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75 वर्ष का हुआ अमर उजाला आगरा, 84 पेज का अखबार निकाला, 344 लोगों को नायक बताया

लेख

डॉ. भानु प्रताप सिंह

अमर उजाला आगरा की स्थापना 18  अप्रैल 1948 को हुई थी। 18 अप्रैल 2023 को पूरे 75 साल का हो गया अमर उजाला आगरा। लम्बी यात्रा है यह। तब से अमर उजाला की विश्वसनीयता लगातार बढ़ी है। अमर उजाला ने आगरा में 75 साल के सफर पर 84 पेज का विशेषांक निकाला है। अमर उजाला से लम्बे समय तक जुड़े रहे डॉ. भानु प्रताप सिंह ने 6 दिसम्बर, 1992 को अयोध्या में अमर उजाली की ओर से रिपोर्टिंग की थी। तब का संस्मरण प्रकाशित किया गया है।

मुख्य अखबार 16 पेज का है। एक टुकड़ी 20 पेज की है । इसमें  भूपेन्द्र सिंह, अजीम यूसुफ, धर्मेन्द्र यादव, विजय गोयल, डॉ. हर्षदेव, अमित कुलश्रेष्ठ, आदर्श नंदन गुप्त, रैना पालीवाल के आलेख हैं। इसी टुकड़ी के पेज 11 पर डॉ. भानु प्रताप सिंह का आलेख है। एक टुकड़ी छह पेज की है, जिसके मुख पृष्ठ पर 270 और अंदर 74 लोगों के फोटो प्रकाशित किए हैं, जिन्हें अमर उजाला ने शहर का नायक माना है। स्थानीय लोगों से ही नायक चुनने के लिए कहा गया था। अंदर के 74 नायकों में ऐसी हस्तियां शामिल हैं, जिन्होंने अपनी दम पर मुकाम हासिल किया है। इस टुकड़ी में कोई विज्ञापन नहीं है। छह पेज की माई सिटी के हैं। 28 पेज में आलेख हैं। रंगकर्मी अनिल शुक्ल, पद्मश्री डॉ. उषा यादव, डॉ. सुरेन्द्र सिंह, धर्मेन्द्र त्यागी, ममता त्रिपाठी, प्रमोद कुमार कादिर, सलोनी पांडे, सिद्धार्थ चतुर्वेदी, अमित कुलश्रेष्ठ, आशीष शर्मा के आलेख पठनीय हैं हैं।

अमर उजाला ने  अयोध्या  में रिपोर्टिंग का आलेख मांगा था। मैंने जैसा आलेख भेजा, मूल रूप से यहां प्रस्तुत कर रहा हूँ-

1990 और 1992 में कारसेवाः अमर उजाला ने घाटा रहा लेकिन सत्य के मार्ग से विचलित नहीं हुआ

डॉ. भानु प्रताप सिंह

विश्व हिन्दू परिषद ने श्रीराम जन्मभूमि को मुक्त कराने के लिए 30 अक्टूबर, 1990 को अयोध्या में कार सेवा की घोषणा की थी। उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री  मुलायम सिंह यादव ने बयान दिया कि अयोध्या में परिंदा भी पर नहीं मार सकता। इसके बाद भी हजारों कारसेवक अयोध्या पहुंच गए। कीर्तन करते हुए बाबरी मस्जिद की ओर बढ़े तो मुलायम ने गोली चलवा दी। पांच कारसेवक मारे गए। इसके बाद दो नवम्बर, 1990 को हजारों कारसेवक हनुमान गढ़ी तक पहुँच गए। फिर गोली चलवा दी। डेढ़ दर्जन कारसेवक मारे गए। इस घटना के बाद मुलायम सिंह को मुल्ला मुलायम सिंह कहा जाने लगा।

 

1990 की कारसेवा में अमर उजाला ने नहीं खोया संयम

अयोध्या की इस घटना का आगरा से सीधा संबंध है। 1990 में मैं दैनिक जागरण में प्रशिक्षु रिपोर्टर था। अमर उजाला नम्बर-1 अखबार था। अमर उजाला में प्रकाशित खबर को ही सटीक माना जाता था। 1990 की कारसेवा में अमर उजाला ने संयत तरीके से रिपोर्टिंग की। जो प्रत्यक्ष था, वही प्रकाशित किया। एक अखबार पढ़कर लग रहा था कि यह स्वयं कारसेवा कर रहा है। इस कारण कारसेवा को अतिरंजित तरीके से प्रकाशित कर रहा था। सांप्रदायिक सद्भाव बिगड़ने की भी चिन्ता नहीं थी। अमर उजाला पर दबाव था कि स्थानीय हिन्दूवादी नेताओं के उल्टे सीधे बयान छापे। एक बार विज्ञप्ति आई कि मुलायम सिंह के हाथ-पांव काट दिए जाएंगे। पत्रकारीय मानदंडों के चलते अमर उजाला ने यह बयान प्रकाशित नहीं दिया। अन्य अखबारों ने छापा। इस कारण ऐसी स्थिति आ गई कि वह अखबार अमर उजाला से भी आगे निकल गया। उन दिनों अखबारों में प्रसार के लिए युद्ध होता था। प्रसार से ही विज्ञापन की दर तय होती है। अमर उजाला ने घाटा स्वीकार किया लेकिन संयम नहीं खोया, साम्प्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने वाला कोई काम नहीं किया, क्षणिक लाभ के लिए पत्रकारीय मानदंडों से खिलवाड़ नहीं किया।

 

जब हकीकत आई सामने

कारसेवा का ज्वार शांत हुआ तो हकीकत सामने आई। अन्य अखबारों का झूठ सबके सामने आ गया। अखबार हो या कोई व्यक्ति, उसकी साख ही सबकुछ है। अन्य अखबारों की साख मिट्टी में मिल गई। अमर उजाला द्वंद्व् के बीच विजेता बनकर निकला। कहते हैं न कि झूठ के पांव नहीं होते हैं। वही हुआ। घाटा सहकर भी सत्य के मार्ग से विचलित न होने पर अमर उजाला की सर्वत्र प्रशंसा होने लगी। कारसेवा के दौरान यही लोग अमर उजाला पर कांग्रेसी होने का दाग लगा रहे थे।

 

अयोध्या के लिए आगरा से मेरा चयन

विश्व हिन्दू परिषद ने राम जन्मभूमि को मुक्त कराने के लिए फिर कारसेवा की घोषणा की गई। तारीख तय की गई छह दिसम्बर, 1992। अमर उजाला आगरा कार्यालय में नवम्बर, 1992 के अंतिम सप्ताह में संपादक अजय अग्रवाल और श्री सुभाष राय ने पूरे स्टाफ के साथ बैठक की। 1990 के घटनाक्रम से सबक लेते हुए कारसेवा को विधिवत रूप से कवर करने की बात कही। खुली बैठक में गया कि आगरा से कौन अयोध्या जा सकता है। चुप्पी छा गई। मैंने कहा- मैं अयोध्या जाऊंगा। उस समय मैं काफी दुबला-पतला था। 25 वर्ष का था। जोश था। आगरा में हिन्दू-मुस्लिम बीट भी देखता था। इसलिए हिन्दूवादियों से निकटता थी। मेरा चयन कर लिया गया। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा।

 

अमर उजाला की टीम

भीषण सर्दी थी। मेरे पास सर्दी से बचाव के लिए पर्याप्त वस्त्र तक नहीं था। सिटी इंचार्ज राजीव दाधीचि ने एक ओवरकोट दिया। भइयूजी ने नकद राशि दी। ट्रेन में बैठाकर अयोध्या रवाना कर दिया। अयोध्या में अमर उजाला की एक टीम पहले से ही कार्यरत थी। बरेली से आशीष अग्रवाल, मेरठ से सुनील छइयां (छायाकार), अयोध्या से ओंकार सिंह, दिल्ली से अरविन्द कुमार सिंह और आगरा से मैं यानी भानु प्रताप सिंह। हमें निर्देश था कि कोई भी सूचना मिले, उसकी क्रॉस चेकिंग करनी है। सत्य सूचना ही देनी है। इसका कारण यह था कि कारसेवा को लेकर तमाम तरह की अफवाहें हवा में तैरती रही थीं। अगर इनके आधार पर समाचार प्रकाशित करते तो पूरे देश में आग लग जाती।

 

मेरे पास सटीक सूचनाएं

कारसेवा का उत्तरदायित्व श्री चंपत राय पर था, जो उस समय विश्व हिन्दू परिषद बृज प्रांत के संगठन मंत्री थे और इस समय श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र के महासचिव हैं। इस कारण मेरे पास सटीक सूचनाएं रहती थीं। स्थानीय स्तर की अनेक सूचनाएं ओंकार सिंह के पास रहती थीं। मैं अरविन्द कुमार सिंह के साथ रहता था। अमर उजाला के सभी संस्करणों में मेरे नाम से समाचार प्रकाशित होते थे। इस कारम आशीष अग्रवाल मुझसे चिढ़ गए। मुझसे यहां कह दिया कि आप आगरा जाओ, हम संभाल लेंगे। मैंने भइयूजी से फोन पर बात की तो उन्होंने कहा कि वहीं रहकर काम करो। मैं अपमान सहते हुए भी अपने काम में लगा रहा।

 

फोन करने से रोका

उस समय आज की तरह मोबाइल नहीं थे। स्थिर फोन ही संपर्क का माध्यम था। बार-बार डायल करने पर मुश्किल से बात हो पाती थी। फैक्स से समाचार भेजते थे। फोन करके समाचार नोट भी कराते थे। छह दिसम्बर को कारसेवकों ने जैसे ही बाबरी मस्जिद को ढहाना शुरू किया, मैं अयोध्या स्थिति कार्यालय की ओर भागा। चाहता था कि सबसे पहले अपने अखबार अमर उजाला को सूचना दूँ ताकि विशेष संस्करण प्रकाशित हो सके। मैंने देखा कि कार्यालय के बाहर दो सरदार टहल रहे थे। मैंने जैसे ही टेलीफोन की ओर हाथ बढ़ाया, तो सरदार ने हाथ पकड़ लिया। कहा कि बाबरी मस्जिद गिर जाए, तब फोन करना। मैंने कहा कि मुझे खबर देनी है, दिन में ही अखबार निकलना है। वे नहीं माने। फिर मैंने स्वयं को संघ का स्वयंसेवक बताते हुए विश्व हिन्दू परिषद और आरएसएस के कई नेताओं के नाम बताए, आर.एस.एस. की प्रार्थना की चार पंक्तियां सुनाईं, तब जाकर उन्होंने फोन करने दिया। आगरा कार्यालय में अम्बरीश गौड़ को समाचार नोट कराया। तीन चौथाई बाबरी मस्जिद ढहाए जाने की सूचना के साथ अमर उजाला ने विशेष संस्करण निकाला। यह संस्करण इतना बिका कि पूर्ति नहीं हो पाई।

 

फँस गए थे पत्रकार

छह दिसम्बर को हमारी टीम के अन्य साथी फँस गए थे। कारसेवकों ने पत्रकारों के साथ अभद्रता शुरू कर दी थी। कैमरे छीन लिए थे। कैमरों की रील को नष्ट कर दिया। जो बचा पाए, वे भाग्यशाली थे। अमर उजाला के छायाकार सुनील छइयां की हालत खराब हो गई थी।  आगे अयोध्या की कहानी भी रोचक है।

 

ट्रेनों में लग रही थी संघ की शाखा

छह दिसम्बर, 1992 की कारसेवा को 31 साल हो गए हैं, लेकिन स्मृतियां आज भी ताजा हैं। जब मैं आगरा से ट्रेन द्वारा अयोध्या रवाना हुआ था अजीब दृश्य था। हर सीट पर कारसेवक था। सुबह और शाम के समय ट्रेनों में ही आरएसएस की शाखा लगाई जा रही थी। प्रार्थना हो रही थी। सामूहिक गीत हो रहे थे। लग रहा था ट्रेन को आरएसएस की शाखा के लिए बनाया गया था।

 

खून खौल उठा

मैंने देखा कि अयोध्या में लाखों कारसेवक थे। अय़ोध्या की तंग गलियों में चारों और दिखाई दे रहे थे सिर्फ कारसेवक। तय किय गया था कि कारसेवक सरयू की माटी और जल एक गड्ढे में डालेंगे और आगे चले जाएंगे। यह बात कारसेवकों को ज्ञात हुई तो मानो उनका खून ही खौल उठा। उनका कहना था कि हम यहां कारसेवा करने के लिए आए हैं, तमाशा देखने के लिए नहीं। ये सूचनाएं कारसेवा की व्यवस्था में लगे विश्व हिन्दू परिषद के तत्कालीन बृज प्रांत संगठन मंत्री चम्पत राय तक पहुंच रही थीं। उनका कहना था कि हमारे कारसेवक अनुशासित हैं, सब ठीक हो जाएगा।

 

जब शुरू हुई कारसेवा

विवादित ढांचे को बचाने के लिए लोहे की रॉड से बेरीकेडिंग बनाई गई थी। उससे पहले सुरक्षा कर्मचारी थी। विवादित ढांचे के करीब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक थे, जो हाफ पैंट और सफेद कमीज में थे। इन स्वयंसेवकों को अय़ोध्या में लगातार प्रशिक्षण दिया जा रहा था कि कोई विवादित ढांचे की ओर बढ़ता है तो क्या करना है। आखिरकार, छह दिसम्बर, 1992 को नियत समय पर कारसेवा शुरू हुई। उधर, एक मंच बना हुआ था, जिस पर लाल कृष्ण आडवणी, आरएसएस के प्रमुख हो.वि. शेषाद्रि, अशोक सिंघल, उमा भारती, मुरली मनोहर जोशी और अनेक साधु-संत विराजमान थे। वे स्वयंसेवकों को संबोधित कर रहे थे। राम मंदिर बनाने की बात हो रही थी। राम विलास वेदांती के भाषण से कारसेवक ढांचा ढहाने के लिए उत्तेजित हो रहे थे। कोई भी स्वयंसेवक सरयू के रेत से कारसेवा के लिए तैयार नहीं था। सुरक्षा के इंतजाम ध्वस्त होने लगे। बेरीकेडिंग तोड़ दी गई। अंतिम सुरक्षा घेरा संघ के स्वयंसेवकों का था। उन्होंने कारसेवकों को रोकने का प्रयास किया, लेकिन संख्या बल के आग वे हार गए। कारसेवकों ने स्वयंसेवकों को उठा-उठाकर फेंक दिया। लोहे की रॉड लेकर स्वयंसेवक विवादित ढांचे पर चढ़ गए और गुम्बद पर प्रहार करने लगे। उमा भारती को भेजा गया कि स्वयंसेवकों को समझाएं, लेकिन उनके साथ अभद्रता कर दी गई। कारसेवकों का गुस्सा देख लालकृष्ण आडवाणी मंच से चले गए।

 

गली में आ गए विनय कटियार की बात

विवादित ढांचे का एक गुम्बद ध्वस्त होने लगा तो मैं अयोध्या स्थित अपने कार्यालय की ओर भागा। हमारा कार्यालय एक आश्रम के सामने थे। मैंने वहां देखा कि विनय कटियार खड़े हुए थे और स्वयंसेवकों से पूछ रहे थे कि क्या हो रहा है? अयोध्या के लोग हाथों में कुदाल, फावड़ा, लोहे की छड़ें लेकर विवादित ढांचे की ओर जा रहे थे। वे चाहते थे कि कारसेवक ढांचे को जल्दी ढहा दें ताकि समस्या हमेशा के लिए समाप्त हो जाए।

 

पीएसी का सहयोग

कारसेवकों को आशंका थी कि विवादित ढांचा गिराया जाएगा, तो सेना आ सकती है। इसकी रोकथाम के इंतजाम भी कर लिए गए थे। सड़कों पर गड्ढे कर दिए गए थे। टायर जलाए गए थे। यूं तो अयोध्या में पीएसी तैनात थी, लेकिन उसने किसी भी कारसेवक को नहीं रोका। इस तरह अप्रत्यक्ष रूप से कारसेवकों को सहयोग दिया जा रहा था। इस बात को कारसेवक खुलकर कह रहे थे।

 

तीन दिन तक लागू न हो सका कर्फ्यू

अयोध्या में छह दिसम्बर के बाद कर्फ्यू लगा दिया गया था, लेकिन इसका अनुपालन नहीं हो सका था। गलियों में लाखों स्वयंसेवक थे। तीन दिन बाद अयोध्या कारसेवकों से खाली कराई जा सकी। तब तक बहुत कुछ बदल चुका था। भारतीय जनता पार्टी की सरकारें बर्खास्त कर दी गई थीं। देशभर में दंगे शुरू हो गए थे।

 

सात दिसम्बर की बात

सात दिसम्बर, 1992 को मैं अय़ोध्या के अस्पताल में पहुंचा। वहां घायल स्वयंसेवक इलाज करा रहे थे, लेकिन शांत नहीं थे। बार-बार कह रहे थे कि हमें जाने दो, बाबरी मस्जिद का नामोनिशान मिटाना है।

 

भोजन की समस्या

छह दिसम्बर को अयोध्या में सबकुछ बंद था। भोजन की समस्या थी। तब हमें एक साधु परिवार ने भोजन कराया। एक बार भोजन कारसेवकों से आग्रहपूर्वक मंगाया गया। हमारा होटल तो फैजाबाद में था, लेकिन पूरे दिन अयोध्या में ही रहते थे। होटल में तो सिर्फ सोने के लिए जाते थे।

 

मेरे जीवित होने का प्रमाण

मेरी पत्नी गर्भवती थी और नर्सिंग होम आगरा में भर्ती थी। मेरे जीवित होने का प्रमाण था कि अखबार में नाम छपना। एक दिन नाम नहीं छपा तो घरवाले चिन्तित हो गए। डॉक्टर प्रभा मल्होत्रा और डॉ. नरेन्द्र मल्होत्रा ने अखबार के कार्यालय से टेलीफोन नम्बर लेकर किसी तरह घर वालों से बात कराई। जब मैं अयोध्या से लौटकर आय़ा तो अखबार के लिए किसी हीरो से कम नहीं था। मुझे स्वेटर खरीदने के लिए नकद पुरस्कार भी दिया गया।

डॉ. भानु प्रताप सिंह

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Dr. Bhanu Pratap Singh