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विश्व हिन्दी दिवसः जब हिन्दी में उत्तर लिखने पर एमबीए में शून्य अंक दिए गए, पढ़िए हिन्दी के चार किस्से

NATIONAL PRESS RELEASE REGIONAL लेख

आज विश्व हिन्दी दिवस है। मेरा भारत देश हिन्दी का उद्गम है। पूरे भारत में हिन्दी बोली और समझी जाती है। दक्षिण भारतीय भी हिन्दी खूब समझते हैं, बोलते नहीं है तो बात अलग है। पूरे विश्व में भारतीय हैं और वहां भी हिन्दी जीवित है। यहां मैं हिन्दी के बारे में आपको कोई ज्ञान नहीं दे रहा हूँ, हां ऐसे किस्से जरूर बताऊंगा जिन्होंने हिन्दी के लिए संघर्ष किया है। हिन्दी भाषी इन हस्तियों पर मान कर सकते हैं। अपनी बड़ाई अपने मुँह नहीं करनी चाहिए लेकिन हस्तियों में अंतिम पायदान पर मेरा नाम भी है।

पहला किस्सा

सबसे पहले मैं (डॉ. भानु प्रताप सिंह) अपनी बात करता हूँ। मैंने डॉ. भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय, आगरा (आगरा विश्वविद्यालय, आगरा) के सेठ पदमचंद जैन प्रबंध संस्थान से एमबीए किया। मैंने मन ही मन तय किया था कि हिन्दी माध्यम से परीक्षा दूंगा। प्रथम सत्र में यही किया। जब  परीक्षा परिणाम आया तो चौंक गया। प्रत्येक प्रश्नपत्र में शून्य अंक दिए गए थे। उत्तर इतने खराब नहीं थे कि शून्य अंक मिलें। मैंने संस्थान के निदेशक डॉ. बृजेश रावत से बातचीत की। उन्होंने जानकारी की तो पता चला कि हिन्दी में उत्तर लिखने के कारण शून्य अंक मिले हैं। मैं मन-मसोसकर रह गया। सोच भी नहीं सकता था कि मेरे ही देश में मेरी मातृभाषा हिन्दी का इतना बुरा हाल है। इसके बाद अमेरिकन इंग्लिश से लिखने वाली अंग्रेजी भी सीखी। अंग्रेजी में उत्तर लिखते ही कमाल हो गया। फिर तो हर सत्र में उत्तीर्ण हुआ। हिन्दी भाषा का यह अपमान आज तक नहीं भूलता हूँ।

दूसरा किस्सा

अमर उजाला के तत्कालीन संपादक श्री अजय अग्रवाल (भैयू जी) ने कहा कि पीएचडी (विद्या वाचस्पति) कर डालो। मैं फिर से डॉ. बृजेश रावत की शरण की आया। उस समय संस्थान के निदेशक  प्रो. एमआर बंसल थे। मैंने कहा कि पीएचडी हिन्दी माध्यम से करनी है तो वे चौंके। बोले ठीक है, लघु शोध प्रबंध (सिनोप्सिस) तैयार करो। इसे स्वीकृत करने के लिए विश्वविद्यालय रिसर्च डिग्री कमेटी की एक बैठक हुई। इसमें आईआईएम अहमदाबाद (गुजरात) से एक प्रोफेसर साहब आए थे। उन्होंने जैसे ही लघु शोध प्रबंध हिन्दी में देखा तो फेंक दिया और कहा- वॉट इज दिस रबिश। प्रो. बंसल ने समझाया कि हिन्दी में कार्य करने पर कोई रोक नहीं है। अहमदाबाद से आए प्रोफेसर साहब नहीं माने। अंत में प्रो. बंसल ने कहा- ‘सर, यह लड़का पत्रकार है, अगर आपने इसे स्वीकृत नहीं किया तो मेरे बारे में अखबार में रोज खबरें प्रकाशित करेगा।’ इस बात का प्रभाव पड़ा और लघु शोध प्रबंध स्वीकृत हो गया। यह किस्सा प्रोफेसर बंसल ने मुझे सुनाया था। मैं सोचता रह गया कि प्रबंधन में हिन्दी माध्यम से शोध करना गलत क्यों है?  खैर, मेरे नाम कीर्तिमान स्थापित हुआ कि प्रबंधन विषय में हिन्दी माध्यम से पहला शोध किया।

तीसरा किस्सा

मैं दिल्ली गया था। मेरे पास चार पहिया वाहन था। हिन्दी प्रेमी होने के कारण वाहन पर नम्बर हिन्दी में अंकित था। यातायात पुलिस के सिपाही ने मुझे पकड़ लिया। मैंने कहा कि सीट बेल्ट लगा रखी है। गति भी ठीक है, फिर क्यों रोका है। सिपाही बोला- ‘आपने अपने वाहन पर हिन्दी में नम्बर लिख रखा है। यह नियमों का उल्लंघन है। गाड़ी पर नम्बर अंग्रेजी में होना चाहिए।’ उसने चालान काटने के लिए अपनी किताब निकाली। फिर पता नहीं क्या हुआ कि उसे अचानक जाना पड़ा। चालान से बच गया लेकिन मैं यह सोचता रह गया कि हिन्दी भाषी देश में वाहन पर हिन्दी में नम्बर लिखना अपराध है, आखिर क्यों?

चतुर्थ किस्सा

डॉ. मुनीश्वर गुप्ता ने हिन्दी को मान महत्व प्रदान करने के लिए हिन्दी हित रक्षक समिति बनाई थी। उसमें मैं भी सक्रिय था। हिन्दी के लिए वे महाविद्यालयों के बाहर धरना-प्रदर्शन करते थे। यह बात 80 के दशक की है। धुन के पक्के डॉ. मुनीश्वर गुप्ता ने दिल्ली में आमरण अनशन किया और हिन्दी की पताका फहराई। आगरा के डॉ. मुनीश्वर गुप्ता, चन्द्रशेखर उपाध्याय, डॉ. जितेन्द्र चौहान ने हिन्दी माध्यम से पहला शोध करके एक कीर्तिमान स्थापित किया है।

बेकार में ही अंग्रेजी के शब्दों को हिन्दी में मत घुसेड़िए

दोस्तो, संघर्ष से राह मिलती है। अगर इन सबने तब हार मान ली होती तो कीर्तिमान नहीं बनता। अगर मैंने भी एमबीए में अनुत्तीर्ण किए जाने के बाद हार मान ली होती तो कीर्तिमान नहीं बना पाता। हिन्दी के नाम पर रोना बंद कीजिए। कुछ करिए। जहां हैं, वहीं करिए। स्वदेश में हों या विदेश में, अगर हिन्दी बोलने से काम चल रहा है तो हिन्दी में बोलिए। बेकार में ही अंग्रेजी के शब्दों को हिन्दी में मत घुसेड़िए। एक दिन वह भी आएगा जब आप सुनेंगे हिन्दी में सुनने के लिए एक और अंग्रेजी में जानकारी के लिए दो दबाएं। अंग्रेजी दां टीवी चैनल हिन्दी में आ गए हैं। धन्यवाद दीजिए अटल बिहारी वाजेपेयी, सुषमा स्वराज, मुलायम सिंह यादव को जिन्होंने विदेश में हिन्दी की पताका लहराई है। राधास्वामी मत के अधिष्ठाता प्रो. अगम प्रसाद माथुर (दादाजी महाराज) की तरह प्रण कीजिए कि हिन्दी में भी संभाषण करेंगे।

आमंत्रण पत्र तो हिन्दी में छपवा सकते हैं

हिन्दी विश्व में सर्वाधिक बोली जाती है। दुनिया की 10 शक्तिशाली भाषाओं में शुमार है। फिर हिन्दी बोलने में झिझक कैसी। सरकार के सहारे मत रहिए। सरकार तो अपनी गति से चलेगी। हमें ही कुछ करना होगा। कम से कम आमंत्रण पत्र अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी में तो छपवा ही सकते हैं। शेष बाद में।

डॉ. भानु प्रताप सिंह, आगरा

9412652233