anil shukla agra

अजीब और अनोखा आदमी अनिल शुक्ल…

लेख

डॉ. भानु प्रताप सिंह

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अनिल शुक्ल। वही अपने आगरा वाले अनिल शुक्ल। वहीं रंगलीला वाले अनिल शुक्ल। इकहरा शरीर। साधारण पहवाना। नहीं कोई दिखावा। किसी से नहीं वैरभाव। किसी पर नहीं दिखाते ताव। भगत के भगत। साहित्य और रंगकर्म की सेवा में रत। ऐसे कार्यक्रम कराते हैं, जो माह की मानसिक खुराक दे जाते हैं। कार्यक्रम में भीड़ नहीं चाहिए, बस सुनने वाले चाहिए। चिन्ता है देश और समाज की, चिंता हैं आज की। इसलिए पुराने लोगों को घेर लाते हैं। उन्हें बौद्धिक खुराक पिलाते हैं।

अनिल शुक्ल। वरिष्ठ पत्रकार हैं और इस बात का तनिक भी गुमान नहीं है। शानदार लेखक हैं। इस बात का भी नाज नहीं है। लिखते हैं तो लगता है एक-एक अक्षर चंदन की कलम से लिखा है। बस पढ़ते रहो और समझते रहो। बढ़ती उम्र और खराब स्वास्थ्य भी उन्हें रोक नहीं पाता है।

अनिल शुक्ल। उनके बारे में जितना लिखा जाए कम है। उन्होंने कई कार्यक्रमों में बुलाया है। हर कार्यक्रम की धुरी होते हैं लेकि श्रेय दसरों को देते हैं। मंच, माला, माइक की चाह नहीं रहती है। अपने ही कार्यक्रम में सबसे पीछे बैठते हैं। अगर कुर्सी खाली नहीं है तो सीढ़ी पर विराजमान हो जाते हैं। वे सबको आगे रखते हैं और स्वयं पीछे रहते हैं। है न अजीब बात। कार्यक्रमों में कोई तड़क-भड़क नहीं, कोई दिखावा नहीं। उद्देश्य है कम से कम व्यय में विचार देने वाले कार्यक्रम हो।

अनिल शुक्ल। वही भगत को जिंदा कराने वाले अनिल शुक्ल। बूढ़े हो चुके खलीफाओं में फिर से जोश भरने वाले अनिल शुक्ल। बच्चों को तैयार करके मंच पर खड़ा दिया। स्वयं नैपथ्य में ही रहे। दूसरों को आगे बढ़ाने का तनिक भी गुमान नहीं है। नैपथ्य में पीछे रहने का तनिक भी मलाल नहीं। ऐसे हैं अनिल शुक्ल।

अनिल शुक्ल। रंगकर्म में नई विधा को जन्म देने वाले अनिल शुक्ल। एक ही कलाकार द्वारा एक स्थान पर बैठकर पूरी कहानी सुना देने की विधा। कई बालिकाओं को तैयार किया है। इन बालिकाओं ने कहानी के हर पात्र को जीया है। मुख और हाथों का प्रयोग इस तरह से कि दर्शक को सुनता ही जाता है, देखता ही रह जाता है। फिर उसे कहानी पढ़ने की जरूरत नहीं रह जाती है। उर्वर मस्तिष्क वाला ही नई विधाओं को जन्म दे सकता है। अनिल शुक्ल नए लोगों को गढ़ रहे हैं। यही काम तो होता गुरु का।

अनिल शुक्ल। बिलकुल अजीब आदमी है। बोलना कम, लिखना ज्यादा। बोलना कम, पढ़ना ज्यादा। फिल्में बनाईं। नाटक किए। उनके शिष्य बुलंदियों पर हैं। अनिल शुक्ल वहीं के वहीं है। किसी के प्रति ईर्ष्या नहीं। किसी की निंदा नहीं। उनकी सरलता और सहजता मुझे तो प्रभावित करती है। वे चूंकि आगरा के हैं इसलिए आगरा वाले अधिक भाव नहीं देते हैं। वो कहावत है न- घर का जोगी जोगना आन गांव का सिद्ध। आगरा वालो, अपनों को भी कदर करो। रंगकर्म के ‘रंगदार’ अनिल शुक्ल जैसे लोग बार-बार जन्म नहीं लेते हैं।

अंत में मुझे दुष्यंत कुमार का एक शेर याद गया, जो अनिल शुक्ल जैसे महानुभावों के लिए ही लिखा गया है-

एक बूढ़ा आदमी है मुल्क में या यूँ कहें

इस अँधेरी कोठरी में एक रौशनदान है।

लेखक का संपर्क 9412652233, 8279625939

 

Dr. Bhanu Pratap Singh