18 फरवरी को जैन संत आचार्य विद्यासागर जी महाराज चिर समाधि में लीन हो गए थे. आचार्य विद्यासागर महाराज कुछ समय से अस्वस्थ चल रहे थे. उन्होंने रात ढाई बजे समाधि ली थी. छत्तीसगढ़ के डोंगरगढ़ स्थित चन्द्रगिरी तीर्थ पर उन्होंने अंतिम सांस ली.
जैन समाज के नियमानुसार उनका अंतिम संस्कार किया गया. अंतिम संस्कार से पहले महाराज जी को डोली पर बैठाकर उनकी अंतिम यात्रा निकाली गई. आचार्य विद्यासागर के अंतिम संस्कार के बाद से जैन समाज के नियमों को लेकर अन्य धर्म के लोगों में जिज्ञासा देखने को मिल रही है. कुछ लोगों का कहना है कि जैन समाज में मुनियों के अंतिम संस्कार को लेकर बोलियां लगाई जाती हैं. क्योंकि जैन मुनियों का भव्य स्वागत-सत्कार किसी से छिपा नहीं है. जब कोई जैन मुनि आचार्य किसी नगर में प्रवेश करते हैं तो उनके स्वागत में हेलिकॉप्टर से पुष्प वर्षा होती है. यहां हम जैन समाज खासकर जैन मुनियों से जुड़े कुछ नियम और संस्कारों के बारे में विस्तार से चर्चा कर रहे हैं.
क्षुल्लक और ऐलक
जैन धर्म में साधुओं की 11 भूमिकाओं का उल्लेख किया गया है. इन 11 भूमिकाओं में शीर्ष भूमिका क्षुल्लक मानी जाती है. क्षुल्लक यानी छोटा. इसमें भी क्षुल्लक और ऐलक होते हैं. क्षुल्लक और ऐलक दोनों ही साधु भोजन के लिए भिक्षावृत्ति करते हैं. क्षुल्लक साधु अपने साथ एक कोपीन और एक चादर रखते हैं, जबकि ऐलक केवल कोपीन रखते हैं और हथेलियों की अंजुलि में भोजन करते हैं. ऐलक केशलौंच करते हैं.
सल्लेखना, समाधि या संथारा
जैन मुनि सल्लेखना के माध्यम से अपनी देह त्यागते हैं. इसे समाधि लेना या संथारा भी कहते हैं. यह मृत्यु को निकट जानकर अपनाई जाने वाली एक प्रथा है. इसमें जब जैन साधु या साधवी को लगता है कि वह मौत के करीब है तो वह खाना-पीना त्याग देते हैं. दिगम्बर जैन समाज में इसे समाधि या सल्लेखना कहा जाता है और श्वेतांबर में संथारा कहा जाता है.
डोली में बैठाकर अंतिम यात्रा
संथारा के माध्यम से देह त्यागने वाले जैन मुनियों का अंतिम संस्कार लिटा कर नहीं बल्कि बैठाकर किया जाता है. देह त्याग चुके मुनि के पार्थिक शरीर को एक डोली में बैठाकर उनकी अंतिम यात्रा निकाली जाती है. पार्थिक शरीर को लकड़ी की कुर्सीनुमा पालकी में बैठाकर बांध दिया जाता है. देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि मुनिजी ध्यान मुद्रा में बैठे ईश्वर का मनन कर रहे हैं.
जैन धर्म में त्याग की शिक्षा देता है. इंद्रियों पर विजय प्राप्त करके ही कोई जैन मुनि बन सकता है. जैन धर्म संदेश देता है कि इस जगत की समस्त चीजें मोहमाया है. इनका त्याग करके ही ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है. इसलिए शरीर के प्रति भी वैराग्य पैदा करके ही कोई व्यक्ति कठिन साधना के बाद जैन मुनि बन सकता है.
अंतिम यात्रा की बोली
ऐसा कहा जाता है कि जैन मुनि की अंतिम यात्रा में शामिल होने के लिए लोग बोली लगाते हैं. हालांकि, कुछ लोग इस बात से सिरे से इंकार भी करते हैं. कुछ लोगों का कहना है कि अंतिम संस्कार में लोग स्वेच्छा से दान करते हैं और इस दान मिले पैसों का इस्तेमाल सामाजिक कार्यों और गरीबों के कल्याण में किया जाता है. इस प्रकार कहा जाता है कि जैन मुनि की अंतिम यात्रा में कंधा देने के लिए लोग बोली लगाते हैं. ये बातें केवल चर्चा का विषय हैं. इनका लिखित उल्लेख कहीं नहीं मिलता है.
– एजेंसी
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