मैं संग चल दी उनके,
मेरा मन यहीं रह गया…
उन्होंने दिखाये होंगे हजारों ख्वाब,
पर इन आँखों में रौशनी कहाँ थी !!
कितने ही गीत सुनाये होंगे उन्होंने,
पर इन कानों के पट तो बंद हो चुके थे !!
उनके सवालों का,
जवाब भी ना दे पायी थी मैं….
क्योंकि इन होठों पे, तुम्हारा ही नाम रखा था!!
कितना आक्रोश था उनके ह्रदय में,
जब उन्होंने,
मेरे केशों को पकड़कर खींचा था…
और मैं पत्थर सी हो गयी थी,
किसी भी आघात की पीड़ा ना हुई मुझे!!
ऐसी बेजान चीज को-
कौन…रखता अपने पास?
वो मुझे वहीं छोड़ गये,
जहाँ से उठा ले गये थे…
इन आँखों में अब रौशनी आ गयी है,
कानों के पट भी खुल चुके हैं….
जीवित हो गयीं हूँ मैं,
तुम्हारे स्पर्श स्पर्श से !!
रक्षिता सिंह (दीपू), उझानी, बदायूं
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