“लाइक्स” ओर “फॉलोअर्स” में जीवन का अस्तित्व तलाशते युवा…

लेख

बृजेश सिंह तोमर
(वरिष्ठ पत्रकार एवं आध्यात्मिक चिंतक)

सोशल मीडिया की आभासी दुनिया में जीने की प्रवृत्ति से आज की युवा पीढ़ी आत्ममूल्यांकन के बजाय “लाइक्स” और “फॉलोअर्स” के तराजू से अपने अस्तित्व की कीमत आंकने लगी है। हाल ही में मात्र 23 वर्ष की आयु में सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर मीशा का इस दुनिया को अलविदा कह देना एक ऐसा धक्का है जो हमें सोचने पर मजबूर करता है कि क्या अब इंसानी रिश्ते, आत्म-सम्मान और जीवन का अर्थ भी इंटरनेट के एल्गोरिदम से तय होगा? सिर्फ इतना ही नही बल्कि इस प्रबर्ति से भारतीय समाज ही नही बल्कि पूरी दुनिया के सामने मानसिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संकट खड़ा नजर आने लगा है।

वर्तमान समाज एक विचित्र दौर से गुजर रहा है जहां आभासी स्वीकृति को वास्तविक मान्यता समझा जाने लगा है। डिजिटल दुनिया ने व्यक्ति को दूसरों की नज़रों से देखने का आदी बना दिया है। तस्वीरों में मुस्कुराहटें सजाई जाती हैं, लेकिन भीतर घुटन का सागर हिलोरें मारता है। यह दिखावा और स्वीकृति की चाह इस कदर हावी हो चुकी है कि असफलता या अस्वीकृति आत्मघाती बन जाती है। मीशा का मामला हो या 2020 में आत्महत्या करने वाली 18 वर्षीय टिकटॉक स्टार सिया कक्कड़ का,ये घटनाएं केवल व्यक्तिगत त्रासदी नहीं हैं, ये पूरे सामाजिक ताने-बाने के विघटन का संकेत हैं।

भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा सोशल मीडिया उपयोगकर्ता देश है और लगभग 65 प्रतिशत उपयोगकर्ता युवा वर्ग से आते हैं। यह वही वर्ग है जो आत्म-निर्माण की अवस्था में होता है, लेकिन आज यह वर्ग सोशल मीडिया पर “कूल” दिखने की होड़ में अपने अस्तित्व के मूल प्रश्नों से कटता जा रहा है। महंगी कारें, विदेशी ट्रिप्स, ब्रांडेड कपड़े और इंस्टाग्राम-परफेक्ट लाइफ का दिखावा एक झूठा आदर्श गढ़ चुका है, जिसे पाने की चाह ने युवाओं को आत्म-ग्लानि, डिप्रेशन और अंततः आत्महत्या तक धकेल दिया है।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि इस आभासी दुनिया में “ट्रोलिंग” नामक सामाजिक हिंसा ने मानसिक स्वास्थ्य को और भी जटिल बना दिया है। कई उदाहरण हैं जब किसी व्यक्ति की एक छोटी सी गलती या बयान को लेकर उसे सार्वजनिक रूप से अपमानित किया गया, ट्रोल किया गया और उसका मानसिक संतुलन डगमगाने लगा। सोशल मीडिया पर बने रिश्ते क्षणिक होते हैं, पर इनसे उत्पन्न मानसिक दबाव स्थायी बन जाता है। यह विडंबना ही है कि जिसे ‘कनेक्टिविटी’ का माध्यम माना गया था, उसने एक ऐसी ‘डिस्कनेक्टेड’ पीढ़ी को जन्म दे दिया है जो अपनों से, समाज से और अंततः खुद से भी कट चुकी है।

आज स्थिति यह है कि सोशल मीडिया पर वर्चस्व पाने के लिए नाबालिग भी खुद को असामान्य रूप से प्रस्तुत करने लगे हैं। अमेरिका और दक्षिण कोरिया जैसे देशों में यह एक सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट बन चुका है और भारत भी उसी दिशा में बढ़ता प्रतीत होता है। सरकार, शैक्षणिक संस्थाएं, परिवार और खुद प्लेटफॉर्म्स की भी जिम्मेदारी बनती है कि वे इस मानसिक स्वास्थ्य के महासंकट को केवल “निजी मामला” समझकर टालें नहीं।

वर्तमान में हमें इस विषय पर बहस से अधिक संवाद और समाधान की आवश्यकता है। डिजिटल साक्षरता केवल एप्स चलाने की समझ नहीं बल्कि मानसिक, सामाजिक और नैतिक जागरूकता का भी हिस्सा होनी चाहिए। विद्यालयों और महाविद्यालयों में “डिजिटल व्यवहार” और “सोशल मीडिया मैनेजमेंट” को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। साथ ही, कानूनों और नियामक संस्थाओं को भी ट्रोलिंग, साइबरबुलिंग और डिजिटल हिंसा को गंभीर अपराध के रूप में देखना होगा।

यह दौर आत्मचिंतन और सामूहिक प्रयास का है। यह समझना होगा कि जिंदगी की कीमत ‘लाइक्स’ से कहीं अधिक है। यह पुनः परिभाषित करने का समय है कि हम अपने युवाओं को कैसी दुनिया सौंपना चाहते हैं एक आभासी भ्रम में डूबी हुई या एक आत्मविश्वास, स्वीकृति और संबंधों से समृद्ध वास्तविक दुनिया। समय की पुकार है कि हम मीशा की मौत को एक आँकड़ा न बनने दें, बल्कि इसे बदलाव की शुरुआत का बिंदु बनाएं। वरना वह दिन दूर नहीं जब हमारी अगली पीढ़ी के लिए वास्तविकता केवल स्क्रीन तक सीमित रह जाएगी, और ज़िंदगी केवल एक अधूरी पोस्ट बनकर रह जाएगी।

विचलित करते है आंकड़े..

(युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर सोशल मीडिया और साइबरबुलिंग का दुष्प्रभाव)

भारत में सोशल मीडिया, मानसिक स्वास्थ्य और युवाओं में आत्महत्या से संबंधित कई सरकारी और अधिकृत आंकड़े उपलब्ध हैं, जो इस विषय की गंभीरता को उजागर करते हैं:
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार, 2022 में भारत में कुल 1.71 लाख लोगों ने आत्महत्या की, जो अब तक का सबसे अधिक आंकड़ा है। इनमें से 41% आत्महत्याएं 30 वर्ष से कम आयु के युवाओं द्वारा की गईं ।2021 में, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और तमिलनाडु में छात्रों द्वारा आत्महत्या के सबसे अधिक मामले दर्ज किए गए ।
राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NMHS) 2015-16 के अनुसार, भारत में 13.7% वयस्कों ने अपने जीवनकाल में मानसिक विकारों का अनुभव किया है ।

McAfee के एक अध्ययन के अनुसार, भारत में 85% बच्चों ने साइबरबुलिंग का अनुभव किया है, जो वैश्विक स्तर पर सबसे अधिक है ।राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT) द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया कि भारत में 35% छात्रों ने साइबरबुलिंग का अनुभव किया है ।

NCRB के आंकड़ों के अनुसार, 2018 से 2019 के बीच साइबर अपराधों में 63.48% की वृद्धि हुई, जिसमें साइबरबुलिंग प्रमुख अपराधों में से एक है ।

NMHS के अनुसार, 13-17 वर्ष के किशोरों में 7.3% ने मानसिक विकारों का अनुभव किया है, जिसमें अवसाद और चिंता प्रमुख हैं ।विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, भारत में मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का बोझ प्रति 100,000 जनसंख्या पर 2443 विकलांगता-समायोजित जीवन वर्ष (DALYs) है, और आयु-समायोजित आत्महत्या दर प्रति 100,000 जनसंख्या पर 21.1 है ।

ये आंकड़े स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं कि भारत में युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर सोशल मीडिया और साइबरबुलिंग का गंभीर प्रभाव पड़ रहा है। इसलिए, मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता बढ़ाने, साइबरबुलिंग के खिलाफ कड़े कदम उठाने, और युवाओं को समर्थन प्रदान करने के लिए समग्र रणनीतियों की आवश्यकता है।

-up18News

Dr. Bhanu Pratap Singh