दादाजी महाराज

राधास्वामी गुरु Dadaji maharaj के अनमोल बचन -72: मालिक उसी की मदद करेगा जो दीन-गरीब है

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राधास्वामी मत (Radhasoami Faith) के प्रवर्तक परम पुरुष पूरन धनी स्वामीजी महाराज (Soamiji Maharai) और परम पुरुष पूरन धनी हजूर महाराज (Hazur maharaj) ने इस नश्वर संसार में इस बात के लिए अवतार धारण किया कि जीवों का उद्धार हो सके। उन्होंने जीवों पर अनोखी दया लुटाई, बचन बानी के माध्यम से जीवों को अपने चरनों में खींचा, चेताया और उनका कारज बनाया। उन्होंने गुरुभक्ति और सतगुरु सेवा पर भी विशेष बल दिया और स्पष्ट रूप से कह दिया कि जब तक संपूर्ण जगत का उद्धार नहीं होता, धार की कार्यवाही निरंतर जारी रहेगी, वक्त के गुरु जीवों को चेताते रहेंगे। तब से लेकर आज तक यह सिलसिला जारी है और हजूर महाराज के घर हजूरी भवन, पीपल मंडी, आगरा (Hazuri Bhawan, Peepal mandi, Agra) में वर्तमान सतगुरु दादाजी महाराज (Radha Soami guru Dadaji maharaj) जीवों पर अपनी दया फरमा रहे हैं, उनका भाग जगा रहे हैं। दादा जी महाराज (Prof Agam Prasad Mathur former Vice chancellor Agra university) अपने सतसंग (Radhasoami satsang) में नित्य नवीन बचन फरमाते हैं जिससे यह जीव चेते और चरनों में लगे। उन्हीं बचनों में से कुछ अप्रकाशित वचन पुस्तिका ‘दादा की दात’ में जीवों के कल्याण के वास्ते दिए गए हैं। ये वचन न केवल जीवों के प्रीत प्रतीत को बढ़ाएंगे वरन उनका कारज भी बनाएंगे। यहां हम प्रस्तुत कर रहे हैं दादाजी महाराज के बचनों की श्रृंखला।

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मालिक उसी की मदद करेगा जो दीन-गरीब है। यह मत दीन-गरीबी का है। इसलिए हम लोगों को दीनता के साथ, प्यार के साथ, कम से कम एक दूसरे से व्यवहार करना चाहिए। जब हम एक दूसरे से अच्छा व्यवहार करेंगे तो हमारे हाथ से परोपकार ही होगा, दूसरे की भलाई होगी, दूसरे की बुराई और कटाई नहीं होगी। यह काट छांट करना, व्यंग्य करना, तान-तंज करना, एक दूसरे को सुखी न देखना, यही निपट नीच दुनियादारी है। सतसंगी और सतसंगिनों में यही भाव बना रहा तो आप और दुनियादारों से कैसे अलग हुए? आपने कितना सत्संग किया है? आपने राधास्वामी नाम का कितना सुमिरन किया है? कितना स्वरूप का ध्यान किया है? कितना धुन को सुना है? अगर जीव भजन का रसिया होता तो दशा और ही होती। तब मन इधर दुनिया में नहीं रमता, मान बड़ाई नहीं चाहता। एक परमार्थी अपनी तारीफ सुनकर रो देता है जबकि दुनियादार की जरा सी बड़ाई करो तो फूल कर कुप्पा हो जाता है।

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जब सत्संग में बैठते हैं तब मन बहुत अड़गे लगाता है। एक तो उदासीन कर देता है, उदास कर देता है, उचट जाता है, लगता नहीं है और दुनिया भर की समस्याएं उसी वक्त पैदा होती हैं। किसी को धन की समस्या, किसी को रोग की समस्या, किसी को कोई गहरा शोक किसी के वियोग का पैदा होता है। कोई कोई ऐसे निकृष्ट हैं कि उनको काम अंग बहुत सताता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार इनमें से दो से छुटकारा पाना बहुत कठिन है- एक काम और दूसरा अहंकार। क्रोध से भी एक निश्चित समय पर छुटकारा मिल सकता है अगर अपने मन को समझाया जाए कि हमको किसी बात पर गुस्सा नहीं लाना है, या कि यह समझ कर कि जो कुछ हो रहा है वह मौज से हो रहा है या किसी से कोई गलती बनी भी है तो उसे प्यार से समझाया जा सकता है। क्रोध -क्रोध में भी अंतर है। अगर संत सतगुरु राधास्वामी दयाल किसी पर क्रोध करते हैं तो वह उसकी बेहतरी के लिए करते हैं, सुरत की संभाल करने के लिए करते हैं, मन को रोकने के लिए करते हैं। याद रखिए कि वह चोर किसी भी रूप में आपके पास रहता है। एकांत की बात अलग होती है और सामूहिक बात अलग होती है। एकांत में करने के लिए सुमिरन है, एकांत में करने के लिए ध्यान है, एकांत में करने के लिए चिंतन है और एकांत में करने के लिए धुन को सुनने का अभ्यास है। इसके अलावा लोग जो एकांत में ढूंढते हैं उसमें किसी न किसी किस्म का काम अंग. क्रोध अंग, लोभ अंग, मोह अंग कहीं न कहीं छुपा रहता है। एक सत्संगी का फर्ज है कि न तो किसी की निंदा करे और न किसी की निंदा को सुने। यानी दूसरे की कोई ऐसी बात जो ओछी है उसको सुनना भी नहीं चाहिए और ओछे आदमियों से अपने आप को जितना हो सके दूर रखिए, अगर बाहरी व्यवहार में ना रख पाएं तो अंतर में जरूर उसको समझिए।