आज हम बात कर रहे हैं, उस भारत की जहां ‘नशा’ एक समस्या नहीं, एक ‘बिजनेस मॉडल’ है। और इस मॉडल के सबसे बड़े निवेशक, हमारे समाज के वो ठेकेदार हैं, जिन्हें शायद यह भी नहीं पता कि समाज के लिए सबसे बड़ा नशा, उनकी खामोशी है।
आगरा के मलपुरा थाना क्षेत्र में, मंगलवार की शाम एक अजीब नजारा देखने को मिला। ‘कानून का राज’ तो दूर की बात है, यहां तो डंडे वाली महिलाएं हाथ में डंडे लेकर, शराब के ठेकों पर पहुंचीं। ये महिलाएं कोई राजनीतिक पार्टी की सदस्य नहीं थीं, न ही किसी एनजीओ की, ये हमारे समाज की वो मां और बहनें थीं, जिनके घर नशे की आग में जल रहे हैं।
सोचिए, एक जगह जहां नशीले पदार्थ इतनी आसानी से मिल जाते हैं, जितनी आसानी से सांस लेना भी नहीं होता। धनौली और नरीपुरा की इन महिलाओं का आरोप है कि यहां परचून की दुकान से लेकर शराब के ठेकों तक, हर जगह नशीले पदार्थ बिक रहे हैं। सुबह के चार बजे से लेकर रात तक ठेके खुले रहते हैं। लगता है यहां रात को शराब की दुकानें नहीं, ‘अमृत महोत्सव’ चल रहा हो। और इस महोत्सव में बच्चे भी आसानी से ‘अमृत’ खरीद सकते हैं। अब सवाल ये है कि क्या हमारे ‘कानून के रखवाले’ सो रहे थे? या फिर उन्हें सिर्फ ‘अमृत’ की खुशबू आ रही थी?
‘नशा’ बेचो, ‘आश्वासन’ खरीदो: एक सरकारी स्कीम
समाज सेविका आशा सचदेव के नेतृत्व में, इन महिलाओं ने प्रशासन को चेतावनी दी है। उनका कहना है कि अगर नशे की बिक्री नहीं रुकी तो वे उग्र आंदोलन और भूख हड़ताल करेंगी। इन महिलाओं ने पहले भी कई बार प्रदर्शन किए हैं, लेकिन हर बार उन्हें मिलता है सिर्फ ‘आश्वासन’। ये ‘आश्वासन’ भी एक नशे जैसा ही है, जो कुछ समय के लिए सुकून देता है, लेकिन असलियत नहीं बदलता।
लगता है प्रशासन ने एक सरकारी स्कीम चला रखी है – ‘नशा बेचो, आश्वासन खरीदो’। यहां प्रशासन को लगता है कि कुछ मीठी बातें बोल देने से समस्या खत्म हो जाएगी। लेकिन उन्हें यह नहीं पता कि जब पानी सिर से ऊपर चला जाता है, तब मीठी बातें नहीं, सिर्फ ‘डंडे’ काम आते हैं। और आज ये महिलाएं डंडे लेकर निकली हैं।
क्या ये हमारा दुर्भाग्य नहीं कि जिस समाज में महिलाओं को देवी का दर्जा दिया जाता है, उसी समाज में उन्हें अपने बच्चों को नशे से बचाने के लिए डंडे उठाने पड़ते हैं?
क्या ये शर्म की बात नहीं कि हम उस भारत में जी रहे हैं, जहां नशा दिन-रात बिकता है और कानून का ‘कान’ भी नहीं हिलता?
यह एक ऐसी स्थिति है, जहां सवाल सिर्फ शराब ठेकों पर नहीं, बल्कि हमारे समाज के उन ठेकेदारों पर भी उठते हैं, जिनकी खामोशी ने इस नशे के कारोबार को एक बिजनेस बना दिया है।
यह खबर सिर्फ आगरा की नहीं, ये हर उस शहर, हर उस गांव की कहानी है जहां ‘नशा’ एक महामारी बन चुका है, और हमारा सिस्टम सिर्फ ‘खामोशी’ की दवाई दे रहा है।
आज जरूरत है, इन डंडे वाली महिलाओं की आवाज सुनने की, और उस आवाज को इतनी बुलंद बनाने की कि यह सरकार के कानों तक पहुंचे, ताकि ‘कानून के ठेकेदार’ जागे और अपना ‘काम’ करें।
-मोहम्मद शाहिद
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