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राधास्वामी गुरु दादाजी महाराज के अनमोल बचन-2: स्वयं को सदा दीन-अधीन और सरनागत समझना श्रेष्ठ

NATIONAL PRESS RELEASE REGIONAL RELIGION/ CULTURE

राधास्वामी मत (Radhasoami Faith) के प्रवर्तक परम पुरुष पूरन धनी स्वामीजी महाराज (Soamiji Maharai) और परम पुरुष पूरन धनी हजूर महाराज (Hazur maharaj) ने इस नश्वर संसार में इस बात के लिए अवतार धारण किया कि जीवों का उद्धार हो सके। उन्होंने जीवों पर अनोखी दया लुटाई, बचन बानी के माध्यम से जीवों को अपने चरनों में खींचा, चेताया और उनका कारज बनाया। उन्होंने गुरुभक्ति और सतगुरु सेवा पर भी विशेष बल दिया और स्पष्ट रूप से कह दिया कि जब तक संपूर्ण जगत का उद्धार नहीं होता, धार की कार्यवाही निरंतर जारी रहेगी, वक्त के गुरु जीवों को चेताते रहेंगे। तब से लेकर आज तक यह सिलसिला जारी है और हजूर महाराज के घर हजूरी भवन, पीपल मंडी, आगरा (Hazuri Bhawan, Peepal mandi, Agra) में वर्तमान सतगुरु दादाजी महाराज (Radhasoami guru Dadaji maharaj) जीवों पर अपनी दया फरमा रहे हैं, उनका भाग जगा रहे हैं। दादा जी महाराज (Prof Agam Prasad Mathur foemer Vice chancellor Agra university) अपने सतसंग (Radhasoami satsang) में नित्य नवीन बचन फरमाते हैं जिससे यह जीव चेते और चरनों में लगे। उन्हीं बचनों में से कुछ अप्रकाशित वचन पुस्तिका ‘दादा की दात’ में जीवों के कल्याण के वास्ते दिए गए हैं। ये वचन न केवल जीवों के प्रीत प्रतीत को बढ़ाएंगे वरन उनका कारज भी बनाएंगे। यहां हम प्रस्तुत कर रहे हैं दादाजी महाराज के बचनों की श्रृंखला।

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सतसंग करने के बाद या उससे उठने के बाद थोड़ा बहुत चिन्तन-मनन अपनी कमियां और कमजोरियों की तरफ कर उन्हें दूर करने का प्रयास आवश्यक है, दूसरे की ओर नहीं देखना चाहिए। दुनियादारों का तो हाल यह है कि वो अपनी विद्या या बुद्धि के अहंकार में दूसरों को कमतर या उसको नासमझ या कम समझते हैं और अपनी विद्या और बुद्धि की श्रेष्ठता को स्थापित करने की कोशिश करते हैं। सतसंग में बात उल्टी है। यहां स्वयं को सदा दीन-अधीन और सरनागत समझना श्रेष्ठ है।

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सतसंग का जो कायदा हजूर महाराज ने बताया है, हमें उसके अनुसार बरताव करना चाहिए, अदब जरूरी है। जब तक कि सतसंग के अधिष्ठाता वक्त गुरु को पूरा करके और श्रेष्ठ नहीं मानोगे तब तक भाव, भक्ति और निष्कपट श्रद्धा नहीं आ सकती और इसके बिना ध्यान करना संभव नहीं है। अतः राधास्वामी मत में वक्त के सतगुरु की महिमा है। चाहे वह प्रेमी अभ्यासी होवें, साध होवें या संत सतगुरु होवें या राधास्वामी दयाल के अवतार होवें, इसकी पहचान एक ऐसे जीव को, जो कि सत्संग में आकर बैठा है, अभी उसने कुछ नहीं सीखा है, उसे कैसे हो सकती है। लेकिन समाज के नियम हैं कि बड़ों के साथ सम्मान का व्यवहार किया जाता है, वो तो कर सकता है और बैठ कर निश्चिंत होकर जो कुछ कह रहे हैं, उसको सुन सकता है, उस पर गौर कर सकता है और बराबर सत्संग करने पर समझ बढ़ सकती है, श्रद्धा आ सकती है।