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किसकी गोद में बैठना सुरक्षित, पढ़िए क्या कहते हैं राधास्वामी गुरु दादाजी महाराज

NATIONAL PRESS RELEASE REGIONAL RELIGION/ CULTURE

वास्तव में वह धन की ललक और लालसा भारतीय सांस्कृतिक जीवन में महत्वपूर्ण नहीं है

हजूरी भवन, पीपल मंडी, आगरा राधास्वामी (Hazuri Bhawan, Peepal mandi, Agra) का आदि केन्द्र है। यहीं पर राधास्वामी मत (Radha Soami Faith) के सभी गुरु विराजे हैं। राधास्वामी मत के वर्तमान आचार्य (Radhasoami guru Dadaji maharaj) और अधिष्ठाता दादाजी महाराज (प्रोफेसर अगम प्रसाद माथुर) हैं जो आगरा विश्वविद्यालय (Agra university) के दो बार कुलपति (Vice chancellor of Agra university)  रहे हैं। हजूरी भवन (Hazuri Bhawan, Peepal Mandi, Agra) में हर वक्त राधास्वामी (Radha Soami)  नाम की गूंज होती रहती है। दिन में जो बार अखंड सत्संग होता है। दादाजी महाराज ने राधास्वामी मत (RadhaSomai faith) के अनुयायियों का मार्गदर्शन करने के लिए पूरे देश में भ्रमण किया। इसी क्रम में 4 अप्रैल 2000 को ग्राम जलबेड़ा, जिला फतेहगढ़ साहिब (पंजाब भारत) में सतसंग के दौरान दादाजी महाराज (Dadaji maharaj Prof Agam Prasad Mathur) ने कहा- वह तो दाता दयाल हैं और उनकी गोद इतनी विशाल है कि जो कोई भी सच्चा दीन अधीन होकर उनको एक बार भी पुकारेगा तो वह फौरन एक दिन आपको अपनी गोद में बैठने के काबिल कर लेंगे।

प्रेम की भाषा आती है मुझे
मुझे पंजाबी भाषा नहीं आती है। दरअसल कोई भाषा नहीं आती है। मुझे तो प्रेम की भाषा आती है जो मैंने संस्कारों, दुर्लभ संग, संतों के संग, राधास्वामी दयाल की सच्ची सरन ग्रहण करने, उनके चरणों में शीश नवाने, उनकी मेहर व दया से और उनकी गोदी में बैठकर पाई है। उन्हीं की गोदी में बैठकर जाने का इरादा भी पूरा और पक्का है क्योंकि वह गोद सुरक्षित है।

माया आनी-जानी है

वह तो दाता दयाल हैं और उनकी गोद इतनी विशाल है कि जो कोई भी सच्चा दीन अधीन होकर उनको एक बार भी पुकारेगा तो वह फौरन एक दिन आपको अपनी गोद में बैठने के काबिल कर लेंगे। इस कार्य में थोड़ी मेहनत करनी पड़ेगी और उस मेहनत को ही संसारी जीव नहीं कर पाते। यहां दुनियादारी बहुत है और यह समझा जाता है कि इसी जिंदगी में सब सुख और वैभव मिलना है इसलिए उसी के पीछे लगे रहते हैं। धन को सुख और आनंद का माध्यम समझा जाता है तो उसकी विशेष उपलब्धि समझते हैं लेकिन देखने में आता है कि वह माया आनी-जानी है। वास्तव में वह धन की ललक और लालसा भारतीय सांस्कृतिक जीवन में महत्वपूर्ण नहीं है।

भारतीय संस्कृति में 25 वर्ष ब्रह्मचर्य

भारतीय संस्कृति में आयु सीमा 100 वर्ष मानी जाती थी। उसको चार हिस्सों में बांटा जाता था। पहले 25 वर्ष में ब्रह्मचर्य का पालन करना, जिसमें नियम से रहना और नैतिक मूल्यों को अपनाना जो कोई शिक्षक या ऋषि गुरुकुल में बतलाता था। बच्चे एक खुले प्राकृतिक वातावरण में वहां पर सीखते थे और सहज तरीके से उन्हें समझाया जाता था। वहां से एक बहुआयामी व्यक्तित्व उभर कर आता था। अन्य प्रयोग के साथ विज्ञान के भी नए नए प्रयोग किए जाते थे। अर्थशास्त्र के सिद्धांत, नैतिक शास्त्र के नियम और संयत रहने के नियम बताए जाते थे तो धनुर्विज्ञान भी सिखाते थे। जब व्यक्ति पूर्णतः विकसित हो जाता था तब उस व्यक्ति के अंदर आपसे आप एक धार्मिकता की थी जो कभी थोपी नहीं जाती थी।

हर व्यक्ति वासना का शिकार नहीं होता था

अगले 25 वर्षों में गृहस्थ जीवन व्यतीत करता था। उसमें भी मुख्यता नियमों के बंधनों की थी। खाने-पीने का, भोग का और काम करने का समय निश्चित था। हर व्यक्ति वासना का शिकार नहीं होता था। कुछ लोग विलग रहते थे। बाहर भी काम करते। विचारों का आदान-प्रदान भी करते थे. लेकिन कोई व्यक्ति अशिक्षित नहीं था। 25 वर्ष गृहस्थ आश्रम में रहने के बाद वह अपने बच्चों को गृहस्थ की जिम्मेदारियां सौंपकर स्वाध्याय या अध्यात्म में लग जाता था। वह भारतीय दर्शन के छह संप्रदाय में से किसी को भी अपनी जिंदगी का ढंग अपना कर उसमें लग सकता था। फिर उम्र रही तो आगे जिंदगी के 25 वर्षों में गृहस्थ जीवन को पूर्ण रूप से त्याग कर जंगलों में चला जाता था अर्थात संन्यास ग्रहण कर लेता था।