राधास्वामी मत के अधिष्ठाता दादाजी महाराज जब कुलपति पद पर प्रथम बार आसीन हुए उस समय विश्वविद्यालय की प्रशासनिक, शैक्षिक एवं आर्थिक स्थिति अत्यंत सोचनीय थी। प्रशासन में अराजकता थी। अध्ययन- अध्यापन में शिथिलता आ गई थी। परीक्षाओं के परिणामों में अत्यधिक विलंब होता था। सत्र अनियमित हो चुका था। आर्थिक घाटा होने के कारण वित्तीय व्यवस्था चरमरा चुकी थी।
दादाजी महाराज विश्वविद्यालय के सभी पक्षों से परिचित थे और पूर्व से जानते थे कि समस्याओं का मूल कारण और उनका निदान क्या है। उन्होंने इनके निराकरण में व्यक्तिगत रूचि ली। अथक परिश्रम किया। प्रशासन, शिक्षा और वित्त की ओर समस्त ध्यान केंद्रित किया। उनकी आकांक्षा थी कि विश्वविद्यालय का गौरव अपने उच्च स्तर पर पहुंचे और उनका नाम अग्रिम पंक्ति में गिना जाए। इस कार्य में उन्होंने सर्वप्रथम विश्वविद्यालय अधिकारियों, कर्मचारियों, शिक्षकों एवं छात्रों में यह विश्वास उत्पन्न किया कि वे उनके हितों को सर्वोपरि प्राथमिकता देंगे। उन्होंने प्रशासन को चुस्त-दुरुस्त किया। सभी विभागों का प्रतिदिन निरीक्षण किया और प्रतिदिन सभी के कार्यकलापों का व्यक्तिगत ब्योरा प्राप्त किया व सुझाव आमंत्रित किए। इस कार्य हेतु उन्होंने लगभग प्रतिदिन प्रत्येक विभाग के अधिकारियों के साथ बैठक की। उनको कार्य करने के निर्देश दिए। उन्होंने हर समस्या के निदान में त्वरित निर्णय लिए और उनके क्रियान्वयन में समय पर बल दिया।
कर्मचारियों की समस्याओं और उनकी लंबित मांगों में व्यक्तिगत रुचि लेकर उनका संतोषजनक समाधान किया, जिसके परिणाम स्वरूप उनमें विश्वास और कर्तव्यनिष्ठता वह उत्साह जाग्रत हुआ। अतः कार्य में जो शिथिलता आ गई थी वह दूर हुई। इसी प्रकार दादा जी महाराज ने शिक्षकों व छात्रों की समस्याओं को ध्यानपूर्वक समझा और विश्वविद्यालय तथा महाविद्यालय में शैक्षणिक वातावरण स्थापित किया। शिक्षकों ने इसमें भरपूर सहयोग दिया।
दादा जी महाराज ने सत्र नियमन को अधिक महत्व देते हुए परीक्षाओं के परिणामों के विलंब को दूर करने के लिए योजना बनाई जिसमें यूनिट प्रणाली है उल्लेखनीय है। सत्र नियमन दादाजी महाराज के कार्यकाल की उल्लेखनीय उपलब्धि है। यह उनके अथक परिश्रम, प्रयास व रुचि का ही परिणाम था।
शोध व शिक्षाके स्तर को ऊंचा उठाने में दादाजी महाराज ने नवीन योजनाएं बनाईं और गुणवत्ता के आधार पर उनका विकास किया। उन्होंने बेसिक साइंस की स्थापना की। इसमें एमएससी, पीएचडी के पाठ्यक्रमों का समावेश किया। इस कार्य के लिए उन्होंने अपने व्यक्तिगत प्रभाव और प्रयासों से विश्वविद्यालय अनुदान आयोग सरकार से अनुदान प्राप्त किया और साथ ही उन्होंने इतिहास विभाग तथा लाइब्रेरी साइंस विभाग विभाग स्थापित किए।
दादाजी महाराज प्रथम कुलपति हैं जिन्होंने महाविद्यालय और विश्वविद्यालय में समन्वय स्थापित करने व उनकी समस्याओं के निराकरण करने के लिए कॉलेज डवलपमेंट काउंसिल की स्थापना की थी। दादाजी महाराज ने यूनिवर्सिटी हैंडबुक, जो 1970 के बाद नहीं छफी थी, छपवानेकी व्यवस्था की। नियमों को विधिवत संग्रह कर उनका पालन कराया।
कुलपति पद के दूसरे कार्यकाल (सन 1988-1991 ई.) में उन्होंने उन योजनाओं को कार्यरूप में परिणित किया जो प्रथम कार्यकाल काल के अनुभवों से उनके मस्तिष्क में थी। अपने व्यक्तित्व के अनुरूप उन्होंने प्रशासनिक दायित्व के निर्वहन में कर्मठता निष्ठा तथा साहस का प्रदर्शन किया और अनेक महत्वपूर्ण एवं मौलिक योजनाएं प्रारंभ कीं, जो इस प्रकार हैं – व्यवसायोन्मुख पाठ्यक्रम की योजना। यह सर्वथा उन्हीं की योजना थी, जो उनसे पूर्व किसी ने कभी नहीं सोची। इस योजना के अंतर्गत 24 पाठ्यक्रम थे जैसे- टूरिज्म, बिजनेस मैनेजमेंट, कंप्यूटर प्रोग्रामिंग, प्रौढ़ एवं सतत शिक्षा एवं विस्तार, अल्पसंख्यकों, अनुसूचित जातियों व जनजाति के छात्रों के लिए कोचिंग ( जहां आईएएस, पीसीएस, बैंक, सीपीएमटी, इंजीनियरिंग की प्रतियोगी परीक्षाओं की शिक्षा व्यवस्था है), जर्नलिज्म, ट्रांसलेशन इत्यादि। दादाजी महाराज का उद्देश्य बेरोजगार युवकों को रोजगार उपलब्ध कराना था। साथ ही इस योजना से विश्वविद्यालय की वित्तीय स्थिति में भी सुधार हुआ।
आगरा विश्वविद्यालय में उनके दोनों कार्यकाल में छात्रों, शिक्षकों एवं कर्मचारियों की कोई यूनियन नहीं बनी। जब पूरे उत्तर प्रदेश में एक माह कर्मचारियों की हड़ताल रही, तब आगरा विश्वविद्यालय अपना कार्य शांतिपूर्वक संपन्न करता रहा।
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