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राधास्वामी गुरु Dadaji Maharaj के अनमोल बचन -38: मालिक के चरनों में प्रीत बढ़ाने का मंत्र

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राधास्वामी मत (Radhasoami Faith) के प्रवर्तक परम पुरुष पूरन धनी स्वामीजी महाराज (Soamiji Maharai) और परम पुरुष पूरन धनी हजूर महाराज (Hazur maharaj) ने इस नश्वर संसार में इस बात के लिए अवतार धारण किया कि जीवों का उद्धार हो सके। उन्होंने जीवों पर अनोखी दया लुटाई, बचन बानी के माध्यम से जीवों को अपने चरनों में खींचा, चेताया और उनका कारज बनाया। उन्होंने गुरुभक्ति और सतगुरु सेवा पर भी विशेष बल दिया और स्पष्ट रूप से कह दिया कि जब तक संपूर्ण जगत का उद्धार नहीं होता, धार की कार्यवाही निरंतर जारी रहेगी, वक्त के गुरु जीवों को चेताते रहेंगे। तब से लेकर आज तक यह सिलसिला जारी है और हजूर महाराज के घर हजूरी भवन, पीपल मंडी, आगरा (Hazuri Bhawan, Peepal mandi, Agra) में वर्तमान सतगुरु दादाजी महाराज (Radha Soami guru Dadaji maharaj) जीवों पर अपनी दया फरमा रहे हैं, उनका भाग जगा रहे हैं। दादा जी महाराज (Prof Agam Prasad Mathur former Vice chancellor Agra university) अपने सतसंग (Radhasoami satsang) में नित्य नवीन बचन फरमाते हैं जिससे यह जीव चेते और चरनों में लगे। उन्हीं बचनों में से कुछ अप्रकाशित वचन पुस्तिका ‘दादा की दात’ में जीवों के कल्याण के वास्ते दिए गए हैं। ये वचन न केवल जीवों के प्रीत प्रतीत को बढ़ाएंगे वरन उनका कारज भी बनाएंगे। यहां हम प्रस्तुत कर रहे हैं दादाजी महाराज के बचनों की श्रृंखला।


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सब काम दुनिया के छोड़कर एक संग दरबार में आने का इरादा करते हो तुम्हारा यह प्यार खाली नहीं जाएगा, क्योंकि एक तरह की लगन, एक तरह की खटक, एक तरह की धार का आना-जाना बन गया है तो वह खींचे बिना नहीं रह सकता और वह खिंचे बिना भी नहीं रह सकता। जो ऐसा परमार्थी है और आने से मजबूर हो जाता है कभी-कभी, दुनिया की परिस्थितियों के कारण, अड़ंगों के कारण तो वह अंतर में बहुत दुखी रहता है, क्योंकि दुनिया और दुनिया के भोग, विलास और कार्य जो कि कर्तव्य के रूप में इसको करने पड़ते हैं, उनको यह कर्तव्य बतौर करता है लेकिन उसकी लगन बराबर संत सतगुरु के संग में लगी रहती है और यही आवश्यक है, यही खिंचाव है अगर यही खिंचाव बना रहा तो प्रीत बढ़ती चली जाएगी और प्रीत बढ़ती चली जाएगी तो मालिक खुश होकर प्रेम भी बख्शते चले जाएंगे और एक दिन अपने धाम में बासा भी देंगे।

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राधास्वामी मत में वक्त के गुरु की महिमा है। आपको कहां पहचान होगी कि वह कहां तक पहुंचा हुआ है। आप उसको किसी भी तरह से मान सकते हैं, पिता मान सकते हैं, मां मान सकते हैं। तरह-तरह की प्रीत लगी हुई है और फिर प्रेमी प्रीतम से बढ़कर तो कोई प्रीत है नहीं लेकिन उस दर्जे को पाने के लिए थोड़ी सी मेहनत करनी पड़ेगी। इसलिए अपनी दृष्टि को दुनियादारी और सांसारी वृत्ति से हटाकर सत्संग में आना चाहिए। सत्संग का भी एक मूड होता है। जब हम सत्संग में आते हैं तो हमें देखना चाहिए कि बुद्धि दुनिया की चीजों में न लगे। यहां पाठ ऐन कुल मालिक के सामने होता है। अतः ढंग से मीठा और रसीला पाठ होना चाहिए। इसलिए जो सुनो उसको गुनो और फिर उसके अनुसार थोड़ा बहुत अपने अंग में, रंग में, ढंग में परिवर्तन करिए। रंग परमार्थी होना चाहिए, संग सतगुरु का होना चाहिए और ढंग प्रेमियों का होना चाहिए तब मालिक का असली संग कर पाओगे, तब उनकी महिमा चित्त में आएगी। प्रार्थना हजूर से यही है कि सब पर दया बनाएं, सब पर मेहर करें, सबका कारज बनाएं। आज जब बुद्धिहीनों का जमाना है तब सब की बुद्धि सुबुद्धि रहे, कोई काम आप लोगों से ऐसा न हो जो मालिक की पसंद का ना हो। इसलिए उनकी पसंद, उनकी मंजूरी जरूरी है। उनकी तो दृष्टि से दृष्ट मिलाते रहो, वो क्या कर रहे हैं उनको करने दो, उनका काम कुछ और है तुम्हारा काम कुछ और है। दाता तो दात बश्तते हैं। इसलिए हमको क्या करना चाहिए- दाता को दाता से मांगना चाहिए। जो दाता से दाता को ही मांगेगा तो उसकी चिंता दाता को खुद होगी वह सब कुछ पा जाएगा।