जन्‍मदिन विशेष: शायर, गीतकार और पटकथा लेखक जावेद अख़्तर

साहित्य


मुंबई। शायर, गीतकार और पटकथा लेखक जावेद अख़्तर का जन्‍म 17 जनवरी 1945 को ग्‍वालियर (मध्‍य प्रदेश) में हुआ था। पिता जां निसार अख्तर जाने-माने कवि और मां सफिया अख्तर उर्दू की टीचर थीं। जावेद का बचपन बड़ी मुश्किल में बीता, छोटी उम्र में ही मां का आंचल सर से उठ गया और उसके बाद वह लखनऊ में कुछ समय अपने नाना-नानी के घर पर रहे। बाद में उन्हें अलीगढ़ में अपने खाला के घर भेज दिया गया, जहां के स्कूल में उनकी शुरुआती पढ़ाई-लिखाई हुई।
पद्म भूषण से सम्मानित जावेद अख़्तर ने दो निकाह किये हैं। उनकी पहली पत्नी से दो बच्चे हैं- फरहान अख़्तर और ज़ोया अख़्तर। फरहान पेशे से फिल्म निर्माता, निर्देशक, अभिनेता और गायक हैं जबकि जोया भी निर्देशक के रूप में अपने करियर कि शुरुआत कर चुकी हैं। उनकी दूसरी पत्नी फिल्म अभिनेत्री शबाना आजमी हैं।

जावेद अख़्तर के काव्य संग्रह हैं- ”तरकश” और ”लावा” ।

प्रस्तुत है जावेद अख़्तर की 3 चुनिंदा ग़ज़लें-

ब-ज़ाहिर क्या है जो हासिल नहीं है
मगर ये तो मिरी मंज़िल नहीं है

ये तूदा रेत का है बीच दरिया
ये बह जाएगा ये साहिल नहीं है

बहुत आसान है पहचान उस की
अगर दुखता नहीं तो दिल नहीं है

मुसाफ़िर वो अजब है कारवाँ में
कि जो हमराह है शामिल नहीं है

बस इक मक़्तूल ही मक़्तूल कब है
बस इक क़ातिल ही तो क़ातिल नहीं है

कभी तो रात को तुम रात कह दो
ये काम इतना भी अब मुश्किल नहीं है

जब आईना कोई देखो इक अजनबी देखो
कहाँ पे लाई है तुम को ये ज़िंदगी देखो

मोहब्बतों में कहाँ अपने वास्ते फ़ुर्सत
जिसे भी चाहे वो चाहे मिरी ख़ुशी देखो

जो हो सके तो ज़ियादा ही चाहना मुझ को
कभी जो मेरी मोहब्बत में कुछ कमी देखो

जो दूर जाए तो ग़म है जो पास आए तो दर्द
न जाने क्या है वो कम्बख़्त आदमी देखो

उजाला तो नहीं कह सकते इस को हम लेकिन
ज़रा सी कम तो हुई है ये तीरगी देखो

निगल गए सब की सब समुंदर ज़मीं बची अब कहीं नहीं है
बचाते हम अपनी जान जिस में वो कश्ती भी अब कहीं नहीं है

बहुत दिनों बा’द पाई फ़ुर्सत तो मैं ने ख़ुद को पलट के देखा
मगर मैं पहचानता था जिस को वो आदमी अब कहीं नहीं है

गुज़र गया वक़्त दिल पे लिख कर न जाने कैसी अजीब बातें
वरक़ पलटता हूँ मैं जो दिल के तो सादगी अब कहीं नहीं है

वो आग बरसी है दोपहर में कि सारे मंज़र झुलस गए हैं
यहाँ सवेरे जो ताज़गी थी वो ताज़गी अब कहीं नहीं है

तुम अपने क़स्बों में जा के देखो वहाँ भी अब शहर ही बसे हैं
कि ढूँढते हो जो ज़िंदगी तुम वो ज़िंदगी अब कहीं नहीं है

-एजेंसियां

Dr. Bhanu Pratap Singh