RTE dr sushil gupta

RTE में प्रवेश लेने वाले बच्चे कार से आते हैं स्कूल, जम्मू कश्मीर और मदरसों में लागू नहीं, पढ़िए क्या होना चाहिए

लेख

किसी भी देश का भविष्य उसके नागरिकों पर ही निर्भर होता है। शिक्षा द्वारा ही राष्ट्र की शक्ति व समृद्धि का विकास होता है। वर्तमान में भारतीय शिक्षा दर अनुमानतः 74% है, जो वैश्विक स्तर पर बहुत कम है।  इस अनुपात में और वृद्धि करने के लिए बुद्धिजीवियों ने अपने-अपने सुझाव दिए। उन सभी के सुझावों पर गौर करते हुए भारत सरकार ने शिक्षा को अनिवार्य रूप से लागू करने हेतु शिक्षा का अधिकार कानून (RTE Act) बनाकर पूरे देश में समान रूप से लागू कर दिया। भारत सरकार ने शिक्षा के महत्व को समझते हुए अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा अधिनियम लागू करने का प्रशंसनीय कदम उठाया था ।

शिक्षा का अधिकार (RTE) क्या है ?

भारत ही नहीं विश्व के कई अन्य देशों में भी शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाया गया है। 2 दिसंबर 2002 को संविधान का 86वां संशोधन किया गया, जिसके तहत अनुच्छेद 21 A के अनुसार शिक्षा को मौलिक अधिकार (Fundamental Rights) बनाया गया है। देश में उपरोक्त आयु के बच्चों को अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने के लिए संसद द्वारा 4 अगस्त 2009 को आरटीई अधिनियम पारित किया गया था।

‘शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009’, 1 अप्रैल, 2010 से संपूर्ण भारत में लागू कर दिया गया। इसका प्रमुख उद्देश्य 6-14 वर्ष तक की आयु के सभी बच्चों के लिए मुफ्त एवं अनिवार्य, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को सुनिश्चित करना है। जम्मू-कश्मीर इस अधिनियम की परिधि में शामिल नहीं हैं।

इसके अंतर्गत किसी कारणवश 6 वर्ष से अधिक आयु का बच्चा यदि विद्यालय नहीं जा सका है, तो उसकी आयु के अनुरूप उसे उचित कक्षा में प्रवेश दिलाना  क्षेत्रीय प्रशासन की जिम्मेदारी होगी। आयु प्रमाणपत्र न होने पर भी बच्चा विद्यालय में प्रवेश का पात्र है।

आरटीई एक्ट को 1अप्रैल ,2010 को भारत के सभी राज्यों में (केवल जम्मू -कश्मीर को छोड़कर) लागू किया गया, जिसमें में 38 धाराएँ और 7 अनुच्छेद हैं। इस अधिनियम की कोई भी बात वैदिक पाठशालाओं, मदरसों या ऐसे संस्थान, जो धर्म से जुड़ी कोई शिक्षा प्रदान कर रहे हैं, उनके लिए लागू नहीं होती है।

आरटीई का उद्देश्य

भारत सहित दुनिया में लगभग 135 देशों में शिक्षा का अधिकार अधिनियम (आरटीई) के लागू होने से शिक्षा का अधिकार मौलिक अधिकार है। इस अधिनियम का उद्देश्य देश के अशिक्षित 6 वर्ष से 14 वर्ष के बीच के बच्चों को अनिवार्य शिक्षा प्रदान करना है। इस अधिनियम का उद्देश्य बच्चों को उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सशक्तिकरण के लिए प्रोत्साहित करना, गरीब व अशिक्षित बच्चों को बेसिक और मूल शिक्षा प्रदान करना व उनके विकास में सकारात्मक प्रभाव डालना है।

आरटीई अधिनियम 2009 के तहत उक्त आयु के सभी बच्चों को निशुल्क प्राथमिक शिक्षा प्रदान की जाती है, ताकि उन्हें किसी प्रकार की वित्तीय बोझ के कारण शिक्षा से वंचित न होना पड़े।

आरटीई एक्ट 2009 के 7 अध्याय

इस अधिनियम के अंतर्गत प्रारंभिक विकास, बालक की शिक्षा का अधिकार, समुचित सरकार, स्थानीय प्राधिकारी व माता-पिता के कर्तव्य, विद्यालय एवं शिक्षकों के कार्य, कर्तव्य एवं अधिकार, प्रारंभिक शिक्षा एवं पाठ्यक्रम, शिक्षा अधिकार का संरक्षण एवं प्रकीर्णन आदि सम्मिलित हैं।

क्रियान्वयन तथा सफलता के मार्ग की चुनौतियाँ

अधिनियम के लागू होने के प्रारंभिक वर्षों में 1 किलोमीटर के दायरे में आने वाले विद्यालयों में ही प्रवेश लिया जाता था परंतु अब इसका कड़ाई से पालन नहीं किया जा रहा है।निर्देश तो यह है कि बच्चों को यूनिफॉर्म व पुस्तकें दी जाएँगी परंतु सभी राज्यों में यह व्यवस्था नहीं है तथा यह राशि प्रतिवर्ष नहीं दी जाती है।

आदेश के अनुसार बच्चों को न तो अगली क्लास में पहुँचने से रोका जाएगा, न ही निकाला जाएगा। इससे शिक्षा की गुणवत्ता पर प्रभाव पड रहा है। एक ओर हम साक्षरता पर बल दे रहे हैं और दूसरी तरफ बिना ज्ञान के ही कक्षा में प्रोन्नति दे रहे हैं। क्या यही सर्व शिक्षा अभियान का उद्देश्य है या केवल कागजों पर शिक्षा स्तर की वृद्धि दिखाई देनी चाहिए।

आरटीई के तहत प्रवेश लेने वाले बच्चों पर उपस्थिति की अनिवार्यता का नियम लागू नहीं होता। जो बच्चा विद्यालय में आएगा ही नहीं, पढेगा नहीं, परीक्षा देने के लिए बाध्य नहीं होगा, उसे प्रवेश देकर भी क्या हम वास्तव में शिक्षित कर सकेंगे? क्या यह शिक्षा प्राप्ति के लक्ष्य का उपहास नहीं है?

आरटीई के माध्यम से निजी स्कूलों की 25 फीसदी सीटों पर आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग के बच्चों को निशुल्क प्रवेश दिया जाता है और बच्चे की शिक्षा का खर्च सरकार द्वारा उठाया जाता है। इसके परिणामस्वरूप शिक्षा जगत की रीढ़ निजी विद्यालयों के संचालन में कठिनाई आ रही है क्योंकि राज्य सरकारों द्वारा इसके लिए कोई अतिरिक्त वित्तीय सहायता इन विद्यालयों को नहीं दी जा रही।

सरकार स्कूलों को समय पर क्षतिपूर्ति राशि प्रदान नहीं करती, अतः स्कूल प्रशासन इन बच्चों को प्रवेश देने में आनाकानी करता है। शिक्षा के उत्तरदायित्व का निर्वहन कर रहे विद्यालयों के संचालक अपनी पूंजी लगाकर भी हानि को कब तक सह सकेंगे ?

शिक्षा का अधिकार अधिनियम (आरटीई) बनाया तो इसलिए गया था कि गरीबों के बच्चे भी महंगे पब्लिक स्कूलों में पढ़ सकें,परंतु वास्तविकता यह है कि जहाँ आर्थिक रूप से पिछड़े परिवारों के बच्चे के दाखिले के लिए भटक रहे हैं, वहीं पैसे एवं पहुँच वालों के बच्चे वास्तविक लाभार्थियों की जगह पढ़ रहे हैं। यह देख-सुनकर आश्चर्य होता है कि आरटीई के तहत पढ़ने वाले कई बच्चे कार से विद्यालय आते-जाते हैं। उनके माता-पिता आलीशान घरों में रहते हैं और उनकी मासिक आमदनी निर्धारित आय सीमा से बहुत अधिक  है।

फर्जी आय प्रमाणपत्र बनवाकर निजी विद्यालयों में शिक्षा का अधिकार के तहत दाखिला लेने के मामला आए दिन सामने आ रहे हैं। जांच में पाया जाता है कि संपन्न वर्ग के अभिभावक गलत तरीके से आय प्रमाणपत्र बनवा रहे हैं और आरटीई अधिनियम का दुरुपयोग कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में एक गरीब और जरूरतमंद बच्चे को उसके अधिकार से वंचित रखने के लिए कौन जिम्मेदार होगा?

ऐसे मामले भी सामने आ रहे हैं कि मध्यमवर्गीय परिवार भी स्वयं को निम्न आय वर्ग का दिखाकर आरटीई के अंतर्गत अपने बच्चों को प्रवेश दिलवा रहे हैं।

यह भी सामने आया है कि पूर्व में बच्चा प्राइवेट विद्यालय में सामान्य शुल्क देकर शिक्षा प्राप्त कर रहा था और अगले ही वर्ष आरटीई के अधिकार का दुरुपयोग कर उसी या किसी अन्य विद्यालय में प्रवेश ले लेता है और वास्तविक पात्र के अधिकारों को छीन लेता है।

सरकार द्वारा संचालित विद्यालयों में शिक्षकों की कमी सर्वशिक्षा अभियान की सबसे बड़ी चुनौती है।

सरकारी विद्यालयों में न्यूनतम शिक्षित आँगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को शिक्षण से जोड दिया गया है। ऐसे अप्रशिक्षित शिक्षकों से गुणवत्ता शिक्षा की अपेक्षा कैसे की जा सकती है?

सरकारी स्कूलों के आधारभूत ढाँचे में अनेकों  कमी हैं। शिक्षा के लिए आवश्यक वातावरण के अभाव में गुणवत्ता शिक्षा एक स्वप्न ही है।

निजी विद्यालयों को उनके योगदान के लिए किसी भी प्रकार के प्रोत्साहन और सहायता का पूरी तरह अभाव है। जबकि हम यह मानते हैं कि प्रोत्साहन से गुणवत्ता स्तर में वृद्धि होती है तो सरकार इसके प्रति उदासीन क्यों है ?

सरकारी कार्यालयों में अनावश्यक रूप से विविध नियमों में बाँधकर निजी विद्यालयों के संचालकों का मानसिक उत्पीड़न किया जाता है। सरकार को इस दिशा में आवश्यक कदम उठाने चाहिए।

नियमों को लागू करने से पूर्व संबंधित संस्थाओं के प्रबंध तंत्र अथवा उनसे जुडी एसोसिएशन के प्रतिनिधिमंडल से संवाद का अभाव रहा है। जब कोई भी नियम बनाया जाता है, तब उसके उचित क्रियान्वयन के लिए उससे संबंधित संस्थानों के प्रतिनिधित्व को अनदेखा करना क्या उचित है?

सरकार द्वारा शुल्क प्रतिपूर्ति में अंतर

विभिन्न राज्यों में शासन द्वारा प्रति छात्र दी जाने वाली सहायता राशि में व्यापक अंतर है, जो निम्नांकित है –

  • उत्तराखंड – प्रतिवर्ष 28000 रुपए
  • मेघालय – प्रतिवर्ष 23480 रुपए
  • दिल्ली – प्रतिवर्ष 18830 रुपए
  • महाराष्ट्र – प्रतिवर्ष 17739 रुपए
  • अरुणाचल प्रदेश – प्रतिवर्ष 17000 रुपए
  • केरल – प्रतिवर्ष 15711 रुपए
  • चेन्नई- प्रतिवर्ष 15711 रुपए
  • तेलंगाना – प्रतिवर्ष 15000 रुपए
  • कर्नाटक – प्रतिवर्ष 10000 रुपए
  • तमिलनाडु – प्रतिवर्ष 10000 रुपए
  • उड़ीसा – प्रतिवर्ष 9134 रुपए
  • पंजाब – प्रतिवर्ष 8250 रुपए
  • हरियाणा – प्रतिवर्ष 8250 रुपए
  • उत्तर प्रदेश – प्रतिवर्ष 4500 रुपए
  • राजस्थान – प्रतिवर्ष 4000 रुपए

शिक्षा प्राप्त करना हर बच्चे का मौलिक अधिकार है और केंद्र और राज्य सरकार के इस दिशा में उठाए गए कदम में हम सभी पूरी निष्ठा से सहयोग देने को भी तत्पर हैं पर एक अपेक्षा के साथ कि सरकार द्वारा संचालित विद्यालयों के प्रति छात्र आने वाले खर्च के अनुपात में क्षति प्रतिपूर्ति राशि समय से निजी विद्यालयों को उपलब्ध कराए।

उ.प्र. सरकार द्ववारा  RTE  के तहत प्रवेश लेने वाले छात्रों की फीस क्षति पूर्ति प्रतिमाह 4500 रुपये निर्धारित की गई।

उ. प्र. सरकार के द्वारा संचालित विद्यालयों में एक बच्चे की शिक्षा पर आने वाला खर्च बहुत अधिक है और वहाँ के शिक्षा के स्तर से हम सभी अवगत हैं। इसीलिए गुणवत्ता शिक्षा के लिए बच्चों को निजी विद्यालयों में प्रवेश के लिए सरकार द्वारा भेजा जाता है। अगर शिक्षण के स्तर में गुणवत्ता आवश्यक है तो उस गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए विद्यालयों को दी जाने वाली प्रतिपूर्ति राशि भी सरकार द्वारा प्रति बच्चे शिक्षा पर सरकारी विद्यालयों में किए जाने वाले खर्च के अनुपात में होनी चाहिए।

लखनऊ खंडपीठ द्वारा वाद संख्या 157601/ 2019 के तहत लखनऊ एजुकेशनल एंड ईसथेटिक सोसाइटी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य सरकार के संदर्भ में माननीय उच्च न्यायालय, इलाहाबाद द्वारा 09 सितंबर, 2022 को निर्णय दिया गया कि RTE  की नियमावली, 2011 के नियम 8 (2) के अनुसार फीस प्रतिपूर्ति राशि की पुनः गणना करके शासनादेश जारी किया जाए। इस याचिका में सरकार से प्रतिपूर्ति राशि को समय से उपलब्ध कराने की भी माँग की गई है।

इस संबंध में यद्यपि इस सत्यता को भी नकारा नहीं जा सकता कि सरकार द्वारा शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने विषयक इस अधिनियम को पारित कराने की एक बड़ी चुनौती से तो निपट लिया गया है, लेकिन अब उसके समक्ष इससे भी बड़ी चुनौती उत्पन्न हो गई है और वह है इस अधिनियम को समुचित रूप से क्रियान्वित करने के लिए वांछित धनराशि की व्यवस्था करना तथा समयबद्ध तरीकों से उसके भली-भांति उपयोग को सुनिश्चित करते हुए निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करना ।

केन्द्र सरकार के साथ-साथ इस अधिनियम के समुचित रूप से क्रियान्वयन में राज्य सरकारों की भी अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका रहेगी,  तभी हम प्राथमिक शिक्षा को वास्तविक अर्थों में मौलिक अधिकार के रूप में प्रतिष्ठापित होते हुए देख पाएंँगे ।

यह उम्मीद की जाती है कि राज्य तथा केंद्र सरकारों के परस्पर सहयोग व समस्त देशवासियों के संयुक्त प्रयास से भारत देश एक शिक्षित राष्ट्र बनने की ओर अग्रसर होगा तथा एक विकसित देश बन पाएगा।

तब स्वतः ही किसी कवि की यह पंक्ति सार्थक हो जाएँगी-

पढ़ा-लिखा हो हर इंसान, तब ही होगा देश महान।

-डॉ. सुशील गुप्ता

निदेशक, प्रिल्यूड पब्लिक स्कूल, दयाल बाग, आगरा

अध्यक्ष, एसोसिएशन ऑफ़ प्रोग्रेसिव स्कूल्स ऑफ़ आगरा

उपाध्यक्ष – इनीशिएटिव नेशनल इंडिपेंडेंट स्कूल्स अलायंस

क्षेत्रीय संयोजक (उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखंड), नेशनल इंडिपेंडेंट स्कूल्स अलायंस

राष्ट्रीय दूत, नीसा ग्रीन स्कूल्स प्रोग्राम

राष्ट्रीय संयोजक, नीसा एजुकेशन केअर फंड

उपाध्यक्ष, आगरा सिटी रीअल एस्टेट डेवलपमेंट ऑर्गेनाइजेशन (REDCO)

Dr. Bhanu Pratap Singh