पुण्‍यतिथि: राष्‍ट्रकवि की उपाधि प्राप्‍त जनकवि थे ‘दिनकर’

पुण्‍यतिथि: राष्‍ट्रकवि की उपाधि प्राप्‍त जनकवि थे ‘दिनकर’

साहित्य


23 सितंबर 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया गाँव में जन्मे रामधारी सिंह दिनकर की आज पुण्‍यतिथि है। उनकी मृत्‍यु 24 अप्रैल 1974 को बेगूसराय में हुई थी। दिनकर ने शुरू से अंत तक जितनी भी रचनाएँ कीं, वे बिना किसी डर केऔर निस्वार्थ भाव से केवल जनता के लिए ही थीं।

हिंदी साहित्य के इतिहास में ऐसे लेखक बहुत कम हुए हैं जो सत्ता के भी करीब हों और जनता में भी उसी तरह लोकप्रिय हों। जो जनकवि भी हों और साथ ही राष्ट्रकवि भी। दिनकर का व्यक्तित्व इन विरोधों को अपने भीतर बहुत सहजता से साधता हुआ चला था। वहां अगर भूषण जैसा कोई वीर रस का कवि बैठा था, तो मैथिलीशरण गुप्त की तरह लोगों की दुर्दशा पर लिखने और रोनेवाला एक राष्ट्रकवि भी। दिनकर छायावाद के तुरंत बाद के कवि थे पर आत्मा से वे हमेशा द्विवेदीयुगीन कवि रहे।

इसील‍िए आजादी से पहले जिसे विद्रोही कवि कहा जाता था, वो आजादी के बाद राष्ट्रकवि हो गए। किसी का फैन बनने की बजाय जो उन्हें अच्छा लगा, उन्होंने वही ग्रहण किया।

जब 1930 में महात्मा गाँधी ने नमक सत्याग्रह चलाकर अंग्रेजों पर दबाव बनाया लेकिन अगले ही साल 1931 में गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने चले गए, उसी पर दिनकर जी ने अपनी कविता ‘हिमालय’ में तंज कसा।

“रोक युधिष्ठिर को न यहाँ, जाने दे उनको स्वर्ग धीर
पर फिर हमें गांडीव गदा, लौटा दे अर्जुन भीम वीर”

इसमें गाँधी को युधिष्ठिर जबकि भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद को अर्जुन, भीम से संबोधित किया लेकिन आजादी मिलने के बाद गाँधी भक्ति में उन्होंने लिखा-

“बापू मैं तेरा समयुगीन, है बात बड़ी, पर कहने दे
लघुता को भूल तनिक, गरिमा के महासिंधु में बहने दे”

वह थे तो वीर रस के कवि, यानि जिनके रग-रग में राष्ट्रवाद की भावना भरी पड़ी थी लेकिन साथ ही वे जनमानस की आवाज भी उतनी ही गंभीरता से उठाते थे, देश की जान किसान के लिए उनकी पंक्तियाँ थीं-

“जेठ हो कि हो पूस, हमारे कृषकों को आराम नहीं है
छूटे कभी संग बैलों का ऐसा कोई याम नहीं है
मुख में जीभ शक्ति भुजा में जीवन में सुख का नाम नहीं है
वसन कहाँ? सूखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं है”

उनकी लेखनी उनके मन से चलती थी. उनके किसी एक खांचे में बैठाना असंभव है। वे राष्ट्रवादी थे, तो समाजवादी भी, गाँधीवादी थे तो मार्क्सवादी भी, क्रांतिकारी कवि भी थे और परंपरावादी भी। जहाँ उन्हें जो अच्छा लगा, बस लेखनी चल जाती थी लेकिन इसके बावजूद वह किसी का अंधअनुसरण नहीं करते थे, गाँधी-मार्क्स पर उन्होंने लिखा-

“अच्छे लगते मार्क्स, किंतु है अधिक प्रेम गांधी से,
प्रिय है शीतल पवन, प्रेरणा लेता हूं आंधी से”

यानि सच और परंपरा को स्वीकार करने में उन्हें तनिक भी गुरेज नहीं था। देश की राजधानी में बैठे हुक्मरानों पर चोट करती दिनकर जी की ये लाइनें हैं-

“भारत धूलों से भरा, आंसुओं से गीला,
भारत अब भी व्याकुल विपत्ति के घेरे में।
दिल्ली में तो है खूब ज्योति की चहल-पहल, पर,
भटक रहा है सारा देश अँधेरे में “

दिनकर जी में साम्यवाद की भी हल्की झलक दिख जाती थी जब वह गरीब शोषितों के लिए लिखते थे।

“हटो व्योम के मेघ, पंथ से स्वर्ग लूटने हम आते हैं,
दूध-दूध ओ वत्स तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं”

राष्ट्रकवि इतनें प्रखर और बेधड़क थे कि जिस पंडित नेहरू को उन्होंने ‘लोकदेव नेहरू’ का तमगा दिया, जिस नेहरू ने उन्हें 1952 से 1964 तक राज्यसभा का सदस्य बनाया, जब 1962 में नेहरू नीति की विफलता सामने आयी तो भरी संसद में दिनकर ने वहीं तीखे शब्द कहे थे।

महात्मा गाँधी की हत्या से बेहद विचलित रामधारी सिंह दिनकर ने अपने शब्दों द्वारा भावनाएँ बयां की है-

“कहने में जीभ सिहरती है,
मूर्च्छित हो जाती कलम,
हाय, हिन्दू ही था वह हत्यारा”

जातिवाद को देश का सबसे बड़ा दुश्मन मानने वाले दिनकर जी ने लोकनायक जयप्रकाश नारायण के लिए लिखा है-

“है जयप्रकाश वह नाम जिसे, इतिहास समादर देता है
बढ़कर जिसके पदचिह्नों को उर पर अंकित कर लेता है”

भारत के प्रथम गणतंत्र दिवस पर उनकी लिखी पंक्तियाँ, आज हिंदी काव्य-साहित्य पढ़ने वाला हर शख्स के मुँह पर होता है।

सदियों की ठंडी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है,
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। ‘

यह कविता जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में 1974 के संपूर्ण क्रांति आंदोलन की टैग लाइन बनी लेकिन अफसोस राष्ट्रकवि दिनकर जनआंदोलन से पहले ही 24 अप्रैल 1974 को हमारे बीच से सदा के लिए विदा हो गए। छोड़ गए वो अनमोल कविताएँ जो आज 44 साल बाद भी हर किसी के जेहन पर है। भारत विविधता में एकता का देश है तो दिनकर जी ‘विविधताओं में एकता’ वाले कवि के रूप में प्रख्यात हैं।

-Legend News

Dr. Bhanu Pratap Singh