प्रायश्चित, आत्मशुद्धि व स्वाध्याय का पर्व श्रावणी उपाकर्म संस्कार : पं. अमित भारद्वाज

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Mathura (Uttar Pradesh, India) मथुरा श्रावण पूर्णिमा को श्रवण नक्षत्र में ब्राह्मणों विशेष रूप से वेदपाठी, धर्माचार्यों , पांडित्यजनों , विदत्जनों द्वारा पुरातन काल से चली आ रही वैदिक काल की परंपरा का निर्वहन श्रावणी उपाकर्म संस्कार  कहलाता है। इस संस्कार का प्रमुख उद्देश्य वर्षभर में ज्ञात व अज्ञात कारणों से हुयी त्रुटि का प्रायश्चित एवं आत्म शुद्धि कर सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त करना है। श्रावणी के तीन अंग है, प्रायश्चित संकल्प, संस्कार व स्वाध्याय।

देव तर्पण, ऋषि तर्पण, पितृ तर्पण, सप्तऋषि पूजन, सूर्योपासना, माँ गायत्री का पूजन का विधान है

यह संस्कार किसी पवित्र नदी व सरोवर के तट पर व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से किया जाता है। हेमाद्रि स्नान किया जाता है। वाह्य व अंतरूकरण की शुद्धि के लिए पंचगव्य (गौदुग्ध, दधि, गृत गौमूत्र, गोवर ) से स्नान व पान किया जाता है। इसके अलावा नदी की रज, भस्म, अपामार्ग, कुशा, अकउआ आदि से वैदिक विधि से मंत्रोच्चार के मध्य वाह्य शुद्धि के लिए स्नान का विधान है। इस प्रक्रिया में देव तर्पण, ऋषि तर्पण, पितृ तर्पण, सप्तऋषि पूजन, सूर्योपासना, माँ गायत्री का पूजन का विधान है। वर्ष भर किये जाने वाले यज्ञोंपवीतो (जनेऊ) का पूजन कर अभिमंत्रित किया जाता है। श्रावणी उपाकर्म श्रावण पूर्णिमा को श्रवण नक्षत्र में करने का विधान है।

श्रावणी करने के बाद अपने यजमानों की रक्षा, समृद्धि के लिए अभिमंत्रित रक्षासूत्र बांधते थे

यजुर्वेदी ब्राह्मण श्रावण पूर्णिमा को करते है। लेकिन ऋग्वेदी व अग्निहोत्र ब्राह्मण श्रावण की नागपंचमी को यदि हस्त नक्षत्र हो तो श्रावणी कर लेते है। यदि नागपंचमी को हस्त नक्षत्र नहीं होता तो वह भी श्रावण पूर्णिमा को ही उपाकर्म करते हैं। श्रावणी उपाकर्म भद्रा में नही किया जाता। प्राचीन काल में परंपरा थी कि पुरोहित, कुलगुरु या आचार्य श्रावणी करने के बाद अपने यजमानों की रक्षा, समृद्धि के लिए अभिमंत्रित रक्षासूत्र बांधते थे। लेकिन वर्तमान में यह परंपरा लगभग समाप्त हो गयी है।श्रावण पूर्णिमा को गायत्री जयंती व संस्कृत दिवस भी है।  

Dr. Bhanu Pratap Singh