नजीर अकबराबादी एसे जनकवि थे, जिन्होंने युगीन चुनौतियों का सामना किया। अपनी रचनाधर्मिता को सत्ता और सामंतों के मनोरंजन की वस्तु न बना कर आम आदमी की बात उसी की ही सरल, सहज भाषा में व्यक्त की । उन्होंने तत्कालीन समय में अधिकांश शायरों द्वारा मान्य प्राचीन जीवन-मूल्यों और काव्य रूढ़ियों का विरोध किया। उनके जीवन का एक ही लक्ष्य था, आम इंसान को अपनी रचनाओं से प्रभावित करना। उनके शायरी की महत्वपूर्ण विशेषता यह भी रही कि रचनाओं के माध्यम से उन्होंने तत्कालीन सामाजिक, सांस्कृतिक परिस्थितियों व सामान्य नागरिक के जीवन का ऐसा चित्रांकन किया है कि वह अपने युग का इतिहास बन गई है।

शायर मियां नजीर का जन्म दिल्ली में सन् 1735 ई. में हुआ। इनके पिता का नाम मुहम्मद फारुख था। सन् 1738 को दिल्ली नादिरशाह के आक्रमण से तहस-नहस हो गई। अत: बहुत सारे लोगों की तरह नजीर को भी दिल्ली छोड़ना पड़ा। वे अपनी मां और नानी के साथ आगरा में नूरी दरवाजा मोहल्ले में रहने लगे। इनका विवाह ताजगंज निवासी मुहम्मद रहमान खान की पुत्री तहव्वरुन्निसा से हुआ। वे आठ भाषाओं के अतिरिक्त चित्रकारी भी जानते थे। इनकी काव्य और चित्रकला से प्रभावित होकर भरतपुर के राजा और अवध के नवाब सआदत अली खां ने अपने यहां आमंत्रित भी किया, परन्तु उन्होंने आगरा छोड़ने से इंकार कर दिया।

मौज-मस्ती के स्वभाव से परिपूर्ण नजीर ने अपने जीवन का भरपूर आनन्द लिया। अध्यापन कार्य से ही वे जीविकोपार्जन करते थे और मात्र 17 रुपये मासिक के उपार्जन में ही अपने परिवार का भरण-पोषण तो करते थे, ठाठ के साथ आते-जाते। रास्ते में भी लोगों को अपनी रचनाएं सुना कर उनकी फरमाइशें पूरी करते थे।

16 अगस्त 1830 ई. में उनका देहावसान पक्षाघात के कारण हो गया। उस समय उनकी आयु लगभग 95 वर्ष थी। इस दीर्घायु में उन्होंने दो लाख से अधिक शेर लिखे, परन्तु वे उनका कोई संग्रह नहीं कर सके। छह हजार शेर ही उनके शिष्यों के पास से उपलब्ध हो सके थे। उप्र हिन्दी संस्थान ने डॉ. नजीर मोहम्मद द्वारा सम्पादित समग्र नजीर साहित्य का प्रकाशन किया था। उसमें ये शेर शामिल किये जा सके थे।

तत्कालीन रचनाकारों की रूढ़िवादिता पर प्रहार करने के कारण साहित्यकारों ने नजीर को शायर माना ही नहीं। फलस्वरूप सौ वर्ष तक उनकी रचनाएं दबी पड़ी रहीं। बीसवीं शताब्दी के मध्य काल में जब उनकी काव्य प्रतिभा मुखरित हुई तो वे उच्च शिखर पर जा पहुंचे। उनकी खोज की गई रचनाएं व पाण्डुलिपियां आज भी दिल्ली विश्वविद्यालय के ‘पाण्डुलिपि विभाग में सुरक्षित हैं।

प्रख्यात शायर नजीर का काव्य आगरा की समृद्धि,खुशहाली, मस्ती, मजाक पर केंद्रित रहा। उन्हें रचना के सृजन में कभी हिचकिचाहट व दुविधा शिकार नहीं होना पड़ा। उन्होंने जो भी लिखा, उसी में वे विमग्न हो गए थे। आगरा की मिट्टी के कण-कण से प्रेम करने वाले ने नजीर ने आगरा व स्वयं को जोड़ते हुए लिखा-

आशिक कहो, असीर कहो, आगरे का है,

मुल्ला कहो, हबीर कहो, आगरे का है।

मुफलिस कहो, फकीर कहो, आगरे का है,

शायर कहो, नजीर कहो, आगरे का है।

जिस नगरी में दूध की नदियां बहा करती थीं, उसमें भुखमरी, तंगी और तमाम प्रकार की विपन्नताएं प्रभावी हो गई थीं। यह सिमट सा गया था-

अब तो जरा सा गांव है,

बेटी न दे इसे,

लगता था वरना, चीन का दामाद आगरा।

सार्वभौमिक प्रेम का सन्देश देने वाले इस जनकवि ने गुरुनानक की अरदास की तो ईसा मसीह के गुण भी गाये। सूफी संतों से दुआयें मांगी। भगवान श्रीकृष्ण की जन्म भूमि मथुरा में भी वे कई महीने रहे और संस्कृति, धर्म को गहराई से पहचाना। ग्वाल-वालों के अधरों की मिठास को लेकर उन्होंने ब्रजभाषा में भी अपनी रचनाओं का सृजन किया। उनकी ये पंक्तियां आध्यात्मिक जगत से जुड़े लोग आज भी गुनगुना उठते हैं-

यह लीला उस नंद ललन की

मनमोहन जसुमत मैय्या की,

रख ध्यान सुनो दण्डौत करो,

जय बोलो किशन कन्हैया की।

नन्द और जसोदा के मन में

सुध भूली-बिसरी फिर आई,

सुख-चैन हुए दुख भूल गये,

कुछ दान और पुण्य की ठहराई।

सब ब्रजवासिन के हृदय में आनन्द,

खुशी उस जम छाई,

उस रोज उन्होंने यह थी

नजीर’ इक लीला दिखलाई।

नजीर के साहित्य में मनुष्य के सुख-दुख, सपने और दर्द भी शामिल हैं।

नजीर की रचनाओं का प्रभाव उस समय जन मानस पर इतना अधिक पड़ा कि लोगों को उनकी रचनाएं कंठस्थ हो गई थीं। घर-घर में उनके गीत गूंजते थे। फाल्गुन मास के लगते ही मदमस्त युवक नजीर के होली गीतों को झांछ मंजीरों और लोहे के कड़े को बजाते बाजारों से गुजरते थे। जिसमें हिन्दू-मुसलमान सभी शामिल होते थे-

 

इस दम तो मियां हम तुम इस ऐश की ठहरावें,

फिर रंग से हाथों में पिचकारियां चमकावें ।

कपड़ों को भिगो डालें और ढंग कई लावें,

भीगे कपड़ों से आपस में लिपट जावें।

 होली में यही धूम लगती है बहुत भलियां।

‘मुफलिसी’ शीर्षक रचना में उन्होंने निम्न वर्ग के लोगों की करुण स्थिति का वर्णन करके झकझोर कर रख दिया है-

जब आदमी के हाल पे आती है मुफलिसी,

किस-किस तरह से उसको सताती है मुफलिसी।

प्यासा तमाम रोज बिठाती है मुफलिसी,

भूखा तमाम रात सुलाती है मुफलिसी।

यह दुख वो जाने जिसपे कि आती मुफलिसी ।

पैदा न होवे जिसके जलाने को लकड़ियां,

दरिया में उनके मुर्दे बहाती है मुफलिसी।

जीवन का अंतिम सत्य है, मृत्यु। ‘सामान सौ वर्ष का, पल की खबर नहीं के आधार पर लिखी रचना ‘बंजारानामा’ में जीवन के उन सुखों को त्यागने की सद्भावनाएं जागृत करने का आह्वान नजीर ने किया है, जिनसे प्रत्येक मनुष्य का इतना अधिक मोह-हो जाता है कि छूटना असंभव है। वे लिखते हैं-

धन, दौलत, नाती, पोता क्या

ये कुनबा काम न आयेगा।

सब ठाठ पड़ा रहा जायेगा,

जब लाद चलेगा बंजारा।

जमीन पर खड़े होकर धरती के ही गीत ग़ाने वाले कवि नजीर ने मानव जीवन की शायद ही कोई वस्तु छोड़ी हो, जिस पर उन्होंने अपनी कलम नहीं चलाई। जिन्दगी की प्रमुख आवश्यकता रोटियों पर उन्होंने रचना लिखी है। रोटी का कब, किस पर क्या प्रभाव पड़ता है, उसका रोचक वर्णन किया है-

जब आदमी के पेट में आती हैं रोटियां,

फूली नहीं बदन में समाती हैं रोटियां।

आंखें परी-रूखों से लड़ाती है रोटियां,

सीने ऊपर भी हाथ चलाती हैं रोटियां।

‘आदमीनामा’ शीर्षक से लिखी रचना में मनुष्य की छोटी-छोटी आदतों की चर्चा करते हुए सत्कर्म करने का अनुरोध किया गया है-

मस्जिद भी आदमी ने बनाई है या मियां

बनते हैं आदमी ही इमाम और खुत्वा-ख्वां

पढ़ते हैं आदमी ही कुरान और नमाज यां

और आदमी ही उनकी चुराते हैं जूतियां

वो उनको ताड़ता है, सो है वह भी आदमी’

मियां नजीर ने शब्दों के शिल्प का ऐसा चमत्कार दिखाया है कि अपने जमाने के समारोहों-पर्वों का सजीव चित्रांकन ही प्रस्तुत कर दिया है। आगरा के प्राचीन तैराकी मेले का शब्द चित्र आकर्षक है-

हर आन बोलते हैं, सैय्यद कबीर की जै,

फिर उसके बाद अपने उस्ताद पीर की जै।

मोरो मुकुट कन्हैया, जमुना के तीर की जै,

फिर गोल के सब अपने खुदा कबीर की

जय ।

हर दम ये कर खुशी की गुफ्तार पैरते हैं,

इस आगरे में क्या-क्या ये यार पैरते हैं।’

शायद नजीर ने अपने जीवन काल में जैसा देखा, समझा या भोगा, उसे बड़ी सहजता के साथ अंकित कर दिया। बरसात, बरसात की बहारें, चांदनी रात, आंधी-भूचाल भी उनके काव्य से नहीं बच सके हैं। जवानी, बुढापा, तन्दुरुस्तीनामा पर भी चर्चा की है। होली, दीवाली, ईद, दाऊजी का मेला आदि पर भी शब्द चित्र प्रस्तुत किये हैं।

मशहूर शायर फिराक गोरखपुरी ने नजीर के बारे में लिखा है कि केवल नजीर में ही यह दम था, कि वे जिन्दगी को बिना माथे पर शिकन लाये, बिना शोर, शिकवा या शिकायत के स्वीकार कर सकें। उन्होंने पूरे आनंद के साथ जीवन यापन किया। हालांकि वे इसकी सीमाओं को भी अच्छी तरह जानते थे।

जनकवि नजीर की मृत्यु के बाद ताजगंज में उन्हें दफनाया गया। उनकी मजार पर प्रत्येक वर्ष वसन्त पंचमी पर मेले का आयोजन होता है। इस संबंध में भारतीय जन नाट्य संघ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राजेन्द्र रघुवंशी ने बताया था सन् 1930 में आरती-नमाज के सांप्रदायिक संघर्ष के पश्चात सद्भावना कायम रखने के लिए वसन्त पंचमी को एक जुलूस दोनों सम्प्रदाय के लोगों ने संयुक्त रूप से निकाला तथा मजार पर एक मेला आयोजित करके हिन्दू-मुसलमानों ने नजीर की कविताओं का पाठ किया। तभी से प्रत्येक वर्ष वसन्त पंचनी को नजीर मेला आयोजित किया जाने लगा। यह मेला सादा एवं भव्य होता था।

मजार के समीप दूर-दराज से नजीर के प्रशंसक आते और रचनाओं का पाठ करते। यह मेला बज्मे नजीर, इप्टा व महापालिका के सहयोग से होता है। मेले की विधिवत शुरूआत में पं. राजनाथ कुंजरू, पं. ब्रजनाथ शर्मा गोस्वामी, गुरुमुख राय टण्डन, मैकश अकबराबादी, पं. देवीप्रसाद शर्मा ‘दिव्य’ आदि का योगदान अविस्मरणीय है।

विश्व के अनेक देशों में भी जिस शायर पर शोध किये जा रहे हैं, उस शायर को आगरा ने क्या दिया, यह जगजाहिर है। ताजगंज में उनकी मजार उपेक्षित पड़ी है। अनेक बार मंत्रियों, सांसदों व विधायकों ने इसकी रक्षा-सुरक्षा की घोषणायें की, परन्तु उसका अभी तक सुंदरीकरण नहीं हुआ। उनके साहित्य के लिए न कोई संग्रहालय है, न कोई स्मारक। आगरा कीसंस्था ‘फैक्ट’ ने स्थानीय स्तर पर मियां नजीर पर एक फिल्म बनाई थी। दूरदर्शन के लिए सईद नकवी ने टेली सीरियल’, ‘हमारी परम्परा’ को तैयार किया, तब नजीर पर धारावाहिक बनाया गया, जिसमें ‘फैक्ट’ की उस फिल्म के एक दृश्य को शामिल किया गया था। यह धारावाहिक दूरदर्शन पर समय-समय प्रसारित होकर उनकी याद दिलाता रहता है। इप्टा ने बसन्त वर्मा व

साथियों द्वारा गाई नजीर की होलियों का ओडियो कैसिट बनाया था। सरकार बुक डिपो ने मकबूल अर्शी द्वारा सम्पादित ‘होली के रंग-नजीर के संग’ तथा उर्दू में नजीर की कुछ चुनी हुई कविताओं का संग्रह प्रकाशित किया था। योगेन्द्र गोस्वामी ने ‘नजीर काव्य संग्रह’ शीर्षक से पंडित उमाशंकर शास्त्री की पुस्तक प्रकाशित की, जिसकी सारी प्रतियां बिक गई थीं। डा. प्रणवीर चौहान ने नजीर की रचनाओं का संग्रह तैयार किया था। सेंट जॉन्स कालेज में उर्दू विभाग के पूर्व प्रवक्ता डा. ए. ए फातिमी ने नजीर की शायरी और वसन्त मेले पर पुस्तक लिथी थी, जो भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में पसन्द की गई।

हिन्दी भाषी क्षेत्र के कई सांस्कृतिक दलों ने नजीर की रचनाएं तैयार की, जिनमें मधुकरी (भोपाल), पटना व जयपुर इप्टा के नाम उल्लेखनीय है।

आदर्श नंदन गुप्त

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

 

Dr. Bhanu Pratap Singh