नब्बे के दशक में हमने सुना था कि भारत-पाकिस्तान के बीच सरहद पर गोलियां चल रही हैं. लेकिन खबर ये भी थी कि दोनों मुल्क एक-दूसरे को आम भेज रहे हैं. तब इसे ‘मैंगो डिप्लोमेसी’ कहा गया था. आज, 2025 में, बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के प्रमुख प्रोफेसर मुहम्मद यूनुस ने भारत को 1,000 किलो आम भेजे हैं. वही ‘मैंगो डिप्लोमेसी’, जिसके तार सिर्फ कूटनीति से नहीं, बल्कि आस्था, अंधविश्वास और सत्ता के खेल से भी जुड़े हैं.
यह आम का मौसम है. बाजारों में दशहरी, लंगड़ा, चौसा की सुगंध फैली है. लेकिन क्या आप जानते हैं कि एक आम ऐसा भी था, जिसने एक देश की नियति बदल दी, जिसे भगवान की तरह पूजा गया, और जिसके नाम पर किसी की जान भी ले ली गई?
कहानी की शुरुआत: एक आम और एक तानाशाह
बात साल 1968 की है, जगह चीन की राजधानी बीजिंग. पाकिस्तान के तत्कालीन विदेश मंत्री मियां अरशद हुसैन चीन के दौरे पर थे. उन्होंने मुलाकात की चीन के सर्वोच्च नेता माओ ज़ेडॉन्ग से. मुलाकात के दौरान उन्होंने जो भेंट दी, वह ऐतिहासिक साबित हुई – आमों के 40 टोकरे. यह पहली बार था जब कोई नेता विदेश यात्रा पर फलों के साथ पहुंचा था. यह सिर्फ फल नहीं था, यह दोस्ती का प्रतीक था. दो देशों के बीच रिश्तों में मिठास घोलने की कोशिश थी.
अब कहानी में एक ट्विस्ट है. माओ ज़ेडॉन्ग को आम बिल्कुल पसंद नहीं थे. तो उन्होंने क्या किया? उन्होंने ये आम उन मजदूरों को बांटने का आदेश दिया, जो उनके अनुयायी थे और जिन्हें विश्वविद्यालयों में चीन सरकार के खिलाफ हो रहे हिंसक छात्र प्रदर्शनों को रोकने के लिए लगाया गया था.
यहां से कहानी एक ऐसी दिशा लेती है, जिसकी शायद किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी.
“माओ का आशीर्वाद”: जब आम बन गया आस्था का केंद्र
ये वो मजदूर थे जिन्होंने शायद कभी आम देखा भी नहीं था. एक सुनहरे कांच के डिब्बे में रखे इन आमों को देखकर वे इतने भावुक हो गए कि उन्हें लगा ये माओ का दिया हुआ कोई दिव्य आशीर्वाद है. इतिहासकार अल्फ्रेडा मर्क ने अपनी किताब ‘माओज़ गोल्डन मैंगोज़ एंड द कल्चरल रिवोल्यूशन’ में इस घटना का विस्तार से जिक्र किया है.
मर्क लिखती हैं कि जब ये पाकिस्तानी आम बीजिंग यूनिवर्सिटी कैंपस में पहुंचे, तो मजदूर पूरी रात उन्हें निहारते रहे, सूंघते रहे, सहलाते रहे. उन्हें लगा कि माओ ने उन्हें किसी पवित्र वस्तु से सम्मानित किया है. चीनी अधिकारियों ने जब मजदूरों का ये व्यवहार देखा, तो वे हैरान रह गए. लेकिन चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के प्रचार विभाग को इसमें माओ के प्रचार का एक शानदार तरीका नजर आया.
आम की सार्वजनिक झांकी और मोम के पुतले
फिर क्या था! इन आमों को पूरी राजधानी की फैक्ट्रियों में भेजा गया. फैक्ट्रियों में लोगों को सिखाया गया कि आम को कैसे पकड़ना है, उसकी पूजा कैसे करनी है. अगर किसी ने इसे हल्के में लिया तो उसे फटकार मिलती. एक आम को तो कारखाने से एयरपोर्ट तक बैंड बाजे और जुलूस के साथ ले जाया गया. कुछ जगहों पर आम की सार्वजनिक झांकी निकाली गई.
मर्क एक कपड़ा फैक्ट्री का उदाहरण देती हैं, जहां आम के स्वागत में एक भव्य समारोह हुआ. आम को मोम में सुरक्षित करके एक हॉल में रखा गया. मजदूर कतार में खड़े होकर उसे देखने आते और जैसे ही आम दिखाई देता, वे श्रद्धा में सिर झुका देते.
बीजिंग की एक फैक्ट्री में जब आम पहुंचा, तो लोगों में बहस छिड़ गई कि इसे खाया जाए या संभाल कर रखा जाए? आखिरकार फैसला हुआ कि इसे फॉर्मेल्डिहाइड में रखकर सहेजा जाएगा और उसकी मोम की नकलें बनाकर हर मजदूर को दी जाएंगी. इन मोम के आमों को कांच में बंद करके श्रद्धा से रखा गया.
एक जगह जब आम सड़ने लगा, तो मजदूरों ने उसका गूदा पानी में उबाला और उस ‘पवित्र जल’ को चम्मच से पिया. कहा जाता है कि माओ को जब यह बताया गया तो वे हंस पड़े.
भगवान जैसा दर्जा और ‘पवित्र शोरबा’
यह वो दौर था जब चीन में माओ ज़ेडॉन्ग के नेतृत्व में सांस्कृतिक क्रांति अपने चरम पर थी. देशभर में मंदिरों को तोड़ा जा रहा था. मूर्तियों को नष्ट किया जा रहा था. लेकिन ठीक इसी समय, आमों के लिए वेदियां सजाई जा रही थीं. लोग आम को फूल चढ़ाते, श्रद्धा में सिर झुकाते और भजन गाते.
कुछ फैक्ट्रियों में आमों को उबालकर ‘पवित्र शोरबा’ बनाया गया, जिसे एक खास टॉनिक की तरह पिया गया. जल्द ही यह अफवाह फैल गई कि ये आम अमरता देने वाले किसी फल की तरह हैं.
माओ ने खुद इन आमों को नहीं खाया था. इस बात का प्रचार इस तरह किया गया कि माओ ने खुद आम न खाकर मजदूरों में बंटवा दिया है. इस तरह उन्होंने अपने जीवन की लंबी उम्र का बलिदान कर दिया. लोगों को लगा कि माओ ने अपनी खुशियां त्याग दीं, ताकि आम जनता को यह फल मिल सके.
इस तरह, एक आम ने चीनी इतिहास में एक ऐसी जगह बना ली जो शायद दुनिया के किसी और फल को कभी नहीं मिली. आम माओ की शक्ति और मजदूरों की निष्ठा साबित करने का औजार बन गया था.
आम की खुशबू से सराबोर चीन
कम्युनिस्ट पार्टी के प्रचारकों ने इस आम के उन्माद को और भी गहराई से अपनाया. जल्द ही आम की आकृति और खुशबू को लेकर तरह-तरह के घरेलू सामान बनाए जाने लगे – चादरें, वॉशबेसिन, वैनिटी स्टैंड, आम-सुगंध वाला साबुन और यहां तक कि आम के स्वाद वाली सिगरेटें भी.
अक्टूबर 1968 की राष्ट्रीय दिवस परेड में, बीजिंग की झांकी में विशाल पेपर-माशी आम रखे गए थे. देश भर में आम की तस्वीरें तक पूजी जाने लगीं. यहां तक कि दूर गुइझोउ में, हजारों किसान सिर्फ एक आम की फोटोकॉपी के लिए लड़ गए.
कम्युनिस्ट पार्टी के प्रचारकों की टीम ट्रकों पर आमों की असली और नकली प्रतियां लेकर चीन भर में घूमने निकली. जहां भी वे गए, वहां उनका स्वागत ढोल-नगाड़ों और श्रद्धा के साथ हुआ. लोग बेताबी से यह देखने आते थे कि आम असल में दिखते कैसे हैं
एक मजाक और मौत की सजा
लेकिन हर कोई इस पवित्रता की कहानी में भरोसा नहीं कर रहा था. जब ट्रक से यह आम सिचुआन पहुंचा, तो डॉ. हान नाम के एक स्थानीय दंत चिकित्सक ने इसकी तुलना शकरकंद से कर दी.
हालांकि, उन्होंने ऐसा मजाक में कहा था, लेकिन उस दौर में इसे एक ‘ईशनिंदा’ के तौर पर देखा गया. माओ के अपमान के आरोप में डॉ. हान को गिरफ्तार कर लिया गया. उन्हें एक ट्रक के पीछे पूरे शहर में घुमाया गया और अंत में फांसी दे दी गई. सोचिए, एक आम की तुलना ने एक इंसान की जान ले ली!
हालांकि, धीरे-धीरे यह दीवानगी फीकी पड़ने लगी. करीब 18 महीने बाद, मोम के आम, जिनकी पहले पूजा होती थी, अब मोमबत्तियों की तरह इस्तेमाल किए जाने लगे.
माओ का मोम में लपेटा शरीर: आम का एक कड़वा अंत
फिर साल 1976 का दौर आया. माओ ज़ेडॉन्ग बीमार पड़ चुके थे. यह तय था कि माओ की मौत नजदीक है, ऐसे में उनके उत्तराधिकार की जंग तेज हो गई थी. माओ की पत्नी जियांग किंग को पति की जगह लेने के लिए आम का इस्तेमाल करने का ख्याल आया.
जियांग किंग ने उस आम को प्रचार का हथियार बनाने की कोशिश की. उन्होंने फिर से आम मजदूरों को भेजे, समारोह करवाए, भाषण दिए और ‘सॉन्ग ऑफ द मैंगो’ नाम से एक फिल्म भी बनवाई, लेकिन ये प्रयास बेमानी साबित हुए. माओ की मौत के बाद जियांग किंग गिरफ्तार हो गईं.
विडंबना देखिए, माओ ज़ेडॉन्ग की मौत के बाद उनका हश्र भी आम की तरह हुआ. उनके पार्थिव शरीर को एक कांच के केस में मोम की प्रक्रिया से संरक्षित किया गया और उसे हमेशा के लिए बीजिंग के तियानानमेन चौक स्थित ‘म्यूजियम ऑफ माओ ज़ेडॉन्ग’ में सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए रख दिया गया.
यह कहानी बताती है कि कैसे एक सामान्य फल, सत्ता के खेल में मोहरा बन जाता है, आस्था का प्रतीक बन जाता है, और कभी-कभी मौत का फरमान भी. मैंगो डिप्लोमेसी सिर्फ देशों के बीच रिश्तों को मधुर बनाने का जरिया नहीं है, यह एक लंबी, पेचीदा और कई बार खौफनाक कहानी भी कहती है. अगली बार जब आप आम खाएं, तो याद रखिएगा – यह सिर्फ एक फल नहीं, यह इतिहास का एक हिस्सा भी है.
-मोहम्मद शाहिद की कलम से
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