सुनहरे दौर के मशहूर शायर और गीतकार कैफ़ी आज़मी का आज जन्मदिन है। 19 जनवरी 1919 को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ में जन्मे कैफ़ी आज़मी की मृत्यु 10 मई 2002 को मुंबई में हुई।
बहुत कम लोग जानते हैं कि ‘मकान’ जैसी लोकप्रिय नज़्म लिखने वाले कैफ़ी साहब ज़िंदगी भर किराये के मकान में ही रहे, वो कभी अपने लिए एक घर नहीं खरीद सके।
बीसवीं सदी के महानतम शायरों और गीतकारों में से एक कैफ़ी आज़मी अपने आप में एक व्यक्ति न होकर एक संस्था थे। उनकी रचनाओं में हमारा समय और समाज अपनी तमाम खूबसूरती और कुरूपताओं के साथ नज़र आता है पर क्या आप जानते हैं कलम के इस जादूगर को अपने कलमों से बेहद प्यार था?
इस बारे में शबाना बताती हैं कि– ”अब्बा के पास कोई और पूंजी नहीं थी, सिवाय उनके कलमों के। उन्हें अलग-अलग तरह की कलमें जमा करने का शौक था। ‘मोर्बलांग’ पेन उनका फेवरेट था। वो अपने पेन को ठीक कराने के लिए विशेष रूप से न्यूयॉर्क के फाउंटेन पेन हॉस्पिटल भेजते थे और वो बड़े प्यार से अपने कलमों को रखते थे। बीच-बीच में उन्हें निकाल कर, पोंछ कर फिर रख देते। मैं जहां भी जाती उनके लिए कलम ज़रूर लाती। हर बार उनको कलम ही चाहिए होता। कलमों के प्रति कमाल की दीवानगी थी उनमें।”
शबाना आगे कहती हैं कि- “कैफ़ी आज़मी एक ख़ास तरह के कागज़ पर अपने फेवरेट कलम से लिखते थे। उनका राइटिंग टेबल भी ख़ास तरह का हुआ करता लेकिन अब्बा की एक आदत थी। जब भी कुछ लिख कर भेजने की डेडलाइन होती तो उस दिन उन्हें सबसे ज्यादा चिंता अपने कमरे और टेबल की साफ़-सफाई की होती। वो अपना दराज़ साफ़ करते, तभी उनको याद आता कि कई ख़त के जवाब भी उन्होंने नहीं दिए। फिर वो हर उस काम में लग जाते जो उस वक़्त गैर-ज़रूरी होता लेकिन सच तो यही था कि ये उनके रचनात्मकता का ही एक हिस्सा था। उनके ज़ेहन में उस विषय पर चीजें चलती रहतीं और साफ़-सफाई करते हुए ही वो गीत रच लिया करते।”
अब्बा को याद करते हुए शबाना कहती हैं कि– “उनके कमरे का दरवाज़ा हमेशा खुला रहता। हमारे घर में कभी कोई रोक-टोक नहीं हुआ करती कि अब्बा लिख रहे हैं तो उन्हें डिस्टर्ब नहीं करना। हम बेधड़क उनके कमरे में चले जाते और वो बड़े प्यार से हमारे हर तरह के फ़िज़ूल सवालों का जवाब दिया करते।”
शबाना के मुताबिक- जब भी कैफी साहब कुछ लिखते तो ये नहीं कहते कि ये लिखा सुनोगी, वो हमेशा कहते कि एक नज़्म हुआ है सुनोगी? जैसे वो कुछ नहीं लिखते बल्कि कोई अदृश्य ताकत है जो उनसे ये सब लिखवाती है।
प्रोग्रेसिव राइटर्स के अगुआ लोगों में रहे कैफी के बारे में शबाना ने बताया कि उनके कथनी और करनी में कभी कोई अंतर नहीं रहा। अगर वो महिलाओं के हक की बात लिखते थे तो वो घर-परिवार, समाज की महिलाओं को भी बराबरी का दर्ज़ा देते थे। शबाना कहती हैं कि अपने जीवन के अंतिम दिनों में कैफी साहब को जब ब्रेन हेमरेज के बाद पैरालिसिस अटैक हुआ तो उन्होंने अपने गांव मिज़वां जाने की इच्छा जताई। उस गांव में जहां सड़कें नहीं थीं, बिजली नहीं था, औरतों की स्थिति काफी दयनीय थी, तो वहां भी वो चुप नहीं बैठे। मिजवां में उन्होंने उन सबके हक़ में इसी नाम से एक एनजीओ शुरू किया और तब जब उस गांव का नाम तक लोग नहीं जानते थे आज उसे सब जानते हैं, वहां चीज़ें धीरे-धीरे बदलनी शुरू हुईं। जो कैफ़ी आज़मी जीवन भर अपने लिए एक घर नहीं बना सके उन्होंने कई घरों में रौशनी पहुंचाने का काम किया।
कैफ़ी का जन्म आज़मगढ़ के एक गाँव मिजवाँ में हुआ. घर का माहौल धार्मिक था लेकिन मिजवाँ से जब धार्मिक तालीम के लिए लखनऊ भेजे गए तो धार्मिकता में आप ही आप सामाजिकता शामिल होती गई और इस तरह वह मौलवी बनते-बनते कॉमरेड बन गए।
इस पहली वैचारिक तब्दीली के बाद उनकी सोच में कोई दूसरी तब्दीली नहीं आई। वह जब से कॉमरेड बने हमेशा इसी रास्ते पर चले और देहांत के वक़्त भी उनके कुर्ते की जेब में सीपीआई का कार्ड था।
उनका जन्म एक शिया घराने में हुआ था. इस घराने में हर साल मोहर्रम के दिनों में कर्बला के 72 शहीदों का मातम किया जाता था।
कैफ़ी भी अपने बचपन और लड़कपन के दिनों में इन मजलिसों में शरीक होते थे और दूसरे अक़ीदतमंदों की तरह हज़रत मोहम्मद के नवासे और उनके साथियों की शहादतों पर रोते थे।
कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ने के बाद भी उनका रोना तो बदस्तूर जारी रहा। फ़र्क सिर्फ़ इतना हुआ कि पहले वह धर्म-अधर्म की लड़ाई में केवल चंद नामों का ग़म उठाते थे, बाद में इन चंद नामों पर लाखों-करोड़ों पीड़ितों का प्रतीक बनाकर सबके लिए आँसू बहाते थे।
शोषित वर्ग के शायर
कैफ़ी की पूरी शायरी अलग-अलग लफ़्ज़ों में इन्हीं आँसुओं की दास्तान है।
दूसरे कम्युनिस्टों की तरह उन्हें नास्तिक कहना मुनासिब नहीं। उनका साम्यवाद भी उनके घर की आस्था का ही एक फैला हुआ रूप था।
दोनों के नाम ज़रूर एक दूसरे से मुख़्तलिफ़ थे लेकिन आत्मा एक ही थी।
समाज में हर शोषणकर्ता अब उनके लिए यज़ीद था (यज़ीद के सिपाहियों के हुक्म पर ही पैगंबर मौहम्मद के नाती हज़रत हुसैन को क़त्ल किया गया था) और संसार के हर शोषित में उन्हें ‘हुसैनियत’ नज़र आती थी।
वह समाज के शोषित वर्ग के शायर थे। उसी के पक्ष में क़लम उठाते थे। उसी के लिए मुशायरों के स्टेज से अपनी नज़्में सुनाते थे।
कैफ़ी आज़मी सिर्फ शायर ही नहीं थे। वह शायर के साथ स्टेज के अच्छे ‘परफ़ॉर्मर’ भी थे।
इस ‘परफ़ॉर्मेंस’ की ताक़त उनकी आवाज़ और आवाज़ के उतार चढ़ाव के साथ मर्दाना क़दोक़ामत और फ़िल्मी अदाकारों जैसी सूरत भी थी।
शायरी किताबों में भी पढ़ी जाती है और सुनी भी जाती है. लिखने की तरह इसकी अदायगी भी एक कला है।
शायरी और इसकी अदायगी, ये दोनों विशेषताएँ किसी एक शायर में मुश्किल से ही मिलती है। और जब ये मिलती है तो शायर अपने जीवन काल में ही लोकप्रियता के शिखर को छूने लगता है। अदब के आलोचक भले ही कुछ कहें लेकिन यह एक हक़ीकत है।
भारतीय काव्य के साथ मौखिक परंपरा हमेशा से रही है. संत संगतों में अपनी वाणियाँ दोहराते थे और शायर-कवि श्रोताओं को कलाम सुनाते थे।
कैफ़ी आज़मी इसी परंपरा से जुड़े शायर थे। यह परंपरा उन्हें बचपन में मोहर्रम की उन मजलिसों से मिली थी, जिनमें मर्सिए (शोक-गीत) सुनाए जाते थे।
सुनाने वाले आँखों और हाथों के हाव-भाव और आवाज़ के उतार-चढ़ाव से सुनने वालों को जब चाहे हँसाते थे, जब चाहे रुलाते थे और कभी उनसे मातम करवाते थे।
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