नक्सलवाद के लिए ही नहीं, संगीत की देवभूमि के रूप में भी जाना जाता है बस्‍तर

नक्सलवाद के लिए ही नहीं, संगीत की देवभूमि के रूप में भी जाना जाता है बस्‍तर

साहित्य


बस्तर पूरी दुनिया में नक्सलवाद के लिए जाना जाता है। यहां चलने वाली हर एक गोली की आवाज दूर दिल्ली तक सुनाई देती है लेकिन इन तमाम चुनौतियों के बीच गोलियों से कहीं अलग एक संयुक्त आवाज दुनिया में गूंज रही है। वो कह रही है कि बस्तर संगीत की देवभूमि है। कला का विश्वविद्यालय है। इसे इस रूप में स्थापित करने वाले रंगकर्मी अनूप रंजन पांडेय को भारत सरकार ने उनके इसी योगदान के लिए पद्मश्री देकर सम्‍मानित किया है। अब गोलियों की आवाज को ढोल दबा रहे हैं…।
बस्तर के 200 से अधिक वाद्ययंत्र बंदूकों पर भारी पड़ रहे हैं…। अनूप रंजन का ‘बस्तर बैंड’ संगीत की दुनिया में तहलका मचा रहा है। एक अखबार से बातचीत में पद्मश्री अनूप रंजन कहते हैं- ‘वे पद्मश्री का सम्मान करते हैं, लेकिन यह मंजिल नहीं। बस्तर को समझने के लिए एक जिंदगी काफी नहीं। सीखने, सिखाने का दौर जारी है। देखते हैं कहां तक जाता है।’
बता दें कि अनूप ही वह शख्स हैं जिन्होंने विलुप्ति के मुहाने पर खड़े बस्तर के संगीत, वाद्ययंत्रों की नव-जीवन दिया। उन्होंने अखबार से विस्तार पूर्वक चर्चा की, जीवन के हर दौर के बारे में बताया।
रिपोर्टर- रंगमंच की ओर रुझान बढ़ा है। क्या कोई पारिवारिक पृष्ठभूमि थी या आप स्वयं से आगे बढ़े?
अनूप रंजन- मेरे भाई आलोक रंजन अच्छे रंगकर्मी रहे हैं। वे ही शुरुआती दिनों में मेरे आदर्श रहे। उनसे ही बहुत कुछ सीखने को मिला। जहां तक लोक गीत, भजन की बात है तो यह है मां से। मेरी मां मनोरमा पांडेय भजन की आर्काइव हैं। स्कूलों में, सोशल एक्टीविटी में प्रस्तुति देते-देते मैं हबीब साहब के नया थिएटर से जुड़ा और फिर उन्हीं के मार्गदर्शन में बढ़ता चला गया। किसी ने कहा है- ‘मैंने झुककर तिनके को छुआ, फिर मैंने देखा तो लगा आसमां को पा लिया है…’।
रिपोर्टर- कभी दिल नहीं किया कि मुंबई की मायानगरी में किस्मत आजमाएं?
अनूप रंजन- ऑफर तो कई थे। मैंने शुरुआत में डीडी नेशनल के प्रोग्राम में लीड रोल किया, जिसमें बड़े कलाकार थे लेकिन माटी की खुशबू ने खींच लिया, जो दिल्ली-मुंबई में नहीं है। ‘न्यूटन’ के दौरान निर्देशक मेरे संपर्क में थे। मेरा मानना है कि मैंने आज जो कुछ भी उपलब्धि हासिल की, वह राज्य के बाहर रहकर हासिल कर पाना मुमकिन नहीं था। इसलिए उन सभी कलाकारों का शुक्रिया, जो मेरे साथ जुड़े हैं, जिन्होंने मेरा मार्गदर्शन किया।
रिपोर्टर- वाद्ययंत्रों को लेकर रुचि कहां से जागृत हुई? बस्तर बैंड तक के सफर के बारे में बताएं, इसकी लोकप्रियता धूम मचा रही है
अनूप रंजन- मुझे शौकिया ही इंस्ट्रूमेंट (वाद्ययंत्र) को कलेक्ट करने का शौक रहा है। 200 से अधिक वाद्ययंत्र मेरे कलेक्शन में हैं और सबकी अपनी खूबी है। यह सफर यूं तो तीन दशक पुराना है, लेकिन 20 साल से निरंतर मैं इनमें ही जी रहा हूं। बस्तर में आदिवासी लिंगोदेव को अपने संगीत का भगवान मानते हैं। मैं वहीं वाद्ययंत्रों की तलाश में गया और उन्होंने ही मुझे आकर्षित किया। फिर मुझे लगा कि वाद्ययंत्रों को जानना और इन्हें सहेजकर इनकी प्रदर्शनी लगाना ही काफी नहीं है। इन्हें अभ्यास में ही आना चाहिए। यहीं से बस्तर बैंड की नींव पड़ी। वहीं के कलाकारों को प्रमोट किया।
रिपोर्टर- आपसे हमेशा सुना है कि आप ढोल को बचाने की कोशिश कर रहे हैं क्योंकि धीरे धीरे ढोल की संख्या कम हो रही है और बंदूकों की संख्या बढ़ती जा रही है? यह मुमकिन है कि बंदूक पर ढोल भारी पड़ सकता है?
अनूप रंजन- देखिए, बंदूक जीवन की धड़कन को विराम देती है और ढोल जीवन को विस्तार। हिंसा को हिंसा से नहीं जीत सकते। गोली का जवाब गोली नहीं है। अगर वहां के युवाओं को अनुकूल वातावरण मिले तो वे बहुत आगे बढ़ सकते हैं।
जानें अनूप रंजन के बारे में
तीन दशक से भी अधिक समय से लोक रंगमंच में सक्रिय अनूप ने छत्तीसगढ़ी लोकनाट्य परंपरा रहस लीला एवं नाचा से शुरुआत की। 1988-89 में दिल्ली में स्थापित प्रख्यात रंगकर्मी हबीब तनवीर की नाट्य मंडली नया थियेटर में बतौर अभिनेता शामिल हुए।
बरसों तनवीर साहब से निर्देशन में काम किया। रंगकर्म जारी रहा, इस दौरान हजारों लोकगीतों का संकलन किया। आपके संकलन में 143 नाचा के नकल हैं। 1930 के दशक से लेकर आज तक के नकल हैं। इसके बाद बस्तर बैंड की परिकल्पना आई।
इन देशों में हो चुकी है बस्तर बैंड की प्रस्तुति- भारत के साथ-साथ इंग्लैंड, जर्मनी, फ्रांस, हालैंड, इटली समेत यूरोपीय देशों के अलावा साउथ-ईस्ट एशिया और साउथ अफ्रीका में बस्तर बैंड की प्रस्तुति हो चुकी है।
बस्तर बैंड के प्रमुख वाद्य यंत्र
माडिया ढोल, तिरडुडी, अकुम, तोडी, तोरम, मोहिर, देव मोहिर, नंगूरा, तुडबुडी, कुण्डीड, धुरवा ढोल, डण्डार ढोल, गोती बाजा, मुण्डा बाजा, नरपराय, गुटापराय, मांदरी, मिरगीन ढोल, हुलकी मांदरी, कच टेहंडोर, पक टेहंडोर, उजीर, सुलुड, बांस, चरहे, पेन ढोल, ढुसीर, कीकीड, टुडरा, कोंडोडका, हिरनांग, झींटी, चिटकुल, किरकीचा, डंडा, धनकुल, तुपकी, सियाडी, वेद्दुर, गोगा ढोल आदि बस्तर बैंड के प्रमुख वाद्य यंत्र हैं। ये संगत स्वर थाप, लय, सुर में उन्मुक्त हैं। अनूप ने इन्हें विलुप्त होने से बचाया, साथ ही कलाकारों को प्रोत्साहित किया कि वे आगे आएं।
सम्मान
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय दिल्ली की जनजातीय महोत्सव सलाहकार समिति, संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार की विशेषज्ञ समिति, एसीटेज इंडिया के सदस्य रहे हैं अनूप रंजन। इटली के बोलोनिया में स्थित अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त नाट्य संस्थान ला-बराका थियेटर के आजीवन सदस्य हैं।
अनूप रंजन को संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार के सीनियर फेलोशिप, छत्तीसगढ़ सरकार ने लोक कला के सर्वोच्च सम्मान दाऊ मंदराजी से भी सम्मानित किया। बता दें कि अनूप रंजन के अलावा बस्तर बैंड के सात कलाकारों को राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। इनमें देवी अहिल्या बाई, उस्ताद विस्मिल्ला खां सम्मान प्रमुख रूप से शामिल हैं।
-एजेंसियां

Dr. Bhanu Pratap Singh