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आजादी का अमृत महोत्सव और मीडिया, डॉ. भानु प्रताप सिंह सुना रहे हैं खरी-खरी

लेख

परिवर्तन प्रकृति का नियम है। इसलिए अगर पत्रकारिता यानी मीडिया बदल रही है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। जब भारत गुलाम था, जब भारत स्वतंत्र हुआ, जब कांग्रेस की सरकार आई, जब जनता पार्टी की सरकार आई और अब भारतीय जनता पार्टी की सरकार है तो पत्रकारिता का स्वरूप भी बदल रहा है। कहा तो यह जाता है कि अखबार को विपक्ष की भूमिका में रहना चाहिए, ठीक भी है क्योंकि सरकार को आइना अखबार ही दिखा सकता है लेकिन बदलती पत्रकारिता में सिर्फ अखबार ही नहीं रहे हैं। अब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, डिजिटल मीडिया और सर्वाधिक शक्तिशाली सोशल मीडिया भी मैदान में है। एक समय था जब मीडिया में 100 प्रतिशत स्थान नकारात्मक समाचारों को दिया जाता था। समय बदला तो 1-2 प्रतिशत ही सही, सकारात्मक समाचार भी आने लगे हैं। उत्तर भारत के तीन बड़े अखबार हिन्दुस्तान, दैनिक जागरण, अमर उजाला में समय-समय पर सकारात्मक समाचार देखने को मिल जाते हैं। अमृत महोत्सव के बारे में चर्चा से पूर्व बदलती पत्रकारिता पर दृष्टिपात करते हैं-

 

1.मिशन (विशेष कार्य)

मीडिया ने आजादी की लड़ाई को मिशन के रूप में लिया और सफल रहे। जब हम किसी कार्य को मिशन के रूप में लेते हैं तो सफलता मिलती ही है। तभी तो अकबर इलाहाबादी ने लिखा-

खींचो न कमानों को न तलवार निकालो

जब तोप मुकाबिल हो, अखबार निकालो

 

2.संघर्ष

आजादी के बाद भ्रष्टाचार, गरीबी, आतंकवाद, लिंगभेद, अन्याय, सांप्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष होगा, ऐसी सोच थी। इनके खिलाफ संघर्ष आज भी चल रहा है। यह अंतहीन सिलसिला है। मीडिया में आवाज उठती रही और उठती रहनी भी चाहिए। भ्रष्टाचार के अनेक मामले मीडिया ने ही उजागर किए हैं।  अखबारों ने सच का सामना किया। सच लिखने पर प्रताड़ना मिली। हत्याएं हुई। आज भी हो रही हैं। एक दौऱ था जब जनता में साख इतनी बना ली कि अखबार में छपी खबर को ही सत्य माना जाने लगा।

 

3.सामाजिक जिम्मेदारी

समाज है तो हम सब हैं। इसलिए समाज में सब कुशल मंगल रहे, यह चिन्ता भी की जा रही है। इसके चलते अखबार अब मैगजीन भी बन गए हैं। अखबार उपदेशक और समाज सुधारक बन गए हैं। दुनियाभर को बता रहे हैं कि लोग क्या खाएं, क्या न खाएं। कहां घूमने जाएं, कहां न जाएं। कहां पढ़ें और कहां नहीं। कमाल तो यह है कि गर्ल फ्रेंड को पटाने की तरीके भी सुझाए जा रहे हैं। किसी थानेदार के खिलाफ दो खबरें लिख दीं तो थाना छिन जाता था। सड़क में गड्ढे दिखा दिए तो अगले दिन मरम्मत शुरू हो जाती थी। किसी मोहल्ले में जलापूर्ति नहीं हो रही है, खबर छप गई तो इंजीनियर साहब की क्लास लग जाती थी। मशहूर शायर राहत इंदौरी ने लिखा है..

एक अखबार हूं, औकात ही क्या मेरी,

मगर शहर में आग लगाने के लिए काफी हूं..

दुनिया में इससे अधिक ताकत किसी के पास नहीं है। आज भी नहीं है। तब सच्चे पत्रकार थे। कुछ मिशनरी भावना थी। अखबार व्यसाय नहीं था। सारा समाज मानता था कि पत्रकार है तो सबसे अच्छा व्यक्ति होगा। दुखी लोग पुलिस के पास बाद में, पहले पत्रकार के पास जाते थे।

 

बदलाव-1: चैनल शुरू करके बंद होना

प्रिंट के बाद आया इलेक्ट्रॉनिक का जमाना। टीवी पत्रकार होने लगे। टीवी के पर्दे पर आने वाले पत्रकार रातोंरात स्टार बन गए। चैनलों की भरमार हो गई। शुरुआत में जो टीवी पत्रकार बन गए, उन्होंने एक मुकाम हासिल कर लिया। फिर शुरू हुई समाचार चैनल शुरू करने की होड़। धूमधड़ाक के साथ चैनल शुरू किए और कुछ समय बाद बंद हो गए, क्योंकि उद्देश्य कुछ और ही था। अगर मैं कहूं कि पत्रकारिता की आड़ में अपना उल्लू सीधा करना था, तो गलत नहीं है। उल्लू सीधा नहीं हुआ तो चैनल बंद और हो गए सैकड़ों पत्रकार बेरोजगार। कुछ चैनल और अखबार इसलिए शुरू हुए कि मीडिया के नाम पर लाला लोग बोरे भरकर नोट लाएंगे। वे भूल गए कि यहां नोट मुट्ठीभर आते हैं और बाल्टी भर जाते हैं। कमाल ये भी है कि हर साल मीडिया कंपनी लाभ दिखाती हैं, लेकिन कर्मचारियों को देने की बात आती है तो घाटा बताते हैं। अगर घाटा है तो 15 रुपये की लागत वाला अखबार सात रुपये में क्यों बेच रहे हैं?

 

बदलाव-2: बिकने लगी आईडी

जिसे एक बार पत्रकारिता और राजनीति करने का चस्का लग गया, वह छूटता नहीं है। इन्हें खत्म करने का कोई टीका भी नहीं बना है। सो चैनल की आईडी लेने की होड़ शुरू हो गई। फिर चैनल की आईडी दूल्हे की तरह बिकने लगी। खुलेआम बोली लगने लगी।

 

बदलाव-3: पीत पत्रकारिता

जो चैनल की आईडी खरीदकर लाएगा, सैलरी मिलेगी नहीं, जीविकोपार्जन का कोई अन्य साधन है नहीं, तो वह क्या करेगा। जाहिर है कि वह ‘ग्राहक’ तलाशेगा। फिर सौदेबाजी करेगा। सौदा नहीं पटा तो ये ले खबर…। बड़े बैनर को छोड़ दें तो, जिलों में यही सब हो रहा है। 25 साल रिपोर्टिंग के अनुभव के बाद यह कह रहा हूं। बात सच्ची है, इसलिए कड़वी है।

 

बदलाव-4: पोर्टल

अब पोर्टल का जमाना है। टीवी से भी तेज होता है पोर्टल। पोर्टल आया तो अखबार बंद होने लगे। अखबारों का प्रसार कम होने लगा। अखबारों की रीडरशिप घट गई। आज का युवा अखबार नहीं पढ़ता, मोबाइल में इधर-उधर से आए लिंक खोलता है। ऐप्प पर खबरें देखता है। यूवी (यूनिक व्यू) और पीवी (पेज व्यू) लाने की होड़ है। सो खबरों की भरमार है। अधकचरी खबरें हैं। सनसनी वाले शीर्षक हैं, भले ही अंदर माल मसाला कुछ न हो।

 

बदलाव-5: सोशल मीडिया

सोशल मीडिया ने पत्रकारिता को पूरी तरह बदल दिया है। अब गली-मोहल्ले की खबरें आपकी मुट्ठी में हैं। मौके के वीडियो आपको तत्काल मिल रहे हैं। चस्का इतना है कि व्यक्ति नदी में डूब रहा है और उसे बचाने के स्थान पर वीडियो बनाया जा रहा है। फिर ये वीडियो वायरल हो रहे हैं। पिछले दिनों मैनपुरी में महिला को दबंग लाठियों से पीट रहे थे और बड़ी संख्या में लोग तमाशा देख रहे थे। इत्तिफाक से वहां मौजूद पत्रकार साहब वीडियो बना रहे थे। मतलब यह है कि पत्रकार को फील्ड में ज्यादा जाने की जरूरत नहीं है। सोशल मीडिया से खबरें मिल रही हैं।

 

बदलाव-6: सबसे बड़ा खतरा

सोशल मीडिया से पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर खतरा पैदा हो गया है। अमिताभ बच्चन को कई बार मार चुका है सोशल मीडिया। ट्रेनों के एक्सीडेंट अक्सर कराता रहता है सोशल मीडिया। गाय काटने की सूचनाएं प्रसारित करता रहता है सोशल मीडिया। लोग भी बिना कुछ सोचे सूचनाएं अग्रसारित करते रहते हैं। अधिकांशतः गलत सूचनाएं होती हैं। सोशल मीडिया ने खुद पर काबू नहीं किया तो इसकी स्थिति भस्मासुर जैसी हो सकती है। पत्रकार साथियों को सोशल मीडिया पर अति निर्भरता से बचना चाहिए। ब्रेकिंग न्यूज को अग्रसारित करने से पहले जांच जरूर लें।

 

बदलाव-7: काम का बोझ

एक समय था जब पत्रकार को केवल खबरों से मतलब होता था। सिर्फ खबर लिखता था। उसे कंपोज कोई और करता था। प्रूफ पढ़ने का काम कोई और करता था। पेज कोई और लगाता था। अब तो पत्रकार ही सारे काम करता है। इसके बाद भी वेतन वहीं का वहीं है। नए दौर की पत्रकारिता में पत्रकार केवल खबरें नहीं लिखता है। वह विज्ञापन भी एकत्रित कर रहा है। बड़े अखबारों में कुछ खास अवसरों पर यह काम होता है, लेकिन छोटे अखबारों और चैनलों में हर माह होता है। सबसे बड़े अखबार का छोटा अखबार तो खबरें बेच रहा है। विज्ञापन नहीं तो वेतन भी नहीं मिलता है। पत्रकारिता के ऐसे विकास ने पत्रकार की सारी अकड़ निकाल दी है।

 

बदलाव-8: पत्रकार की रेड़

नए जमाने में पत्रकार और पत्रकारिता की रेड़ हो रही है। पत्रकारों की दशा सुधारने के लिए मजीठिया आयोग आया। आयोग की सिफारिशों को माननीय सुप्रीम कोर्ट भी लागू नहीं करवा पा रहा है। इसके बाद पत्रकारों के सामने छंटनी की समस्या है। उच्चस्तर पर नौकरिया बंद हैं। पत्रकार ठेके पर रखे जा रहे हैं। उन्हें पत्रकार के स्थान पर अधिशासी (एग्जीक्यूटिव) बना दिया गया है। सबके परिचयपत्र बदल दिए गए हैं। शपथपत्र लिए गए हैं कि हमें पहले से अधिक वेतन मिल रहा है, मजीठिया आयोग के अनुसार अधिक वेतन की जरूरत नहीं है। मरता क्या नहीं करता। जिनके पास आय का अन्य कोई साधन नहीं है, वे तो अपनी नौकरी बचाने के लिए समझौते करेंगे ही। पत्रकारिता को भाड़ में झोंका जा चुका है। यह काम वही कर रहे हैं जिन पर पत्रकारों का हित संरक्षित और सुरक्षित रखने का दायित्व है।

 

बदलाव-9: संपादक

एक समय था जब संपादक ही सर्वेसर्वा हुआ करता था। क्या छपेगा, क्या नहीं, यह निर्णय सिर्फ संपादक का हुआ करता था। मालिक तक की हिम्मत नहीं होती थी। अब तो मालिक और विपणन (मार्केटिंग) विभाग के लोग तय करने लगे हैं कि ये खबर दे दो और ये खबर रोक दो। संपादक को मैनेजर बना कर रख दिया है। संपादक बनना है तो मैनेजमेंट भी आना चाहिए।

 

बदलाव10: छवि

 

पहले पत्रकार खबरों के जरिए तो व्यवस्था में सुधार और वंचित को हक दिलाता था। इसके अलावा उसकी बात और अनुभव का भी महत्व होता था। प्रशासनिक अधिकारी काफी हद कर कई मसलों को हल कराने के लिए पत्रकारों का सहारा लेते थे। जो भी नया अधिकारी आता था पत्रकारों से शिष्टाचार भेंट करता था और सहयोग मांगता था। कई मसले ऐसे होते थे जिन्हें सुलझाने के लिए अधिकारी पत्रकारों की विश्वसनीयता के सहारे सुलझाते थे। एक समय था जब पत्रकार किसी पुलिस या प्रशासनिक अधिकारी को फोन पर किसी काम की कहे और न हो, ऐसा संभव नहीं था। अब क्या हाल है, हम सब जानते हैं। सबको लगता है कि सिफारिश कर रहा है, तो जरूर लिफाफा ले लिया होगा। पत्रकार और अधिकारियों दोनों के बीच परस्पर विश्वसनीयता की भावना कम है। पत्रकार भी अपना काम सिर्फ कोटा पूरा करना यानि खबरों की गिनती पूरी करना समझता है, अधिकारी भी उसे ‘भोंपू’ समझता है। इसका कारण है ज्यादातर अधिकारियों से मीडिया मालिकान सीधे संबंध रखते हैं। इसलिए अब अधिकारी पत्रकार को हल्के में लेता है।

मैंने मीडिया की 10 छवियों के बारे में जो जानकारी दी है, वह सकारात्मक से नकारात्मक हो रही हैं, इन्हें सकारात्मक करने की जरूरत है। इसके लिए आजादी का अमृत महोत्सव सुनहरा अवसर है। अमृत महोत्सव की दृष्टि से बात करें तो मैं देख रहा हूँ कि मीडिया में बदलाव आ रहा है लेकिन नग्ण्य। अच्छी बात है कि अमृत महोत्सव में भारत सरकार द्वारा आयोजित कार्यक्रमों को अच्छा स्थान दिया जा रहा है। अखबारों ने तिरंगा रैली निकाली हैं। अच्छा होता कि अखबार मत्थे पर आजादी का बीजमंत्र वंदेमातरम लिखते। आगे भी लिख सकते हैं। इस तरह के विचार देशभक्ति की भावना को बलवती बनाते हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया प्राइम टाइम पर अमृत महोत्सव से संबंधित कार्यक्रम करता तो और अच्छा होता। फिल्मी चैनलों पर रोजाना देशभक्ति से संबंधित एक फिल्म का प्रसारण अनिवार्य होना चाहिए। डिजिटल मीडिया पर कम से कम एक खबर सकारात्मक और देशभक्ति की भावना जगाने वाली अवश्य हो।

डॉ. भानु प्रताप सिंह

-प्रबंधन विषय में हिन्दी माध्यम से विद्या वाचस्पति (पीएचडी) की उपाधि लेने वाले प्रथम

-हिन्दी में उपलब्धि के लिए भारत सरकार की संस्था द सर्वे ऑफ इंडिया ने देश में नौवां स्थान दिया है

-उत्तर प्रदेश सरकार के अभिलेखागार में पुस्तकें सूचीबद्ध

संपादक www.livestorytime.com

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Dr. Bhanu Pratap Singh