सुप्रीम कोर्ट ने AMU से पूछा, उसका अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा जायज कैसे?

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सुप्रीम कोर्ट ने एएमयू से पूछा कि उसका अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा आखिर कैसे जायज है, ये समझाइए। शीर्ष अदालत ने इस बात का खास तौर पर जिक्र किया कि एएमयू की 180 सदस्यीय गवर्निंग काउंसिल में महज 37 मुस्लिम सदस्य हैं।

दरअसल, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के ‘अल्पसंख्यक दर्जे’ का मामला फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में है। 7 जजों की पीठ में इसे लेकर मंगलवार को सुनवाई शुरू हुई और गुरुवार को (अज) सुनवाई का तीसरा दिन है। सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार ने दलील दी है कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी एक राष्ट्रीय संस्थान है, न कि अल्पसंख्यक संस्थान।

आखिर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर क्यों है विवाद?

भारत के संविधान के अनुच्छेद 30(1) में सभी धार्मिक और भाषायी अल्पसंख्यकों को शिक्षण संस्थान खोलने और चलाने का अधिकार दिया गया है। ये प्रावधान सरकार की तरफ से अल्पसंख्यक समुदायों के विकास को बढ़ावा देने के लिए किए गए हैं। इससे उन्हें शैक्षिक संस्थान या विश्वविद्यालय चलाने की स्वतंत्रता मिलती है। और ये भरोसा भी कि सरकार ‘अल्पसंख्यक संस्थान’ होने की वजह से उसे आर्थिक सहायता में कोई भेदभाव नहीं करेगी।

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कब और कैसे बनी अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी?

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की शुरुआत 1875 में मोहम्मदन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज से हुई थी। सर सैय्यद अहमद खान ने ये कॉलेज मुसलमानों की शिक्षा में पिछड़ेपन को दूर करने और सरकारी नौकरियों के लिए तैयार करने के लिए बनाया था। ये कॉलेज पश्चिमी शिक्षा के साथ-साथ दीन की तालीम भी देता था। सर सैय्यद महिला शिक्षा के भी हिमायती थे। 1920 में इस संस्थान को विश्वविद्यालय का दर्जा दिया गया और कॉलेज की सारी संपत्ति विश्वविद्यालय को दे दी गई।

AMU के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर कब उठा विवाद?

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर कानूनी विवाद की शुरुआत 1967 में हुई। ‘एस. अजीज बाशा और अन्य बनाम भारत संघ’ केस में AMU के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर पहली बार सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी। उस समय भारत के मुख्य न्यायाधीश केएन वांचू की अगुआई में कोर्ट ने 1920 के एएमयू ऐक्ट में 1951 और 1965 में किए गए बदलावों की समीक्षा की थी। इन बदलावों ने यूनिवर्सिटी को चलाने के तरीके को प्रभावित किया था।

सबसे पहले, 1920 के अधिनियम में कहा गया था कि भारत के गवर्नर जनरल विश्वविद्यालय के प्रमुख होंगे। लेकिन 1951 में इसे बदलकर ‘लॉर्ड रेक्टर’ के स्थान पर ‘विजिटर’ कर दिया गया और यह विजिटर भारत का राष्ट्रपति होता।

साथ ही, एक ऐसा प्रावधान हटा दिया गया, जिसमें कहा गया था कि केवल मुस्लिम ही यूनिवर्सिटी कोर्ट का हिस्सा बन सकते हैं। इसके बाद गैर-मुस्लिमों को भी शामिल होने की इजाजत मिली।

इन बदलावों ने यूनिवर्सिटी कोर्ट के अधिकार कम कर दिए और एएमयू की कार्यकारी परिषद की शक्तियों को बढ़ा दिया। नतीजतन, कोर्ट असल में ‘विजिटर’ की तरफ से नियुक्त निकाय बन गया।

एएमयू की संरचना में इन बदलावों को सुप्रीम कोर्ट में कानूनी चुनौती का सामना करना पड़ा। याचिकाकर्ताओं ने मुख्य रूप से इस आधार पर बहस की कि मुसलमानों ने एएमयू की स्थापना की थी और इसलिए इसे कैसे चलाया जाए, कैसे मैनेजमेंट किया जाए, ये उनका अधिकार है। इन संशोधनों की चुनौती पर विचार करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने 20 अक्टूबर, 1967 को कहा कि एएमयू की स्थापना न तो मुस्लिम अल्पसंख्यक ने की थी और न ही इसका प्रशासन उनसे हुआ था।

1967 के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे को नहीं दी मंजूरी

सुप्रीम कोर्ट ने 1967 के अपने फैसले में कहा कि एमएमयू अल्पसंख्यक दर्जे का संस्थान होने का दावा नहीं कर सकता। केंद्र सरकार ने भी सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपने हालिया हलफनामे में जोर देकर कहा है कि अजीज बाशा केस में सुप्रीम कोर्ट ने एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे को नहीं माना था। ये तो केंद्र के हलफनामे की बात हुई लेकिन कोर्ट का आखिर फैसला क्या था?

अजीज बाशा केस, 1967 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 1920 में मुसलमान भले ही यूनिवर्सिटी खोल लेते लेकिन उनकी डिग्रियों को सरकार मान्यता नहीं देती। इसलिए, कोर्ट ने जोर दिया, एएमयू को सरकारी कानून के जरिए बनाया गया था ताकि सरकार उसकी डिग्रियों को मान्यता दे। अदालत ने कहा कि भले ही मुस्लिमों की कोशिशों की वजह से कानून पास हुआ हो लेकिन ये कहना ठीक नहीं है कि 1920 के अधिनियम के तहत बने एएमयू की स्थापना मुस्लिम अल्पसंख्यक ने की थी।

साथ ही, सुप्रीम कोर्ट ने बताया कि 1920 के अधिनियम के हिसाब से, विश्वविद्यालय केवल मुसलमानों के जरिए नहीं चलाया जाता था। इसका प्रशासन “लॉर्ड रेक्टर” और अन्य वैधानिक निकायों को सौंपा गया था। यहां तक कि यूनिवर्सिटी कोर्ट में केवल मुस्लिम सदस्य होने के बावजूद, उन्हें चुनने वाला समूह पूरी तरह से मुस्लिम नहीं था, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने बताया।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलटने के लिए इंदिरा गांधी सरकार ने किया एएमयू एक्ट में बदलाव

अजीज बाशा केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद पूरे देश में मुसलमानों ने विरोध-प्रदर्शन किया। नतीजा ये हुआ कि तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार दबाव के आगे झुक गई और एएमयू अधिनियम में एक संशोधन लाया गया जो स्पष्ट रूप से इसके अल्पसंख्यक दर्जे की पुष्टि करता है। इस संशोधन में धारा 2(1) और उपधारा 5(2)(c) को जोड़ा, जिसमें कहा गया है कि विश्वविद्यालय ‘भारत के मुसलमानों द्वारा स्थापित उनकी पसंद का एक शिक्षण संस्थान’ है।

2005 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इंदिरा सरकार के कदम को बताया गैरसंवैधानिक

2005 में, एएमयू ने स्नातकोत्तर चिकित्सा पाठ्यक्रमों में 50% सीटें मुस्लिम उम्मीदवारों के लिए आरक्षित करते हुए एक आरक्षण नीति लागू की। इसे इलाहाबाद हाई कोर्ट में चुनौती दी गई थी, जिसने उसी वर्ष, आरक्षण को खारिज कर दिया और 1981 के अधिनियम को रद्द कर दिया। हाई कोर्ट ने 1981 के एएमयू अमेंडमेंट एक्ट को गैरसंवैधानिक घोषित करते हुए कहा कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है। कोर्ट ने तर्क दिया कि एएमयू विशेष आरक्षण बनाए नहीं रख सकता है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के एस. अजीज बाशा मामले के फैसले के अनुसार यह अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में योग्य नहीं है।

हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में दी गई है चुनौती, उसी पर चल रही सुनवाई

इसके बाद, 2006 में हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में कुल 8 याचिकाएं दाखिल हुईं जिनमें एक याचिका केंद्र सरकार की तरफ से है। उस समय केंद्र में मनमोहन सिंह की अगुआई में यूपीए की सरकार थी। हालांकि, 2014 में नरेंद्र मोदी की अगुआई में बीजेपी की सरकार आने के बाद एएमयू को लेकर केंद्र के रुख में बड़ा बदलाव आया। 2016 में नरेंद्र मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि वह केंद्र की तरफ से दायर अपील वापस ले रही है।

सरकार ने दलील दी कि वह एक धर्मनिरपेक्ष देश में किसी अल्पसंख्यक संस्थान की स्थापना करते हुए नहीं दिख सकती। 12 फरवरी, 2019 को, तत्कालीन सीजेआई रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली एक तीन-न्यायाधीश बेंच ने मामले को 7 जजों की बेंच के पास भेज दिया।

मंगलवार को सीजेआई डी. वाई. चंद्रचूड., जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस जेबी पार्दीवाला, जस्टिस दीपांकर दत्ता, जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा की बेंच ने इस मामले की सुनवाई शुरू की।

-एजेंसी

Dr. Bhanu Pratap Singh