प्राचीन समय की बात है। एक शहर में दो ब्राह्मण पुत्र रहते थे, एक गरीब था और दूसरा अमीर। दोनों पड़ोसी थे। गरीब ब्राम्हण की पत्नी उसे रोज़ ताने देती और झगड़ती।
एकादशी के दिन गरीब ब्राह्मण पुत्र झगड़ों से तंग आकर जंगल की ओर चल पड़ता है, ये सोच कर कि जंगल में शेर या कोई जंगली जानवर उसे मार कर खा जायेगा, उसका पेट भर जायेगा और मरने से रोज की झिक- झिक से मुक्त हो जायेगा। जंगल में पहुंचते ही उसे एक गुफ़ा नज़र आती है। वो उस गुफ़ा की तरफ़ जाता है। गुफ़ा में एक शेर सोया हुआ था और शेर की नींद में ख़लल न पड़े इसके लिये हंस का पहरा था।
हंस ज़ब दूर से ब्राह्मण पुत्र को आता देखता है तो चिंता में पड़कर सोचता है..ये ब्राह्मण आयेगा, शेर जागेगा और इसे मारकर खा जायेगा। एकादशी के दिन मुझे पाप लगेगा। इसे बचायें कैसे? उसे उपाय सूझता है और वो शेर के भाग्य की तारीफ़ करते हुए कहता है- ओ जंगल के राजा! उठो, जागो, आज आपके भाग्य खुले हैं, एकादशी के दिन खुद विप्र- देव आपके घर पधारे हैं, जल्दी उठें और इन्हें दक्षिणा दें; रवाना करें; आपका मोक्ष हो जायेगा। ये दिन दुबारा आपकी जिंदगी में शायद ही आये, आपको पशु-योनी से छुटकारा मिल जायेगा।
शेर दहाड़ कर उठता है, हंस की बात उसे सही लगती है और पूर्व में शिकार मनुष्यों के गहने वो ब्राह्मण के पैरों में रखकर शीश नवाता है, जीभ से उनके पैर चाटता है।
हंस ब्राह्मण को इशारा करता है कि विप्रदेव! ये सब गहने उठाओ और जितना जल्दी हो सके, वापस अपने घर जाओ; ये शेर है; कब मन बदल जाए। ब्राह्मण बात समझकर घर लौट जाता है। पड़ोसी अमीर ब्राह्मण की पत्नी को जब सब पता चलता है तो वो भी अपने पति को जबरदस्ती अगली एकादशी को जंगल में उसी शेर की गुफा की ओर भेजती है।
अब शेर का पहरेदार बदल जाता है। नया पहरेदार होता है कौवा। जैसे कौवे की प्रवृति होती है वो सोचता है- बढ़िया है, ब्राह्मण आया है। अब शेर को जगाऊं तो शेर की नींद में ख़लल पड़ेगी, गुस्साएगा, ब्राह्मण को मारेगा, तो कुछ मेरे भी हाथ लगेगा, मेरा पेट भर जायेगास, ये सोचकर वो कांव-कांव- कांव चिल्लाता है। एक ओर तो शेर गुस्सा होकर जागता है और दूसरी ओर ब्राह्मण पर उसकी नज़र पड़ती है, उसे हंस की बात याद आ जाती है। वो समझ जाता है, कौवा क्यूं कांव- कांव कर रहा है।
शेर अपने पूर्व में हंस के कहने पर किये गये धर्म को खत्म नहीं करना चाहता फिर भी; शेर, शेर होता है जंगल का राजा और दहाड़ कर ब्राह्मण को कहता है-
हंस उड़ सरवर गये और अब काग भये प्रधान
थे तो विप्र थारे घरे जाओ, मैं किनाइनी जिजमान.
अर्थात हंस; जो अच्छी सोच वाले, अच्छी मनोवृत्ति वाले थे उड़कर सरोवर (यानि तालाब) को चले गये हैं और अब कौवा प्रधान पहरेदार है जो मुझे तुम्हें मारने के लिये उकसा रहा है। मेरी बुद्धि घूमे; उससे पहले ही, हे ब्राह्मण यहां से चले जाओ। शेर किसी का जजमान नहीं हुआ है। वो तो हंस था जिसने मुझ (शेर) से भी पुण्य करवा दिया।
ब्राह्मण सारी बात समझ जाता है और डर के मारे तुरंत प्राण बचाकर अपने घर की ओर भाग जाता है।
सीख
कहने का मतलब है कि हंस और कौवा कोई और नहीं, हमारे ही चरित्र हैं। कोई किसी का दुख देखकर दुखी होता है और उसका भला सोचता है, वो हंस है। जो किसी को दु:खी देखना चाहता है, किसी का सुख जिसे सहन नहीं होता; वो कौवा है। जो आपस में मिल-जुल कर, भाईचारे से रहना चाहते हैं; वे हंस प्रवृत्ति के हैं। जो झगड़े करके एक दूजे को मारने लूटने की प्रवृत्ति रखते हैं वे कौवे की प्रवृत्ति के हैं। घर, परिवार, स्कूल, संगठन अथवा कार्यालय में जो भी किसी साथी कर्मी की गलती को बढ़ा चढ़ाकर बताते हैं, उस पर कार्यवाही करने के लिए उकसाते हैं., वे कौवे जैसे हैं और जो किसी साथी- कर्मी की गलती पर भी बड़ा-मन रख कर माफ करने को कहते हैं, वे हंस प्रवृत्ति के हैं। अपने आस-पास छिपे बैठे कौवों को पहचानो, उनसे दूर रहो और जो हंस प्रवृत्ति के हैं, उनका साथ दो और सम्मान करो, इसी में सब का कल्याण छिपा हुआ है।
प्रस्तुतिः राजेश खुराना, अध्यक्ष आत्मनिर्भर- एक प्रयास।
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