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Radhasoami Guru दादा जी महाराज के अनमोल बचन -54: पढ़ा-लिखा भी मूर्ख होता है

NATIONAL PRESS RELEASE REGIONAL RELIGION/ CULTURE

राधास्वामी मत (Radhasoami Faith) के प्रवर्तक परम पुरुष पूरन धनी स्वामीजी महाराज (Soamiji Maharai) और परम पुरुष पूरन धनी हजूर महाराज (Hazur maharaj) ने इस नश्वर संसार में इस बात के लिए अवतार धारण किया कि जीवों का उद्धार हो सके। उन्होंने जीवों पर अनोखी दया लुटाई, बचन बानी के माध्यम से जीवों को अपने चरनों में खींचा, चेताया और उनका कारज बनाया। उन्होंने गुरुभक्ति और सतगुरु सेवा पर भी विशेष बल दिया और स्पष्ट रूप से कह दिया कि जब तक संपूर्ण जगत का उद्धार नहीं होता, धार की कार्यवाही निरंतर जारी रहेगी, वक्त के गुरु जीवों को चेताते रहेंगे। तब से लेकर आज तक यह सिलसिला जारी है और हजूर महाराज के घर हजूरी भवन, पीपल मंडी, आगरा (Hazuri Bhawan, Peepal mandi, Agra) में वर्तमान सतगुरु दादाजी महाराज (Radha Soami guru Dadaji maharaj) जीवों पर अपनी दया फरमा रहे हैं, उनका भाग जगा रहे हैं। दादा जी महाराज (Prof Agam Prasad Mathur former Vice chancellor Agra university) अपने सतसंग (Radhasoami satsang) में नित्य नवीन बचन फरमाते हैं जिससे यह जीव चेते और चरनों में लगे। उन्हीं बचनों में से कुछ अप्रकाशित वचन पुस्तिका ‘दादा की दात’ में जीवों के कल्याण के वास्ते दिए गए हैं। ये वचन न केवल जीवों के प्रीत प्रतीत को बढ़ाएंगे वरन उनका कारज भी बनाएंगे। यहां हम प्रस्तुत कर रहे हैं दादाजी महाराज के बचनों की श्रृंखला।

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जान लीजिए आप अपने बल से सुरत को तीसरे तिल से आगे हिलाने की भी ताकत नहीं रखते। न मन की ताकत कुछ कर सकती है और न तन की ताकत। आप कुछ नहीं कर सकते। यह तो केवल संत सतगुरु कर सकते हैं। कभी-कभी लोग नहीं मानते। अंत समय पर मानते हैं लेकिन वह अच्छे हैं जिनको पहले से ही अनुभव आ जाए तो उनसे कुछ सेवा बन सकेगी। सेवा पर बहुत जोर दिया है। तन की सेवा, मन की सेवा, धन की सेवा, सुरत की सेवा। धन की सेवा बहुत जरूरी नहीं है। तन और मन की सेवा जरूरी है। जितने पढ़े-लिखे विद्वान हैं उनको सेवा करते हुए बहुत कम देखा गया है। यह उस वातावरण का प्रभाव है जिसमें कि वह काम करते हैं। उनको हेटी मालूम होती है कि यह कैसे करें। मूर्ख हैं वो। पढ़े लिखे मूर्ख इन्हीं को कहते हैं। तन, मन से सेवा करने वाले मालिक के भक्तों को इस दुनिया के लोगों की न तो निन्दा की चिंता है और न तारीफ और महिमा की। उनके लिए दोनों बराबर हैं क्योंकि किसी को दिल से प्यार करना इतना आसान नहीं है जितना समझ लेते हैं। कहीं न कहीं कोई न कोई स्वार्थ अटका रहता है। जितना जो विद्यावान है, उतना ही वह आपको गाफिल भी करता है और आपकी बुद्धि को बिल्कुल शून्य कर देता है। तर्क रह जाता है और कुछ नहीं बचता इंसान में। उल्टा शुष्क हो जाते हैं। फिर मालिक के प्रेम और दात से महरूम हो जाते हैं।

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हजूर महाराज को मानना टेक नहीं है क्योंकि उन्होंने सारी टेक, सारे बंधन तो कटवा दिए और सबको अपने चरनों में लगाया है। आसान भी नहीं है इतना हजूर महाराज के पास पहुंच पाना। चक्कर लगाते रहते हैं, इधर-उधर घूमते रहते हैं। इस गली में गुजर नहीं होता, मुश्किल काम है, आसान नहीं है अटक झेलना और झटक झेलना। कोई जोर-जबर्दस्ती इस मत में नहीं की जाती है। ना यहां पर किसी की जात पूछी जाती है, न किसी का देश पूछा जाता है। यहां तो प्रीत और प्रतीत की परख होती है। जो भी सामने आता था, हजूर महाराज दृष्टि डालते थे, वो खिंच जाता था। जिनको खींचना होता था उनके लिए बचन में आया है कि घर बैठे दर्शन दिए हैं, खैंचा है, चरनों में लगाया है। कोई करनी नहीं बनी तो भी पार लगाया है। उनकी गति-मति का क्या ठिकाना है। इसलिए परछाइयों से बचिए, असलियत को पहचानिए, क्योंकि परछाई जो पड़ती है वह मन का रूप होती है। जो आंखें हैं वह सत्त का नूर होता है। इसलिए आंख और माथे की तरफ दर्शन करने चाहिए। तीसरा तिल बातों से नहीं खुलता। मेहनत करनी पड़ेगी। कठोर परिश्रम करने के लिए तैयार हो जाइए। अभ्यास तो करना पड़ेगा। मन और चित्त को तो बाहर से हटाना पड़ेगा। जितना हो सके उतना इन अंगों के बरताव से खुद को बचा के रखना पड़ेगा। यह तो दया है कि उन्होंने कह दिया कि के काम करते रहो लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि आप चौबीसो घंटे उन्हीं अंगों में बरतते रहें।