मुंबई (अनिल बेदाग)। भारतीय रंगमंच में जब आस्था, दर्शन और आधुनिक दृश्यात्मक तकनीक एक साथ मंच पर उतरती हैं, तो प्रस्तुति केवल नाटक नहीं रह जाती—वह चेतना की यात्रा बन जाती है। ऐसी ही एक विलक्षण और आत्मिक अनुभूति है “मेरे भीतर का कृष्ण”, जो श्रीकृष्ण की दिव्य कथा को रंग, राग और संवेदना के माध्यम से जीवंत करती है।
करीब 2 घंटे 45 मिनट की इस भव्य नाट्य प्रस्तुति में 20 सशक्त दृश्यों के माध्यम से दर्शकों को वृंदावन की माखन-मिश्रित बाल लीलाओं से लेकर द्वारका के मौन और विराट अंतिम क्षणों तक ले जाया जाता है। यह नाटक श्रीकृष्ण को केवल पूज्य देवता के रूप में नहीं, बल्कि संवेदनशील, प्रश्नकर्ता और मार्गदर्शक के रूप में प्रस्तुत करता है—उन पहलुओं को उजागर करते हुए जिन पर रंगमंच में अपेक्षाकृत कम विमर्श हुआ है।
श्रीकृष्ण की भूमिका में सौरभ राज जैन अपनी दिव्य शांति, करुणा और संतुलित अभिनय से मंच को आलोकित करते हैं। राधा और महामाया के द्वैत रूप में पूजा बी शर्मा प्रेम और चेतना—दोनों की गहराइयों को स्पर्श करती हैं। वहीं दुर्योधन और कंस जैसे जटिल नकारात्मक पात्रों में अर्पित रांका संघर्ष, सत्ता और प्रश्नों की तीक्ष्णता को धार देते हैं।
नाटक का निर्देशन राजीव सिंह दिनकर ने किया है, जिनकी परिकल्पना रंगमंच को देखने से आगे बढ़ाकर अनुभव करने की प्रक्रिया बना देती है। निर्माण की जिम्मेदारी विवेक गुप्ता, राजीव सिंह दिनकर और विष्णु पाटिल ने संभाली है। लेखन डॉ. नरेश कात्यायन का है, जबकि मौलिक संगीत उद्भव ओझा की रचना है, जो भावनाओं को सुरों में ढाल देता है।
नाट्यकला, संगीत, नृत्य और मल्टीमीडिया का संतुलित संयोजन इस प्रस्तुति को इमर्सिव थिएटर अनुभव में बदल देता है—जहाँ प्रकाश, ध्वनि और स्थान भावनाओं की भाषा बन जाते हैं।
निर्देशक राजीव सिंह दिनकर कहते हैं, “यह प्रस्तुति पूजा का मंचन नहीं, जागरूकता का आमंत्रण है। मैं नहीं चाहता कि दर्शक यह पूछते हुए जाएँ कि ‘कृष्ण कौन हैं?’—मैं चाहता हूँ कि वे भीतर से कृष्ण को महसूस करें। शब्दों में बाँधना कठिन था, इसलिए हमने स्थान, प्रकाश और ध्वनि को भाषा बनाया। हर दृश्य एक चलती हुई पेंटिंग है।”
श्रीकृष्ण की भूमिका निभा रहे सौरभ राज जैन का कहना है,
“यह किरदार निभाना नहीं, जीना है। यहाँ कृष्ण भगवान से पहले मित्र, मार्गदर्शक और दार्शनिक हैं। इस नाटक ने मुझे भी भीतर से बदल दिया है।”
वहीं पूजा बी शर्मा कहती हैं, “राधा प्रेम हैं और महामाया चेतना। दोनों को निभाते हुए स्त्री ऊर्जा के दो अत्यंत शक्तिशाली रूपों को महसूस किया।”
कुल मिलाकर, “मेरे भीतर का कृष्ण” रंगमंच पर उतरती वह चेतना है, जो दर्शकों को प्रश्नों, अनुभूतियों और आत्म-अन्वेषण की एक दिव्य यात्रा पर आमंत्रित करती है—और लंबे समय तक स्मृतियों में जीवित रहती है।
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