आचार्य यादराम सिंह ‘कविकिंकर’ का हर भाव ईश्वरीय हो जाए

साहित्य

डॉ. भानु प्रताप सिंह
श्री यादराम सिंह वर्मा से मेरी भेंट तब हुई जब मैं आगरा के अमर उजाला अखबार में रिपोर्टर हुआ करता था। वे अन्य अधिकारियों से अलग दिखते थे। अलग इस मायने में कि उनमें प्रशासनिक अधिकारी होने की ठसक तो थी लेकिन कोई घमंड नहीं था। आगरा से स्थानांतरण के बाद उनसे संपर्क टूट गया।

जैसा कि सबके साथ होता है, श्री यादराम सिंह वर्मा भी 60 वर्ष की आयु के बाद रिटायर हो गए। आगरा में निवास बनाया। उन्हें कुछ फुरसत हुई तो अपने पुराने पत्रकार साथियों के संपर्क में आए। एक दिन मेरे पास भी फोन आया। जिलाधकारी आगरा के पूर्व ओएसडी श्री दिनेश कुमार वर्मा सारथी ने सारथी फाउंडेशन ट्रस्ट बनाया था। ट्रस्ट की मीटिंग के दौरान भेंट हुई। इसी दौरान श्री यादराम सिंह वर्मा ने मुझे अपने कविता की पुस्तकें भेंट कीं।

जब मैंने पुस्तकों का वाचन शुरू किया तो ताज्जुब में पड़ गया कि उनकी प्रत्येक कविता कोई न कोई संदेश दे रही है। वे स्वयं को ‘कविकिंकर’ लिखते हैं  यानी लघुतम कवि। यही तो महान व्यक्तियों की पहचान होती है। वे आचार्य भी हैं। जब बोलते हैं तो आप सुनते ही रह जाते हैं। संस्कृत के तमाम उद्धरणों से श्रोताओं को निहाल कर देते हैं।

मेरी भी साहित्यिक वृत्ति है। साहित्य में रुचि रखने वाले बहुत से लोगों से मेरा प्रत्यक्ष परिचय है। इसके बाद भी कविकिंकर से साहित्यिक परिचय उनके रिटायरमेंट के बाद ही हुई। मुझे इस बात पर भी ताज्जुब है। फिर सोचता हूँ कि किसी ने सत्य ही कहा है- हर चीज का समय निश्चित है।

कविकिंकर ने हाल ही में मुझे अपनी नई पुस्तक भेंट की है- ‘हर भाव ईश्वरीय हो जाए’। वे बोले कि इसकी समीक्षा कर दो। जब मैंने इस पुस्तक को पढ़ना शुरू किया तो तो मस्तिष्क के सारे तार हिल गए। मुझे लगता है कि मेरी हिंदी भाषा ठीक है लेकिन कविकिंकर के इस कविता संग्रह को पढ़कर लगा कि अभी बहुत कुछ सीखना बाकी है।

‘हर भाव ईश्वरीय हो जाए’ पुस्तक की समीक्षा में इतना ही लिख सकता हूँ कि पुस्तक को पढ़ने के लिए पहले आध्यात्मिक होना पड़ेगा, परमसत्ता से तार जोड़ने पड़ेंगे, स्वयं को शुद्ध करना पड़ेगा, भाषा ज्ञान भी सुधारना पड़ेगा। पुस्तक में गेय, अगेय, ईश्वर से अनुनय विनय, परमसत्ता में विलीन होने की तड़प के साथ ही कई कटाक्ष भी किए गए हैं। यह पुस्तक नवीन और पुरातन कविताओं का संग्रह है। कुछ कविताएं तो 1980 के दशक में रचित हैं लेकिन आज भी प्रासंगिक हैं।

वृंदावन शोध संस्थान के अध्यक्ष श्री आरडी पालीवाल (अवकाश प्राप्त आईएएस) ने एक सम्यक दृष्टि में बहुत सी बातें लिख दी हैं। आचार्य यादराम सिंह कविकिंकर ने सत्यं परं धीमहि शीर्षक से पुस्तक में व्यक्त मनोभावों की रूपरेखा बताई है।

यहां मैं कुछ कविताओं की कुछ पंक्तियों को यथावत प्रस्तुत कर रहा हूँ ताकि आपका भी हर भाव ईश्वरीय हो जाए-

आठ अंग एक सँग जोड़ के प्रणाम करूँ जान जन जननि स्व अंक गह लीजिओ ।

काम क्रोध लोभ मोह ममता निवार कर कृष्ण पद पंकज में पुष्ट प्रेम कीजिओ ।।

बुद्धि संस्कार और ज्ञान का प्रसार कर शोक पारावार मात बन अगस्त्य पीजिओ ।

दुष्ट वन्दना औ निन्दा साधु की करूँ तो मात ए री वेदवानी मत साथ मेरा दीजिओ।।

 

कैसे गीत प्रणय का गाऊँ

मधुमय प्रेमसुधा पीने का भामिनि मैं अवकाश न पा

कोस कोस कर किस्मत खोटी। कोई माँग रहा है रोटी।। तन ढकने को एक लँगोटी। कोई छुपने को छत छोटी ।। छोड़ जनार्दन जन की सेवा

कैसे प्रेम की पेंग बढ़ाऊँ..

प्रियदर्शनि दूँ आज बता। है मुरझायी सी प्राण लता ।। अट्टहास करती दानवता । अश्रु बहाती है मानवता ।

सूरज सा तपता लख जग को सूर्यकान्त मणि सा बहजाऊँ।

 

जो सूख गईं बिन पानी के उन सरिताओं का क्या होगा ?

झुक गईं किसी के चरणों में उन कविताओं का क्या होगा ?

उत्तर पाने को तरस गया-गौतम से प्रश्न अहिल्या का-

देवों के हाथों छली गईं हम अबलाओं का क्या होगा ?

 

चढ़ जायं असुर सिंहासन पर तो स्वर्गधाम का क्या होगा ?

जपते हो जिसको काल नेमि-उस राम नाम का क्या होगा ?

होकर व्याकुल श्री हनुमत से सीता ने पूछा प्रश्न यही,

रावण रण में जीत गया तो मानवता का क्या होगा।

 

जो भस्मासुर के हाथ लगे उस महामंत्र का क्या होगा।

बंध जाय दुष्ट की बाहों में उस सिद्ध जंत्र का क्या होगा ?

शंकर से बोलीं पर्वती- यह बात बताओ नाथ हमें।

यदि भीड़ तंत्र में बदल गया लोक तंत्र का क्या होगा ?

 

मैं सुधा खोजता रहता हूँ जहरीले नागों के उर में।

कोयल की कूक खोजता हूँ- कजरीले कागों के सुर में।।

विध्वंसों की आधी में मैं गीत सृजन के गाता हूँ

अंधकार में भटक रहे- सूरज को दीप दिखाता हूँ।।

शौर्य खोजता रहता हूँ कम्पित कापुरुषों के उर में।

मैं सागर की गहराई का उथलापन उसे दिखाता हूँ।।

दो दान जगत को रत्नों का रत्नाकर को समझाता हूँ।

औदार्य खोजता रहता हूँ धनलोभी कृपणों के उर में।।

धर्मवाद की ईर्ष्या को- मैं पावन प्रेम सिखाता हूँ।

जन जन में व्यापक ईश्वर का दर्शन उसे कराता हूँ।।

अध्यात्म खोजता रहता हूँ- भौतिकता के अन्तःपुर में।

 

दिकभ्रमित हो रही कविता को कवि का धर्म बताता हूँ।।

कुरसी के लोभी नेता को मैं राष्ट्र धर्म समझाता हूँ।

 

पुस्तक में कुल 80 कविताएं हैं। पुस्तक का प्रकाशन निखिल पब्लिशर्स ने किया है। 112 पृष्ठ की पुस्तक का मूल्य 125 रुपये है। ऑनलाइन भी उपलब्ध है।

Dr. Bhanu Pratap Singh