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Radhasoami Guru दादा जी महाराज के अनमोल बचन -62: कसूरवार को इस तरह ठीक करते हैं राधास्वामी दयाल

PRESS RELEASE

राधास्वामी मत (Radhasoami Faith) के प्रवर्तक परम पुरुष पूरन धनी स्वामीजी महाराज (Soamiji Maharai) और परम पुरुष पूरन धनी हजूर महाराज (Hazur maharaj) ने इस नश्वर संसार में इस बात के लिए अवतार धारण किया कि जीवों का उद्धार हो सके। उन्होंने जीवों पर अनोखी दया लुटाई, बचन बानी के माध्यम से जीवों को अपने चरनों में खींचा, चेताया और उनका कारज बनाया। उन्होंने गुरुभक्ति और सतगुरु सेवा पर भी विशेष बल दिया और स्पष्ट रूप से कह दिया कि जब तक संपूर्ण जगत का उद्धार नहीं होता, धार की कार्यवाही निरंतर जारी रहेगी, वक्त के गुरु जीवों को चेताते रहेंगे। तब से लेकर आज तक यह सिलसिला जारी है और हजूर महाराज के घर हजूरी भवन, पीपल मंडी, आगरा (Hazuri Bhawan, Peepal mandi, Agra) में वर्तमान सतगुरु दादाजी महाराज (Radha Soami guru Dadaji maharaj) जीवों पर अपनी दया फरमा रहे हैं, उनका भाग जगा रहे हैं। दादा जी महाराज (Prof Agam Prasad Mathur former Vice chancellor Agra university) अपने सतसंग (Radhasoami satsang) में नित्य नवीन बचन फरमाते हैं जिससे यह जीव चेते और चरनों में लगे। उन्हीं बचनों में से कुछ अप्रकाशित वचन पुस्तिका ‘दादा की दात’ में जीवों के कल्याण के वास्ते दिए गए हैं। ये वचन न केवल जीवों के प्रीत प्रतीत को बढ़ाएंगे वरन उनका कारज भी बनाएंगे। यहां हम प्रस्तुत कर रहे हैं दादाजी महाराज के बचनों की श्रृंखला।

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मालिक का एक उसूल है, जो कसूरवार होते हैं उनको चरनों में रखते हैं और चरन रस पिला-पिला कर ठीक करते हैं। जो निकृष्ट हैं वह भी यही रहते हैं। जो ऊंचे हैं वह भी रहते हैं। ऊंचों से कोई परेशानी नहीं, उनको तो प्यार देंगे ही, उनसे तो प्यार करते ही हैं और उनसे जो प्यार किया जाता है उसका प्रभाव सब पर पड़ता है। प्यार प्यारे से किया आता है और उसका हकदार वही होता है जो राधास्वामी मत के उसूलों के अनुसार अपनी जिंदगी का निर्वाह करता है। एक सत्संगी को हर परिस्थिति में मालिक की मौज की तरफ निहारना चाहिए और मौज से मुआफकत करनी चाहिए। जो कुछ भी मौज से होता है, वह हमारे हक में होता है।

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हर उस प्रेमीजन के प्रति खातिर का भाव होना चाहिए, बिरादरी का भाव होना चाहिए जैसे कि किसी परिवार में होता है। परिवार में एक कायदा है कि बड़े-बूढ़ों की इज्जत की जाती है, उनके साथ टकराव और बहस नहीं की जाती है, बराबर वालों से बात की जाती है, छोटों को प्यार दिया जाता है। आजादी के पहले यही रीत थी। इसी में बरतते थे। भले ही आजादी मिल गई हो लेकिन हमारे मौलिक नैतिक मूल्यों में, नैतिक सिद्धांतों में बहुत कमी आई है। अरे, दुख किस पर नहीं आते और कोई उसको क्या दूर कर सकता है लेकिन अपनी सद्भावनाएं, अपना प्यार तो जता सकते हैं, उनके साथ तो रह सकते हैं। वो लोग बहुत ना-शुकरे हैं और मालिक को वो जानबूझकर नाराज करते हैं, जो ऐसे समय पर अपने आपको अलेहदा करते हैं। याद रखिए जो समय आपको दुनिया से अलेहदा करने का है, वह निश्चित तौर पर आपका अपना है, उस समय कीजिए न भजन, भजन नहीं करते, उस समय कीजिए ना सुमिरन, तो सुमिरन नहीं करते, उस समय ध्यान कीजिए तो ध्यान नहीं करते, तब हर तरह की वासना सताती है। काम, क्रोध, लोभ, मोह और सबसे बढ़कर अहंकार। अपनी बात को सबसे मनवाना, खुद किसी की बात को न मानना, इससे बड़ा अपराध कोई दूसरा नहीं है। जानना चाहिए कि सत्संग के हाकिम, सत्संग के मालिक हजूर महाराज हैं और सब उनके सेवक हैं। जिसको जो सेवा उन्होंने दी है, वो उनकी दया और मेहर है। जो सेवक हैं तो आपके अंदर दीनता आनी चाहिए, भक्ति में दीनता है, भक्त वही है जो दीन- अधीनी करता हो।