एक रामबाण औषधि भी है चना, खाने से होते हैं क़ई लाभ – Up18 News

एक रामबाण औषधि भी है चना, खाने से होते हैं क़ई लाभ

HEALTH

 

चना और गुड़ सुबह खाली पेट चबा चबाकर खाने से घोड़े जेसी एनर्जी आती है और पाचन ठीक होता है। चने हमेशा भुने हुए और छिलका सहित ही खाना बहुत लाभकारी होता है।

आयुर्वेदिक नाइंटी के अनुसार छिलका युक्त भुने चने खाने से कभी ह्रदय रोग नहीं होते और पाचक रस बनता है जिससे भूख खुलकर लगती है। हाजमा ठीक रहता है। नवीन रक्त, रस और वीर्य का निर्माण होता रहता है। हीमोग्लोबिन कम नहीं होता।

चने के साथ दूध लेने से कफ असंतुलित होता है। चना खाने के बाद 2 घंटे तक पानी नहीं पीना चाहिए अन्यथा शरीर में आलस्य, टूटन बनी रहती है।

अथ चणकः (चना)। तस्य नामानि गुणाबाह
सणको हरिमन्थः स्यात्सकलप्रिय इत्यपि।

चणकः शीतलो रूक्षः पित्तरक्ककफापहः।

लघुः कषायो विष्टम्भी वातलो ज्वरनाशनः।।

चना के संस्कृत नाम

चणक. हरिमन्थ और सकलप्रिय ये हैं चना कषायरसयुक्त, शीतल, रूञ्च, लघु, विष्टम्मक, वातकारक एवम् पित्त-रक्तविकार-कफ तथा ज्वर, संक्रमण का नाशक है।
अथ भर्जनादिभेदेन तस्य गुणभेदानाह

स चाङ्गारेण सम्भृष्टस्तैलभृष्टश्च तद्गुगः।

आर्द्रभृष्टो बलकरो रोचनश्च प्रकीर्त्तितः।।

शुष्कभृष्टोऽतिरुक्षश्च वातकुष्ठप्रकोपणः।

स्विन्नः पित्तकफं हन्यात् सूपः क्षोभकरो मतः॥

आऽतिको मेलो रुच्यः पित्तशुक्रहरी हिमः।

कषायो वातलो ग्राही कफपित्तहरो लघुः॥ –

अर्थात भुने हुए आदि मेड़ों से चने के गुर्गों में भेद –

अङ्गारे ( केवल अग्नि ) से भुने हुये चने के गुण – यदि चना केवल अग्नि से भुना हुआ हो, तो पूर्वोक्त गुणों से युक्त होता है।

तेल में भुना हुआ चना भी पूर्वोक्त गुर्गों से युक्त होता है। गोला मुना हुआ चना – बलदायक तथा रुचिकारक होता है।
सुखा भुना हुआ चना-अस्यन्त रूक्ष एवं वात तथा कुष्ठ को कुपित करने वाला होता है।
उबाला हुआ मसाला युक्त चना– पित्त तथा कफ का नाशक होता है।
चने की रांधी हुई दाल-क्षोभ उत्पन्न करने वाली होती है।
सादे जल में भिगोया हुआ चना- कषाय रसयुक्त, अत्यन्त कोमल, रुचिकारक, शीतल, बातजनक, ग्राही, लघु एवम् पित्त, शुक्र तथा कफ-पित्त को नष्ट करने वाला होता है।
चने के पत्तों के गुण आगे शाकवर्ग में दिये हुवे हैं।

चने के विभिन्न भाषाओं में नाम

हिंदी में चने, छोला, रहिला, बूंट म०- हरबरा, चर्णे | बं० छोला । गु० -तण्या, चणा । क०-फडले | ता० – कहलै । ते० – सनगलु | फा० – नखुद | अ० – इमस | पं०-छोले: अंग्रेजी Gram (ग्राम); Bengal Gram (बेंगाल ग्राम); Chick Pea (चिक पी ) | ले० – Cicer arietinum Linn (सीसर एरीएटीनम्) Fam. Leguminosae (लेग्युमिनोसी)

इस देश के प्रायः सब प्रान्तों में प्रतिवर्ष इसकी खेती की जाती है। इसका चुप-सीधा या फैला हुआ, अनेक शाखायुक्त, १ से ३ फीट ऊंचा एवं रोमश होता है।

चने के पत्ते- पक्षवत् होते है जिनके पत्रक दीर्घवृत्ताम, ६ मि० मी० लम्बे, ४ मि० मी० चौडे, दन्तुर एवं ग्रन्थियुक्त रोर्मों से आवृत रहते हैं।

चने के पुष्प- छोटे, एकाकी तथा पत्रकोण में आते हैं जो विभिन्न प्रकारों में भिन्न-भिन्न रंग एवं नाप के होते हैं।

चने की फली-आयताकार, -१ लम्बी तथा प्रायः दो बीजों से युक्त होती है।

चने के बीज – गोल, नोकदार, ०२ – ००४ इञ्च व्यास के, चिकने या सिकुड़नदार, भूरे, पीले या श्वेत रंग के होते हैं।

चना के पत्तों पर रहने वाले रोम ग्रन्थियों से एक प्रकार का अम्ल स्राव होता है जिसका पहले हरीतक्यादि वर्ग ( पृ० १६२) में ‘चणकाम्ल’ के नाम से वर्णन किया जा चुका है।

चने के रंग तथा नाप के अनुसार कई भेद किये गए हैं जिनमें मुख्य दो वर्ग हैं। प्रथम में सभी रंगों के चने आते हैं । दूसरे में काबुली आते हैं जो सफेद एवं बहुत बड़े होते हैं। कुछ विद्वानों ने काबुली के क्षुप को मिन्न जाति ( Species ) का माना है।

चने का रासायनिक संगठन–

चने में प्रोटीन १७ १, स्नेह ५.३, खनिज २७, रेशा ३९, कार्बोहाइड्रेट ६१.२, खटिक, फास्फोरस, विटामिन ‘ए’ तथा बी१ एवं आर्द्रता ९८ रहती है। छिलके निकाले भुने हुये चने में प्रोटीन २२५, स्नेह ५ २, खनिज २२, रेशा ०, कार्बोहाइड्रेट ५८९, खटिक, फास्फोरस एवं आर्द्रता ११.२ रहती है।

चने के गुण और प्रयोग – चने का विभिन्न रूपों में आहार द्रव्य के रूप में उपयोग किया जाता है ।

कच्चे चने से चनाखार भी बनाते हैं जिसके अनेकों फायदे बताए हैं

अथ चणकाम्लकम् । तस्य गुणानाह
चणकाम्ल कभस्युष्णं दीपनं दन्तहर्षणम्ल।

वणानुरसं रुण्यं शूलाजीर्णविबन्धनुत्॥

चनाखार के नाम तथा गुण – हरीतक्यादिवर्ग

चनाखार को संस्कृत में चणकाम्ल कहते हैं।

चणकाम्लब्अत्यन्त उष्णवीर्य, अग्निदीपक, दन्तहर्षण ( दन्तहर्ष अर्थात् दांतों में खट्टापन लग जाने से चबाने में अस्त्रमर्थ कर देने वाला ), कुछ लवण रस युक्त, रुचिकारक, शूल, अजीर्ण तथा विबन्ध को दूर करने वाला होता है।

चनाखार हि०-चने का खारा, चन्छखार, चनक गु० – चणा नो खार । लोनी, चने का सिरका | म० – हरभऱ्याची आंब।

मार्गशीर्ष के महीने में जब चने के क्षुप लवण युक्त हो जाते हैं तब मलमल का सफेद कपड़ा लेकर प्रतिदिन प्रातःकाल उक्त क्षुप पर फेर, उन पर पड़े हुए ओस की बूँदों से उसको तर कर झुम्चा दे।

इस प्रकार एक मास करके उस कपड़े को पानी में खूब मलकर उसका अम्ल पदार्थ निकाल ले। फिर उस पानी को ५-७ घण्टे स्थिर छोड कर उसका पानी नितार ले । नीचे जमे हुए पदार्थ को सुखा ले और पानी को अग्नि पर औंटा कर उसको भी सुखा ले।

फिर दोनों को एक में मिला कर सुरक्षित रख दें । उपर्युक्त विधि के अतिरिक्त केवल रात में या सुबह मलमल का कपड़ा चने के क्षुप पर डाल कर सुबह उसको निचोड़ लेते हैं।

जो द्रव प्राप्त होता है उसे उसी द्रव रूप में या सुखा कर काम में लाया जाता है। कुछ लोग क्षार निर्माण विधि की तरह चने का क्षुप जलाकर उससे क्षार निकालते हैं वह गलत है क्योंकि उसमें तो केवल क्षार (पोटॅशियम् कार्बोनेट ) ही रहता है। यहां जो गुण दिये गये हैं वे अम्ल के हैं। इसलिये ऊपर दी हुई विधि से ही इसे बनाना चाहिये न कि क्षाररूप में

चनाखार का रासायनिक संगठन –

यद्यपि इसे चनाखार लिखा गया है लेकिन इसमें अम्ल द्रव्य होते हैं । इसमें ऑक्झॅलिक् ( Oxalic ), मॅलिक ( Malic ) एवं अॅसेटिक ( dcetic ) आदि अम्ल पाये जाते हैं ।

चनाखर का गुण और प्रयोग –

चणकाम्ल का उपयोग उदरशूल, अजीर्ण, बच्चों के आमातिसार, अग्नि- मांद्य, विबन्ध तथा कष्टार्तव में किया जाता है। इसको जल में मिला कर लू लगने पर तथा ज्वर में देने से तृषा, दाह एवं सन्ताप कम होता है।

अजीर्ण में इसको सिरका के साथ मिला कर पिलाते हैं । लौंग तथा मिश्री के साथ इसको जल में मिलाकर हैजे में देने से लाभ होता है। मधुमेह एवं पथरी में इसका प्रयोग हानिकारक है ।

मात्रा – १ – २ रत्ती या ५-१० बूंद।

Dr. Bhanu Pratap Singh