गोवर्धन का हरदेव मंदिर: जहां गिरधारी ने अंगुली पर धारण किया पर्वत

RELIGION/ CULTURE

सात वर्ष के सांवरे ने अंगुली पर धारण किए थे गोवर्धन। इंद्रदेव का अहंकार चूर हुआ और उन्होंने श्रीकृष्ण के शरणागत होकर क्षमा याचना की। हरदेव मंदिर में इसी स्वरूप में आज भी भगवान दर्शन देते हैं।

वैसे तो समूचा ब्रजमंडल क्षेत्र ही कान्हा की लीला भूमि है। लेकिन गोवर्धन में हरदेव मंदिर के बारे में दावा है कि यही वह स्थान है, जहां इंद्र के ब्रजभूमि को बहाने के आदेश के बाद मूसलाधार वर्षा से ब्रजभूमि और ब्रजवासियों को बचाने के लिए सात वर्ष के सांवरे ने गोवर्धन को सात दिन-सात रात अपने बाएं हाथ की अंगुली पर धारण किया। ये स्थान सात कोस की परिक्रमा में पहले कोस में आता है।

इंद्र का किया मान मर्दन

यादव कुल पुरोहित गर्गाचार्य ने गर्ग संहिता लिखी है। इसमें उल्लेख है कि हरदेव मंदिर वही स्थान है। जहां श्रीकृष्ण ने इंद्रदेव का मान मर्दन करने के लिए गोवर्धन धारण किया था। गर्गाचार्य कृष्ण के समकालीन हैं, इसलिए इसे जानकार सबसे महत्वपूर्ण तथ्य मानते हैं। मगर, गोवर्धन आने वाले अधिकांश श्रद्धालुओं को इस ऐतिहासिक विरासत की कोई जानकारी ही नहीं है।

सात दिन और सात रात साधा था गोवर्धन पर्वत

कान्हा ने ब्रजवासियों से इंद्रदेव की बजाय गोवर्धन पर्वत की पूजा कराई। इंद्र ने कुपित हो मेघमालाओं को ब्रजभूमि बहाने का आदेश दिया। तब इसी स्थान पर सात वर्ष के सांवरे ने सात दिन-सात रात तक सात कोस गिरिराज को अपने बाएं हाथ की कनिष्ठ अंगुली पर धारण कर ब्रजभूमि को बचा लिया।

मंदिर में विराजमान शिला का है विशेष इतिहास

मंदिर में विराजमान शिला के बारे में जानकर बताते हैं कि करीब सात सौ वर्ष पूर्व विष्णु स्वामी संप्रदाय निर्मोही अखाड़ा श्री गोवर्धन पीठ के पीठाधीश्वर केशव आचार्य जी महाराज को सपना देकर कहा कि ‘मैं बिछुआ कुंड में छिपा हुआ हूं’ मुझे प्रकट करो। श्री केशवाचार्य जी द्वारा भगवान श्री हरि के सपने के अनुसार चैत्र कृष्ण पक्ष द्वितीया को ठाकुर श्री हरिदेव जी महाराज का प्राकट्य किया।

कदम दर कदम पहला कोस

परिक्रमा में पांच सौ मीटर दूरी पर प्राचीन दाऊजी मंदिर है।
दाईं तरफ चरणामृत कुंड है।
बाईं तरफ कार्ष्णि आश्रम है, जहां संत हरिओम बाबा के सानिध्य में हर वक्त भोजन उपलब्ध है।
दाएं ब्रजनिष्ठ संत गया प्रसादजी का रमणीक समाधि स्थल है।

ऐसे हुआ मंदिर का निर्माण

मंदिर का निर्माण मध्यकाल में मानसिंह के पिता राजा भगवान सिंह ने कराया था। मंदिर निर्माण के लिए मुगल बादशाह अकबर ने राजा भगवान सिंह को शाही खदान के लाल पत्थरों के उपयोग की इजाजत दी। राजा भगवान सिंह ने अकबर को एक युद्ध में बचाया था। इसके बाद सम्राट अकबर ने भगवान सिंह को मुल्तान का गवर्नर नियुक्त कर अपना विश्वासपात्र बना लिया।

– एजेंसी

Dr. Bhanu Pratap Singh