हिंदी के मशहूर समालोचक और साहित्यकार डॉक्टर नामवर सिंह की आज पुण्यतिथि है। 28 जुलाई 1926 को वर्तमान चंदौली जिले के गांव जीयनपुर में पैदा हुए नामवर सिंह का निधन 19 फरवरी 2019 को हुआ था।
उपन्यास लेखक हजारी प्रसाद द्विवेदी के प्रिय शिष्य रहे नामवर सिंह विशुद्ध आलोचना के प्रतिष्ठापक तथा प्रगतिशील आलोचना के प्रमुख हस्ताक्षर थे।
अत्यधिक अध्ययनशील तथा विचारक प्रकृति के नामवर सिंह हिन्दी में अपभ्रंश साहित्य से आरम्भ कर निरन्तर समसामयिक साहित्य से जुड़े रहे।
उन्होंने हिन्दी साहित्य में एमए व पीएचडी करने के पश्चात् काशी हिंदू विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य किया लेकिन 1959 में चकिया चन्दौली के लोकसभा चुनाव क्षेत्र से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार बतौर चुनाव लड़ने तथा असफल होने पर बीएचयू छोड़ने के कारण क्रमश: सागर विश्वविद्यालय और जोधपुर विश्वविद्यालय में भी अध्यापन किया। बाद में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में नामवर सिंह ने काफी समय तक अध्यापन कार्य किया। अवकाश प्राप्त करने के बाद भी वे उसी विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केन्द्र में इमेरिट्स प्रोफेसर रहे। वह हिन्दी के अतिरिक्त उर्दू, बांग्ला एवं संस्कृत भाषा भी जानते थे।
वह हिंदी आलोचना के शलाका पुरुष थे। साहित्य अकादमी ने जब अपनी सर्वाधिक प्रतिष्ठित महत्तर सदस्यता प्रदान की तो तत्कालीन अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने कहा था, ‘नामवर सिंह की आलोचना जीवंत आलोचना है। भले ही लोग या तो उनसे सहमत हुए अथवा असहमत, लेकिन उनकी कभी उपेक्षा नहीं हुई।’
आलोचक निर्मला जैन का कहना था कि नामवर सिंह के जीवन में जो समय संघर्ष का समय था वह हिंदी साहित्य के लिए सबसे मूल्यवान समय रहा, क्योंकि इसी समय में नामवर सिंह ने गहन अध्ययन किया। आज जब नामवर सिंह नहीं हैं तो उनके बारे में कही गई एक–एक बात याद आती है।
नामवर सिंह की पहली कविता बनारस की ‘क्षत्रिय मित्र’ पत्रिका में छपी। 1956 में उन्होंने ‘पृथ्वीराज रासो की भाषा’ विषय पर पीएचडी की।
फिर 1965 में ‘जनयुग’ साप्ताहिक के संपादक के रूप में दिल्ली आ गए. इसी दौरान दो वर्षों तक राजकमल प्रकाशन के साहित्यिक सलाहकार भी रहे. 1967 से ‘आलोचना’ त्रैमासिक का संपादन शुरू किया. 1970 में राजस्थान में जोधपुर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के रूप में नियुक्त हुए और हिंदी विभाग के अध्यक्ष बने।
नामवर सिंह की प्रकाशित कृतियां
बक़लम ख़ुद – 1951 ई (व्यक्तिव्यंजक निबंधों का यह संग्रह लम्बे समय तक अनुपलब्ध रहने के बाद 2013 में भारत यायावर के संपादन में फिर आया। इसमें उनकी प्रारम्भिक रचनाएं, उपलब्ध कविताएं तथा विविध विधाओं की गद्य रचनाएं एक साथ संकलित होकर पुनः सुलभ हो गई हैं।
शोध
हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग – 1952, पुनर्लिखित 1954
पृथ्वीराज रासो की भाषा – 1956, संशोधित संस्करण ‘पृथ्वीराज रासो: भाषा और साहित्य’ नाम से उपलब्ध
1971 में ‘कविता के नए प्रतिमान’ पुस्तक पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. 1974 में थोड़े समय के लिए कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी हिंदी तथा भाषाविज्ञान विद्यापीठ आगरा के निदेशक बने। उसी साल दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केंद्र में हिंदी के प्रोफेसर के रूप में नियुक्त हुए और 1992 तक वहीं बने रहे। वर्ष 1993 से 1996 तक राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन के अध्यक्ष रहे।
दो बार महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलाधिपति रहे. आलोचना त्रैमासिक के प्रधान संपादक के रूप में उनकी सेवाएं लंबे समय तक याद रखी जाएंगी। जैसाकि कवि लीलाधर मंडलोई ने कभी कहा था कि नामवर सिंह आधुनिकता में पारंपरिक हैं और पारंपरिकता में आधुनिक। उन्होंने पत्रकारिता, अनुवाद और लोकशिक्षण का महत्त्वपूर्ण कार्य किया, जिसका मूल्यांकन होना अभी शेष है।
-Legend News
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