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सबसे पहले पार्वती मां को रिझाने भगवान शंकर बने कठपुतली, पढ़िए रोचक जानकारी

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सृष्टि में जब मानव का जन्म हुआ तब से  किसी ना किसी रूप में किसी न किसी तरीके से अपना मनोरंजन करता है| आज हम बात कर रहे हैं 21 मार्च कठपुतली दिवस  की। कठपुतली मनोरंजन का सदियों पुराना एक माध्यम है| कहते हैं भगवान शंकर ने मां पार्वती को रिझाने के लिए व खुश करने के लिए काठ के एक टुकड़े में प्रवेश करके उन्हें अपने हाव भाव से खुश किया। इसी बात से यह पता चलता है कि कठपुतली एक प्राचीन कला है, जिसका जन्म भारत में हुआ था।

कठपुतली दिवस किसने शुरू किया

 इस दिवस को मनाने का विचार ईरान के कठपुतली प्रस्तुत जावेद जोलघरी के मन में आया| वर्ष 2000 में Marionnette, (UNIMA) सम्मेलन के दौरान यह प्रस्ताव विचार के हेतु रखा गया| 2 वर्षों पश्चात इसे वर्ष 2002 के जून माह में अटलांटा में काउंसिल द्वारा सहर्ष स्वीकार कर लिया गया| प्रथम बार इसे वर्ष 2003 में मनाया गया।

कठपुतली के विषय में  

कठपुतली का खेल प्राचीन नाटकीय खेल है जो समस्त  संसार में प्रशांत महासागर के पश्चिम तट से पूर्वी तट तक व्यापक रूप से प्रचलित रहा है। भारत में यह खेल बेहद लोकप्रिय था। उड़ीसा का साखी कुंदेई, आसाम का पुतला नाच, महाराष्ट्र का मालासूत्री बहुली, कर्नाटक की गोंबेयेट्टा, केरल के तोलपवकुथू, आंध्र प्रदेश के थोलु बोमलता इस तरह अलग-अलग देश-प्रदेश में अलग-अलग नामों से पहचानी जाने वाली कलाएं दरअसल कठपुतली के ही रूप हैं। भारत के इस लोकप्रिय खेल के चर्चे अमेरिका, चीन, जापान जैसे देशों में भी होते थे। इंडोनेशिया, थाइलैंड, म्यामांर, श्रीलंका जैसे देश के लोग भी बड़ी संख्या में इस खेल में दिलचस्पी लेते थे। उक्त में से कुछ देशों में आज भी यह कला लोकप्रिय है।

 भारत में पारंपरिक पुतली नाटकों की कथावस्तु  

पौराणिक साहित्य लोक कथाएं और कृतियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है| पहले अमर सिंह राठौर, पृथ्वीराज, हीर रांझा, लैला मजनूं और सीरी-फरहाद की कथाएं भी कठपुतली के खेल में दिखाई जाती थी|यह खेल गुड़िया अथवा पुतलियों द्वारा खेला जाता है| गुड़िया में नर-मादा स्वरूपों द्वारा जीवन के अनेक प्रसंगों की विभिन्न विधियों से इसमें अभिव्यक्ति की जाती है और जीवन को नाटकीय विविध से मंच पर प्रस्तुत किया जाता है| आज भी अनेक होटलों या मैरिज गार्डन में इसकी प्रस्तुति से मेहमानों का मनोरंजन किया जाता हैं।

कठपुतली क्या है

कठपुतली या तो लकड़ी की होती है या प्लास्टर ऑफ पेरिस की या कागज की लुगदी की| उसके शरीर के भाग  इस प्रकार जोड़े जाते हैं उन से बंधी डोर खींचने पर अलग-अलग इन्हें खेल सकें। राजस्थान की कठपुतली सबसे ज्यादा मशहूर हुआ करती थी। लकड़ी के छोटे-छोटे टुकड़ों, जानवरों की खाल से बनी कठपुतलियों को रंगीन चटखदार गोटे, कांच, घुंघरू, चमकदार रेशमी कपड़े से तैयार किया जाता था। जिसके बाद इन पैरहमन (लबादा जैसा वस्त्र) से सजे-धजे इन कठपुतलियों के पात्र सभी का मन मोह लेते थे। बनावट के साथ-साथ इन कठपुतलियों का खेल प्रदर्शन मंत्रमुग्ध करने वाला होता था। राजस्थान में राजा-रानी, सेठ-सेठानी, जमींदार-किसान और जोकर जैसे पात्रों को लेकर कठपुतलियां बनाई जाती थीं।

कठपुतली का वर्तमान

बड़े बुजुर्गों के मुंह से इस कला के किस्से सुनाई देते हैं लेकिन धीरे-धीरे इस कला का प्रचलन कम हो गया लेकिन दोबारा से इस कला को बढ़ावा भी मिल रहा है| यह खेल सिर्फ मनोरंजन ही नहीं करता है बल्कि पौराणिक, ऐतिहासिक और सामाजिक परिवेश के बारे में दिलचस्प ढंग से जानकारी भी देता थहै| यही वजह है दुनिया भर में प्रसिद्ध है|इसलिए फिल्मों में भी इसको प्रदर्शित किया गया। कुछ देशों में आज भी यह कला लोकप्रिय है। कई विदेशी कलाकार राजस्थान आकर इस कला की बारीकियां सीखकर अपने देश में इसका प्रचार-प्रसार करते हैं। राजस्थान में अब भी ऐसे कई परिवार हैं, जिनकी रोजी-रोटी का एकमात्र जरिया कभी सजी-धजी राजस्थानी गुड़िया कठपुतली बनाकर बेचना या उसके खेल दिखाना हुआ करता था। वहां इस कला का इतना महत्व रहा है कि जयपुर में एक मोहल्ला कठपुतली नगर के नाम से जाना जाता है।

rajiv gupta
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राजीव गुप्ता जनस्नेही

लोकस्वर, आगरा